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हम उसमें राजनीति न देखें, समाधान देखें। जब समाधान का मार्ग खोजेंगे, तभी समाधान दिखेगा।
हमने जब पहली व फिर दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक की थी, तो वह समस्या से ऊपर निकल जाने जैसा समाधान था। इसके परिणामस्वरूप भारत व पाकिस्तान के संबंधों में गुणात्मक अंतर आ गया। 'हमारे पास एटम बम है.' जैसी भाषा फिर नहीं सुनी गई। फिर अनुच्छेद 370 व 35ए को निष्प्रभावी करना, कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करना, ऐसा ही अकल्पनीय-सा कार्य था। अब भारत-पाकिस्तान का शक्ति समीकरण स्थायी रूप से बदल गया, लेकिन समाधान को राजनीतिक तार्किक परिणति तक पहुंचाना आवश्यक था, जो फिलहाल उलझा हुआ है।
कश्मीर समस्या का समाधान पहले क्यों नहीं हो सका? इसका एकमात्र कारण तुष्टिकरण है। घाटी की राजनीति में बह रही अलगाववादी बयार ही कश्मीर समस्या का मुख्य कारण है। अतः घाटी की राजनीति को नेपथ्य में ले जाना आवश्यक है। पश्चिमी पर्वतीय कश्मीर घाटी के गूजर-बकरवालों को देश से सीधे जुड़ने का अवसर नहीं मिला। अब यदि पश्चिमी कश्मीर के चार पर्वतीय जिलों को अलग प्रशासनिक इकाई या एक अतिरिक्त केंद्र शासित प्रदेश स्वीकार कर लिया जाए, तो कश्मीर घाटी एक छोटी राजनीतिक इकाई रह जाएगी। इस तरह इस सीमित समस्या क्षेत्र को संभालना आसान हो जाएगा और कश्मीरी पंडितों को घाटी में बसाने का रास्ता भी निकल सकता है।
हमने तीन कृषि कानूनों का हश्र देखा है। इसका उद्देश्य तो कृषि को मंडी नियंत्रण से मुक्त करना था, लेकिन नकारात्मक प्रचार असल उद्देश्य पर, कृषकों के हित पर इतना भारी पड़ गया कि जनहित के कानून वापस लेने पड़ गए, यह भी अकल्पनीय था। हम किसानों को उनका हित समझा न सके। हम फिर उलझाव के शिकार हो गए। अब अग्निवीर सेना के बदलाव के प्रारंभ की महत्वाकांक्षी योजना है। इस योजना पर एक विवेकपूर्ण चर्चा हो सकती है, लेकिन हिंसक प्रतिक्रियाओं ने गुंजाइश ही नहीं बनने दी। पहले दिन से ही हिंसा, आगजनी का माहौल बना दिया गया। अग्निवीर जैसी योजनाएं देश में पांच वर्षीय आपातकालीन / शॉर्ट सर्विस कमीशन के रूप में सन 1962 से चली आ रही हैं। अब वे पांच वर्ष से बढ़कर 10 प्लस चार वर्ष की हो चुकी हैं और चल रही हैं। शार्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों से कभी किसी ने नहीं पूछा कि पांच साल के बाद क्या करोगे?
सेना ने हमें सक्षम बनाया। वे अधिकारी नेतृत्व के गुणों के दम पर कॉरपोरेट जगत में, व्यापार-कारोबार में, उद्योग-पर्यटन में चले गए। कुछ बैंकों, पब्लिक सेक्टर में, कुछ हमारे जैसे लोग प्रशासन, पुलिस में अपनी क्षमताओं के दम पर परीक्षाओं द्वारा चयनित हो गए। जवानों के स्तर पर तो यह प्रथम परिवर्तन है और निश्चय ही सेना की बेहतरी के लिए है। आप चाहें तो इसे सैनिकों का छह माह नहीं, बल्कि चार वर्ष लंबा वेतन सहित प्रशिक्षण मान सकते हैं, जिसके बाद इनमे से 25 फीसदी स्थायी कर दिए जाएंगे। शेष जैसी कि घोषणाएं की गई हैं, अर्धसैनिक बलों, सिविल पुलिस व सिविल विभागों में समायोजित किए जाएंगे। तो फिर समस्या कहां है?
अग्निवीर से चार वर्ष बाद आप बाहर आ सकते हैं। बढ़ती चुनौतियों के मद्देनजर आज सेना को ही नहीं, समाज को भी सक्षम होने की आवश्यकता है। सिविल सेवा, व्यापार, उद्योग, सेवाओं आदि प्रत्येक क्षेत्र में उद्यम की भावनाओं को जगाने की आवश्यकता है। विभाजनकारी सोच से मुकाबले की क्षमता समाज में होनी चाहिए। इस सेवा में वे आएं, जो सीमाओं के साथ-साथ समाज को भी अपनी सेवाएं देने को प्रस्तुत हों। यदि हम अग्निवीरों की सार्थकता का यह विमर्श राष्ट्र-समाज के सामने लाएं, तो हम अस्थायी समस्याओं के इन बादलों का अतिक्रमण कर उनसे पार निकल जाएंगे। स्थानीय राजनीतिक हित राष्ट्रीय नीतियों के सम्मुख चुनौती बन रहे हैं। अब राज्य-केंद्र के विवाद में समाधान की राह हमवार कैसे हो, यहां यह एक बड़ा सवाल सामने खड़ा हो जाता है। समस्या एक दायित्व है। हम उसमें राजनीति न देखें, समाधान देखें। जब समाधान का मार्ग खोजेंगे, तभी समाधान दिखेगा।
सोर्स: अमर उजाला
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