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जवाहरलाल नेहरू 132वीं जयंती विशेष
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती पूरे देश में 'बाल दिवस' के रूप में मनाई जाती है। पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। 15 साल की उम्र में जवाहरलाल नेहरू इंग्लैंड पढ़ने चले गए। वहां हैरो कॉलेज में दो साल रहने के बाद, कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि हासिल की और सन् 1912 में वे इंग्लैंड से लौटे। सन् 1916 में वे पहली बार महात्मा गांधी से मिले। 1919 में वे इलाहाबाद होम रूल के सचिव बने।
सन् 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में चल रहे अवध किसान आंदोलन में सक्रिय रूप से भागीदारी की। सन् 1923 में जवाहरलाल लाल नेहरू इलाहाबाद म्युनिसिपल बोर्ड के अध्यक्ष बने। सन् 1923 में ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महामंत्री बने। सन् 1926 में यूरोप से लौटने के बाद उनके सार्वजनिक जीवन की नई शुरुआत हुई।
नेहरू जी एक राजनीतिक जीवन की शुरुआत
दरअसल, अपने सक्रीय राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों से भरी जिंदगी में नेहरू जी ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए। कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में भारत के स्वाधीनता आंदोलन का लक्ष्य 'पूर्ण स्वराज' होगा का प्रस्ताव पारित कराने में जवाहरलाल नेहरू की बड़ी भूमिका थी।
सन् 1927 में रूसी क्रांति की दसवीं वर्षगांठ में शामिल होकर लौटने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने भारत में समाजवादी समाज की स्थापना को अपना घोषित लक्ष्य बताया। सन् 1928 के कलकत्ता अधिवेशन से पंडित नेहरु को राजनीतिक के बड़े क्षितिज पर उतारने की तैयारी शुरू हुई।
इस दौरान 1924-28 तक महात्मा गांधी सक्रिय राजनीति से अलग रहे। कलकत्ता अधिवेशन में ही तय हो गया कि मोतीलाल नेहरू अपनी राजनीतिक विरासत जवाहरलाल नेहरू को सौंपने का मन बना चुके थे। जवाहरलाल नेहरू भारत के संवैधानिक सुधार के लिए मोतीलाल नेहरू समिति की रिपोर्ट पर दस्तखत करते हैं।
कलकत्ता के इस विशेष अधिवेशन में कांग्रेस के अगले अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस की प्रांतीय समितियों की ओर से महात्मा गांधी का नाम प्रस्तावित था। आम धारणा यह थी कि सरदार वल्लभ भाई पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं, पर महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के नाम का समर्थन किया।
सुभाष चंद्र बोस का यह आरोप है कि महात्मा गांधी का यह कदम भले चतुराई भरा हो। दरअसल, यहीं से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बीच जहां एक ओर राजनीतिक मेल-मिलाप की शुरुआत होती वहीं दूसरी ओर वाम पक्ष और कांग्रेस के बीच की खायी लगातर चौड़ी होती जाती है।
इस साल एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना घटित हुई। जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय स्वतंत्रता लीग (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) की स्थापना की और स्वयं उनके महासचिव बने। इस लीग का घोषित उद्देश्य यह था, भारत किसी भी लिहाज से ब्रिटिश साम्राज्य का अंग नहीं होगा। आगे हम देखेंगे कि जवाहर लाल नेहरू कैसे उस लक्ष्य से पलट जाते हैं। उस लक्ष्य से जिसकी वजह से सन 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में फूट पड़ी और जो सन् 1916 के लखनऊ अधिवेशन तक बना रहा।
सन् 1929 में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष हुए। जवाहरलाल नेहरू के लिए यह पहला अवसर था, जब पिता मोतीलाल नेहरू अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की विरासत सौंपते हैं। सन् 1946 तक नेहरू कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष हो चुके थे। उनके मुकाबले सरदार वल्लभ भाई पटेल को तीन अवसर मिले कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर वे केवल एक बार 1931 में कराची अधिवेशन में अध्यक्ष बन पाए, जिसमें सन् 1946 वह अवसर भी शामिल था - जब यह तय था कि कांग्रेस का भावी अध्यक्ष ही देश का अगला प्रधानमंत्री और गवर्नर जनरल के काउंसिल के उपाध्यक्ष होगा।
कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में नेहरू ने पूर्ण स्वराज का लक्ष्य तो घोषित कर दिया। पर उतावलेपन में की गई नेहरू की इस घोषणा के बाद कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर पर किसी ठोस कार्यक्रम का नितांत अभाव था। कांग्रेस को एक बार फिर गांधी की शरण में जाना पड़ा। गांधी ने दांडी मार्च के जरिए नमक कानून तोड़ने की रणनीति अपनाई। जो पूर्ण स्वराज की मांग की तुलना में ब्रिटीश हुकूमत की जड़े हिलाने में कहीं ज्यादा कारगर साबित हुई। जवाहरलाल नेहरू भी यह बात ठीक से जानते थे कि यरवदा जेल में कैद गांधी को पता है आम आदमी के हृदय तंत्री को कैसे झकझोरा जा सकता है?
