सम्पादकीय

जेम्स वाटसन: एक वैज्ञानिक जिसने पैसों के लिए नीलाम कर दिया अपना नोबेल मेडल

Gulabi Jagat
6 April 2022 9:52 AM GMT
जेम्स वाटसन: एक वैज्ञानिक जिसने पैसों के लिए नीलाम कर दिया अपना नोबेल मेडल
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आज दुनिया के महानतम जीवित वैज्ञानिकों में से एक जेम्स वाटसन का जन्मदिन है
आज दुनिया के महानतम जीवित वैज्ञानिकों में से एक जेम्स वाटसन का जन्मदिन है. डीएनए की डबल-हेलिक्स संरचना (double-helix structure of DNA) को उजागर करने के लिए जेम्स वाटसन को 1962 में उनके सहयोगियों फ्रांसिस क्रिक और मॉरिस विल्किंस के साथ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया गया था.
फादर ऑफ डीएनए के नाम से दुनिया भर में मशहूर जेम्स डिवे वाटसन (James Dewey Watson) ने मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए अनेकों अग्रणी संस्थानों का नेतृत्व किया. उन्होंने 1988 और 1992 के बीच सम्पूर्ण मानव जीनोम की मैपिंग और सीक्वेंसिंग के निर्धारण के लिए यूएस ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट का भी निर्देशन किया, जिसने पहली बार मानव डीएनए के प्रसार की सफलतापूर्वक मैपिंग की.
लेकिन अफसोस की बात है कि बाद के वर्षों में इन्हीं जेम्स वाटसन ने फ्रस्ट्रेशन और कुछ उल्लेखनीय या बड़ा न कर पाने की ग्लानि से जाति, नस्ल, महिलाओं, समलैंगिकों आदि के बारे में ऐसे उलजुलूल बयान दिए जिससे उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हुई ही, साथ में उनकी सभी मानद उपाधियाँ और कई सम्मान भी वापस ले लिए गए!
हद तो तब हो गई जब 2014 में वाटसन ने पैसों के लिए अपने नोबेल मेडल को 4.7 मिलियन अमेरिकी डॉलर में बेच दिया, जिसे बाद में खरीददार ने नोबेल सम्मान की कद्र करते हुए वापस वाटसन को सौंप दिया. लेकिन आलोचकों को विशेष रूप से उनके उलजुलूल बयानों से चिंता सताती रहती है जो न केवल आपत्तिजनक हैं, बल्कि वे एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए हैं जो अपने पूर्वाग्रहों को सही साबित करने के लिए विज्ञान का सहारा लेता रहा है. जेम्स वाटसन वैज्ञानिक से छद्म वैज्ञानिक (Pseudoscientist) बनने के एक बड़े उदाहरण हैं.
जेम्स वाटसन का जन्म 6 अप्रैल, 1928 को शिकागो में हुआ था. वाटसन का पूरा बचपन शिकागो में ही बीता. उनकी पढ़ाई-लिखाई आठ साल तक होराश मैन ग्रामर स्कूल में और दो साल साउथ शोर हाई स्कूल में हुई. वाटसन बचपन से ही प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी थे. उन्होंने बचपन में ही यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि वे दुनिया में अपनी एक अलग छाप छोड़कर जाना चाहते थे. जब वे महज 12 साल के थे, तब 'क्विज किड' नामक एक रेडियो प्रोग्राम में अपने उत्कृष्ट सूझबूझ का परिचय दिया. 15 साल की उम्र में वाटसन को प्रतिभाशाली युवाओं के लिए एक एक्सपेरिमेंटल स्कॉलर्शिप प्रोग्राम के तहत शिकागो यूनिवर्सिटी में ट्रांस्फर कर दिया गया.
पक्षियों में आजीवन रुचि ने उन्हें जीव विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने 1947 में जूलॉजी में शिकागो यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया. इरविन श्रोडिंगर की "व्हाट इज लाइफ?" किताब पढ़ने के बाद जेम्स वाटसन ने अपनी व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं को पक्षीविज्ञान के अध्ययन से आनुवंशिकी में बदल दिया. 1947 में वाटसन ने इंडियाना यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी में फेलोशिप हासिल की, जहां से उन्होंने 1950 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की.
इंडियाना यूनिवर्सिटी में वाटसन ने आनुवंशिकी के जाने-माने वैज्ञानिक साल्वाडोर एडवर्ड लूरिया के मार्गदर्शन में सूक्ष्मजीवों की संरचना जानने के लिए एक्स-रे का प्रयोग किया. डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के बाद डॉ. वाटसन ने अपने पोस्ट डॉक्टरल का एक वर्ष कोपेनहेगन में बिताया, जहां उन्होंने नेशनल रिसर्च काउंसिल के मर्क फेलो के रूप में अपना अनुसंधान जारी रखा.
मई 1951 में वाटसन ने नेपल्स में एक वैज्ञानिक सम्मेलन में भाग लिया, जहां उनकी मुलाक़ात ब्रिटिश जीवभौतिकीवेत्ता (biophysicist) मॉरिस विल्किंस से हुई. इस मुलाक़ात का वाटसन के कैरियर पर निर्णायक प्रभाव पड़ा. सम्मेलन में विल्किंस डीएनए अणुओं (molecules) की तस्वीर लेने के लिए एक्स-रे विवर्तन (X-ray diffraction) का प्रयोग करने के परिणाम दिखा रहे थे. विल्किंस के परिणामों से वाटसन बेहद उत्साहित हुए और वहीं वाटसन ने यह फैसला लिया कि 'प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए मेरे लिए यही उपयुक्त तरीका है.'
