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स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कारावास भुगतने वाले और इस आंदोलन के मूल्यों पर अंतिम सांस तक चलने वाले पक्के गांधीवादी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कारावास भुगतने वाले और इस आंदोलन के मूल्यों पर अंतिम सांस तक चलने वाले पक्के गांधीवादी, महाराष्ट्र के विकास के लिए सबकुछ न्यौछावर करने के उद्देश्य से मंत्री बनने के बाद अपने कार्यकाल का प्रत्येक दिवस उपयोगी कार्यों में लगाने वाले कुशल राजनीतिज्ञ, सार्वजनिक जीवन में कट्टर राजनीतिक मतभेदों के बावजूद विपक्षी नेताओं के साथ व्यक्तिगत जीवन में स्नेह रखनेवाले दिलदार मित्र, राजनीतिक जीवन में आलोचनाओं के तूफानों का सामना करते हुए भी सुसंस्कृत वाणी का प्रयोग करने वाले जन्मजात अभिजन, ग्रामीण युवाओं की मदद से लोकमत की नींव रखनेवाले दूरदर्शी संपादक, जिंदादिल प्रकृति प्रेमी जैसे मोहक व्यक्तित्व के धनी, 'लोकमत' के संस्थापक जवाहरलालजी दर्डा के जन्मशताब्दी वर्ष का आज शुभारंभ हो रहा है।
उपर्युक्त विशेषताएं बाबूजी के जीवन का मुख्य आधार थीं। लोकमत को जब साप्ताहिक से दैनिक में रूपांतरित करने का फैसला किया गया अर्थात पचास वर्ष पूर्व राजनीतिक जीवन में सक्रिय बाबूजी के लिए मुंबई का आसमान खुला था। लेकिन बाबूजी का कहना था कि अगर पत्रकार के पैर मिट्टी में सने नहीं होंगे तो समाज के निचले तबके के सुख-दुख को दिल्ली-मुंबई में बैठे सत्ताधीशों तक कौन पहुंचाएगा? 'जहां एसटी, वहां लोकमत' यह बाबूजी का मंत्र हालांकि बेहद आसान है लेकिन यही मंत्र आज लोकमत के व्यावसायिक विस्तार-यश की रीढ़ बन चुका है. मीडिया समूह का संस्थापक-मालिक यदि स्वयं सत्ता का अंग हो तो दोनों के बीच की धूमिल होने वाली लक्ष्मण रेखा का पालन किस तरह से किया जाए यह बाबूजी ने अपने नि:स्पृह आचरण से दिखाया। 'लोकमत' के संपादक-पत्रकारों से बाबूजी कहते थे, 'आपकी पत्रकारिता में सत्य और साहस दोनों होना चाहिए. वह इतनी ठोस हो कि जिस विभाग का मैं मंत्री हूं, उसकी अनियमितताओं पर सवाल पूछने का साहस भी आप में होना चाहिए।'
महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल में जिस भी विभाग का दायित्व उन्हें सौंपा गया, उसमें उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। उद्योग, ऊर्जा, सिंचाई, खाद्य व नागरिक आपूर्ति, स्वास्थ्य, नगरविकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग संभालते हुए उन्होंने सत्ता का इस्तेमाल आम जनता के लिए किया। उनके कार्यकाल में ग्रामीण क्षेत्रों में तालुका स्तर पर औद्योगिक विकास हुआ। कांग्रेस पर उनकी अचल निष्ठा थी। राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में उन्हें सम्मान मिला लेकिन कई बार आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। फिर भी ऐसे मौकों पर उन्होंने संयम नहीं खोया और न ही दलगत निष्ठा छोड़ी। वे शांति के साथ अपना काम करते रहे। राजनीतिक दौड़भाग में भी व्यक्तित्व का संतुलन कायम रखने की कुशलता उन्हें साहित्य, संगीत तथा प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम के कारण हासिल हुई। सत्ता गई, अधिकार छोड़ने का समय आया लेकिन बाबूजी कभी विचलित नहीं हुए, क्योंकि यवतमाल की खेती में काम करते हुए भी उनमें वही उत्साह था जो विधानमंडल में था।
बाबूजी मुंबई में हों, नागपुर में हों या यवतमाल के निवास पर, उनकी मेज पर मोगरे के ताजे फूल रखे रहते थे और वे प्रसन्नता से गीत गुनगुनाते रहते। यही उनके व्यक्तित्व का वास्तविक सामर्थ्य था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान सत्याग्रह, कारावास का तेजस्वी पर्व और राष्ट्रनिर्माण के स्वप्न को लेकर दांव पर लगाई गई कर्तृत्ववान युवावस्था ...दिल्ली-मुंबई की सत्ता के दरबार में आमजन की आवाज मुखर करने के लिए ग्रामीण युवाओं के सहयोग से लोकमत की नींव रखते हुए, सत्ता में रहकर भी निर्लिप्त, नि:स्पृह भाव से की गई पत्रकारिता ...सत्ता में रहते हुए हर विभाग का उपयोग पूरी लगन से जनकल्याण के लिए करते हुए गुजारा गया मंत्री पद का प्रदीर्घ कार्यकाल एवं सत्ता के मोहमयी अखाड़े में सदैव उज्ज्वल रहने वाली अचल पार्टीनिष्ठा...राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन में निरंतर संजोई गई सौजन्यशील रसिकता और जान न्यौछावर करनेवाले मित्रों, सहयोगियों, बेटे-बहू-नाती-पोतों का प्रेम से निर्मित समृद्ध परिवार...आपका जीवन एक अखंड साधना थी, बाबूजी! उस समर्पित साधना को कृतज्ञ नमस्कार...

Rani Sahu
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