सन् 1942 में महात्मा गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इसके बाद नेहरू के राजनीतिक जीवन में 29 अप्रैल 1946 का दिन गांधी की कृपा से महत्त्वपूर्ण तारीख साबित होने वाला रहा। महात्मा गांधी भले कांग्रेस की सक्रिय राजनीति से दूर रहें। पर जैसा कि गांधी के जीवनीकार लुई फ़िशर ने लिखा है-
"राजनीति में नेहरू जीवन - भर दलगत राजनीति के पेचों में उतने माहिर कभी नहीं हुए, जितने महात्मा जी और पटेल थे।" दूसरे विश्वयुद्ध की वजह से कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पा रहा था।
मौलाना अब्दुल कलाम आजाद कांग्रेस के छः साल से अध्यक्ष थे। 20 अप्रैल 1946 को गांधी ने कलाम को इस्तीफा देने के लिए पत्र लिखा। 29 अप्रैल 1946 कांग्रेस कार्य समिति में अध्यक्ष का चुनाव होना था।
गांधी, अब्दुल गफ्फार खान और राजेंद्र बाबू समेत कांग्रेस के सभी दिग्गज नेता इस बैठक में मौजूद थे। कांग्रेस की परंपरा के अनुसार प्रांतीय समितियों की सिफारिश के आधार पर कांग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव होना चाहिए।
प्रदेश कांग्रेस की पंद्रह में से बारह समितियों ने कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम की संस्तुति की थी। तीन ने पट्टाभि सीतारमैया और जे बी कृपलानी के नाम का प्रस्ताव भेजा था।
जवाहरलाल नेहरू का नाम किसी प्रांतीय समिति ने नहीं भेजा था। फिर भी जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बनें, तो यह महज गांधी जी के हस्तक्षेप की वजह से ही सम्भव हुआ। उस गांधी जी की कृपा से जो तब कांग्रेस के सक्रिय सदस्य तक नहीं थे। इस बात को जवाहरलाल नेहरू ने स्वीकार भी किया है कि अध्यक्ष भले वे रहें हों, पर 'सह महाअध्यक्ष' के रूप में गांधी जी हमेशा मौजूद रहे। गांधी जी की यह समझ थी कि देश उस वक्त जिस नाजुक दौर से गुजर रहा था। मुहम्मद अली जिन्ना जैसे देश के विभाजन पर अड़े हुए थे।
अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां जिस तरह से बदल रही थीं, उसमें सरदार पटेल की अपेक्षा जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री के रूप में ज्यादा कारगर साबित होंगे। जब कि कांग्रेस और देश के लोगों को भरोसा था कि सरदार पटेल- नेहरू की तुलना में मुहम्मद अली जिन्ना से जोड़तोड़ और मोलभाव करने में ज्यादा में माहिर है और उनका अध्यक्ष इस लिहाज से सर्वथा मुनासिब है।
गांधी जी के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू को अंतरराष्ट्रीय मामलों की समझ बेहतर है और ब्रिटेन के तमाम बड़े नेताओं से उनकी व्यक्तिगत दोस्ती है। विदेशों में भी गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में जवाहरलाल नेहरू को ही देखा और माना जा रहा था।
गांधी ने मजाक में ही सही पत्रकार दुर्गादास से एक बार कहा भी था-
"हमारे कैम्प में नेहरू ही अकेले अंग्रेज हैं।" यह भी की मेरे मरने के बाद नेहरू मेरी ही भाषा बोलेंगे। पर गांधी की हत्या के बाद कि घटनाओं ने साबित किया कि जवाहरलाल नेहरू भारत में अंतिम अंग्रेज साबित हुए। गांधी के बुनियादी नीतियों के वे घोर आलोचक तो थे ही उस समाजवादी राजनीति और विदेशी नीति की भी उन्होंने कद्र नहीं की जिनकी दुहाई देकर वे कांग्रेस के सर्वग्राही मोरचे में निरन्तर आगे बढ़ते हुए निर्णायक स्थिति में पहुंचे थे।
गांधी का आशीर्वाद तो उन्हें विरासत में मिला था। पर कांग्रेस के मंच का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस के अंदर विकसित हो रही समाजवादी राजनीति और वामपंथी राजनीति को न वे ठीक से साध पाए और न कोई दिशा दे पाए।
सन् 1934-38 के बीच अवसर तो समाजवादी राजनीति करने वाले लोगों के पास भी था, अन्यथा कई मौकों पर वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले समाजवादी विचारधारा के पास भी कांग्रेस की दुविधा ग्रस्त राजनीति को नई दिशा देने की कोई पहल नहीं दिख रही थी। तब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अंदर स्वाधीनता संग्राम की सबसे प्रतिभाशाली लोगों-आचार्य नरेंद्र देव , अच्युत पटवर्धन, मेहर यूसुफ अली, जयप्रकाश नारायण और डॉ.राम मनोहर लोहिया जैसे लोगों की मौजूदगी थी। राजनीति के धुंधलके में सही राह दिखाना इनका फर्ज बनता था। जवाहरलाल नेहरू भी उस दिशा में अकेले आगे नहीं बढ़ सके।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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