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इस बीच खूब सारी किताबें पढ़ीं। पढ़ना चलता ही रहता है
डॉ. विजय शर्मा
सोर्स -अमर उजाला
इस बीच खूब सारी किताबें पढ़ीं। पढ़ना चलता ही रहता है। मुद्रित किताब पढ़ना सकून देता है पर इसकी कुछ सीमा होती है। खासकार एक उम्र के बाद इसे पढ़ना कठिन होता है। इसका फोंट आप अपनी सुविधानुसार बड़ा-छोटा नहीं कर सकते हैं। ई-बुक आपको यह सुविधा देती है। वैसे कम्प्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट ने पढ़ने का धैर्य हमसे छीन लिया है। अत: अब कोई 600-800 पन्नों की किताब नहीं पढ़ना चाहता है, इसीलिए मैं बात करने जा रही हूं एक पतली-सी किताब की।
दरअसल, मात्र सौ पन्नों के इस रूपक उपन्यास को एक बैठकी में पढ़ा जा सकता है। मगर बात एक बार पढ़ने से बनेगी नहीं। यदि आप किताब की बारीकियों में, गहराई में जाना चाहते हैं, उसकी संवेदनशीलता की खुशबू में डूबना चाहते हैं, जापानी जीवन शैली को नजदीक से महसूसना चाहते हैं तो कम-से-कम दो रीडिंग तो लगानी ही होगी।
मैं बात कर रही हूं जापानी उपन्यासकार ताकाशी (इस नाम को पढ़ते हुए मुझे सदैव मलयालम के लेखक तकषि की याद आती है) हिराइड की किताब 'द गेस्ट कैट' की। ताकाशी वैसे तो कवि और आलोचक हैं मगर उन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं। उनकी बहुत कम किताबों का इंग्लिश में अनुवाद हुआ है। वे बोलते भी केवल जापानी भाषा में हैं।
हां, इंग्लिश लिख-पढ़ सकते हैं। उनकी किताब 'द गेस्ट कैट' इंग्लिश में आते ही फ्रांस और अमेरिका में बेस्टसेलर बन गई। यह किसी विज्ञापन या बिक्री के लिए किए गए किसी स्टंट से संभव नहीं हुआ। यह हुआ पाठकों के द्वारा। पाठक ही किसी किताब का भाग्य विधाता होता है। पाठकों ने इसे पढ़ा, उन्हें अच्छा लगा और उन्होंने अपने दोस्तों को बताया। जापान में पुरस्कृत यह किताब हाथों-हाथ बिकी।
अक्सर शादीशुदा युगल कुछ सालों बाद एक-दूसरे के प्रति ठंडे पड़ जाते हैं। उनके बीच की ऊष्मा गायब हो जाती है। उनके पास एक-दूसरे से साझा करने के लिए, बोलने-बतियाने के लिए कुछ नहीं रह जाता है। खासकर जब दोनों कामकाजी हों और नि:संतान भी।
इस उपन्यास में ऐसे ही एक अनाम दम्पति हैं। दोनों अपनी उम्र के तीसरे दशक में हैं। दोनों फ्रीलांस काम करते हैं। पति लेखक है और पत्नी प्रूफ-रीडर। वे टोकियो के एक बहुत शांत इलाके में किराए के घर में रह रहे हैं। घर बड़ा नहीं है मगर बागीचा और पूरी जमीन खूब बड़ी है।
कहते हैं, तीस की उम्र बहुत क्रूर होती है। अचानक यह आपको सतह से उठाकर समुद्र की कठिनाई में खींच ले जा सकती है, यहां तक कि मृत्यु में भी। बीमारी, मृत्यु की खबर मिलनी शुरू हो जाती है। उम्र के इसी क्रूर दौर से ये पति-पत्नी गुजर रहे हैं।
एक दिन पड़ोसी की बिल्ली छिबि उनकी रसोई में मेहमान की तरह खुद-ब-खुद चली आती है। नायक को बिल्लियों से कोई लगाव नहीं है। जब वह अपने दोस्तों को बिल्लियों पर लाड़ लुटाते देखता है तो उसे कोफ़्त होती है। मुझे भी कुत्ते-बिल्लियों से कोई लगाव नहीं है।
मेरे एक दोस्त का घर कुत्ते-बिल्लियों से भरा हुआ है। उनके घर का नाम ही 'कैट पैलेस' और 'डॉग हैवन' है। उन्होंने कई बार बुलाया है, मैं हर बार टाल जाती हूं। अब कोरोना ने उन्हें लील लिया है, पता नहीं उनके कुत्ते-बिल्लियों का क्या हुआ।
बिल्ली पर लिखने वाले ताकाशी अकेले लेखक नहीं हैं। हमारे अपने हरनोट की 'बिल्लियां बतियाती हैं'। सत्यदेव त्रिपाठी ने अपनी बिल्ली पर बहुत मार्मिक संस्मरण लिखा है। नोबेल पुरस्कृत लेखिका डोरिस लेसिंग ने 'ऑन कैट्स' लिखा है। उनके यहां बिल्लियां हैं, साथ ही जंगली बिलाड़ भी। बाज, उल्लू और ढ़ेर सारे पशु-पक्षी हैं। इसकी सेटिंग अफ्रीका है। जबकि 'द गेस्ट कैट' की सेटिंग जापान है। छिबि बहुत सुंदर जीव है, बिल्लियों में रत्न।
बिल्ली स्वभाव में कुत्ते से बहुत भिन्न होती है। वह कुत्ते की तरह पोस नहीं मानती है, बड़ी स्वतंत्र प्रकृति की होती है। छिबि आती है, खाती है और चली जाती है। अगले दिन फिर आती है, उसके अगले दिन फिर। अब वह केवल रसोई में नहीं रहती है। खास समय पर आती है, खाती है और सोफे पर आराम फरमाती है। फिर उठकर चली जाती है। बताना मुश्किल है कि छिबि उनकी है या उनके पड़ोसी की।
छिबि के साथ इस युगल के घर में थोड़ी-सी खुशी भी चली आती है। अचानक उनकी जिंदगी बदलने लगती है। अब वे टेबल पर सिर झुकाए अपने-अपने काम में डूबे नहीं रहते हैं। वे छिबि के लिए खरीदारी करने लगते हैं। साथ-साथ घूमने-बतियाने लगते हैं। छोटी-छोटी बातें साझा करने लगते हैं। साथ पब जाते हैं, बागीचे की खूबसूरती निहारते हैं, बागीचा जो बहुत योजना के साथ लगाया गया है, जहां हर मौसम में अलग फ़ूल खिलते हैं। दोनों टेडपोल्स को मेढ़कों में परिवर्तित होते देखते हैं। हवा में उड़ती हुई ड्रैगनफ़्लाई जोड़ा बनाती है, उसमें उन्हें भग्न हृदय की छवि नजर आती है। वे छिबि के साथ खेलते हैं। जिंदगी खूबसूरत हो उठती है।
छिबि के आने से पति आत्मकथात्मक का आभास देता उपन्यास लिखना शुरू कर देता है। पाठक देखता है कि कथावाचक जो कह रहा है वह वास्तव में उसकी नई किताब है। मगर सब दिन एक समान नहीं होते हैं। परिवर्तन जीवन का अटूट नियम है। कुछ ऐसा होता है कि अचानक परिकथा उदासी और हताशा में डूब जाती है।
कथावाचक के साथ पाठक के मुंह से भी निकलता है, 'भला उसने ऐसा कैसे किया?' पाठक का रहस्य से सामना होता है और वह सोचने पर मजबूर हो जाता है। वास्तविक उदासी के विषय में लिखना संभव नहीं है। हां, ताकाशी ने यह असंभव काम संभव किया है। क्या होता है? कैसे होता है? क्यों होता है? यह आप स्वयं पढ़ कर जाने, अनुभव करें।
इस लघु उपन्यास का काल पिछली सदी का आठवां दशक है, जब सब चीजों के बाजार भाव चढ़े हुए हैं। घरों और रीयल इस्टेट के दाम आकाश छू रहे हैं। चारों ओर आर्थिक असुरक्षा मुंह बाए खड़ी है। हां, मध्यकाल, मेकियावेली का संदर्भ भी इस लघु उपन्यास में आया है। बीच-बीच में फिलॉसफी का छौंक लगाता यह उपन्यास अवलोकन क्षमता, हास्य और बुद्धि का अद्भुत संगम है। नाजुक कलात्मक, परिवर्तन पर ध्यान लगाता यह उपन्यास हमें भी संवेदनशील और निरीक्षण में कुशल बनाता है।
जापानी खुशबू से लबरेज यह उपन्यास पढ़ना आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है।
Rani Sahu
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