1952 में वाटसन एक्स-रे विवर्तन द्वारा डीएनए की संरचना के निर्धारण का सपना लेकर कैवेंडिश लैबोरेटरी पहुंचे, जहां उन्होंने मॉलिक्युलर बायोलॉजिस्ट फ्रांसिस क्रिक के साथ काम करना शुरू किया. ठीक इसी समय क्रिक के अलावा मॉरिस विल्किंस, रोसालिंड फ्रैंकलिन और लाइनस पॉलिंग जैसे दिग्गज वैज्ञानिक भी डीएनए की संरचना को जानने की कोशिश में जुटे हुए थे. वाटसन ने भी इस काम में दिन-रात एक कर दी और आखिरकार क्रिक के साथ मार्च 1953 में डीएनए की डबल-हेलिक्स आण्विक संरचना (molecular structure of DNA) को निर्धारित करने में कामयाब हुए. यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विल्किंस व फ्रैंकलिन द्वारा लिए गए एक्स-रे फोटोग्राफ़्स की मदद के बगैर वाटसन और क्रिक के लिए डीएनए संरचना को उजागर करना नामुमकिन था.
डीएनए की इस डबल-हेलिक्स संरचना ने संपूर्ण विज्ञान जगत को झकझोर कर रख दिया. इस खोज के बाद जीव विज्ञान पूरी तरह से आण्विक हो गया और इसमें आविष्कारों का ऐसा तूफान आया, जो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा है. डीएनए मॉलिक्यूल की संरचना बांस की सीढ़ी जैसी होती है, लेकिन बांस के दोनों खंभे सीधे न होकर सर्पिल की तरह गोलाकार चक्कर काटते हुए ऊपर उठते हैं.
डीएनए की बनावट का पता लगाने के लिए 1962 में वाटसन, क्रिक और विल्किंस को संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 1958 में रोसालिंड फ्रैंकलिन का निधन हो चुका था, इसलिए उनका नाम नोबेले के लिए नॉमिनेट ही नहीं किया जा सका था. बहरहाल, डीएनए की संरचना में फ्रैंकलिन के योगदान के महत्व को लेकर अभी भी एक अलग बहस जारी है. वाटसन पर फ्रैंकलिन के साइंटिफिक डेटा के चुराने के भी आरोप हैं.
नोबेल पुरस्कार मिलते ही वाटसन सेलिब्रिटी मोड में आ गए, उनके सामने पदों को स्वीकार करने के लिए विश्वविद्यालयों और अकादमियों की भीड़-सी लग गई. 1968 में, वाटसन ने अपनी किताब "द डबल हेलिक्स" प्रकाशित कारवाई, जो डीएनए संरचना की खोज का एक सनसनीखेज विवरण है. इस किताब में, वाटसन ने खोज में शामिल कई लोगों, विशेषकर फ्रैंकलिन को लेकर अपमानजनक टिप्पणियों और विद्वेषपूर्ण व्यक्तिगत विवरणों का इस्तेमाल किया था. इस वजह से हार्वर्ड प्रेस ने किताब छापने से मना कर दिया. हालाँकि, इसे 1968 में व्यावसायिक रूप से प्रकाशित किया गया और यह एक बेस्टसेलर साबित हुई.
वाटसन ने अपनी किताब में फ्रैंकलिन की चर्चा काफी तोड़- मरोड़कर की है. कुछ लोगों का मानना है कि वाटसन को वैज्ञानिक रूप में फ्रैंकलिन का योगदान स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं थी, लेकिन एक महिला के रूप में वह उन्हें पसंद नहीं करते थे.
सेलिब्रिटी मोड में आने के बाद वाटसन फ्रस्ट्रेशन, कुछ बड़ा न कर पाने की ग्लानि और सुर्खियों में रहने के लिए बीच-बीच में कुछ न कुछ ऊल-जलूल बोलते रहे. जैसे उन्होंने 1997 में यह कहा था कि अगर गर्भ में यह पता चल जाए कि भ्रूण में समलैंगिकता के जीन हैं तो महिलाओं को गर्भपात करा लेनी चाहिए.
2003 में एक ब्रिटिश टीवी डॉक्यूमेंट्री में वाटसन ने कहा था कि मूर्खता एक जेनेटिक बीमारी है जिसका इलाज कराया जाना चाहिए. लेकिन 2007 में उन्होंने अपनी जुबान कुछ ज्यादा ही लंबी खोल दी. उन्होंने एक समाचार पत्र से बातचीत में कहा कि – 'मुझे अफ्रीकी महाद्वीप की चिंता है क्योंकि वहां के लोगों का आईक्यू कम है और रहेगा. लेकिन मेरी चिंता से क्या होगा? क्या अफ्रीकी विद्वान और धनवान बन जाएंगे? मेरी चिंता से आनुवांशिकी (Genetics) के नियम तो बदलने से रहे न?'
इसी तरह के कुछ बयान उन्होंने एशियाई लोगों के गुप्तांगों पर भी दिए. अब लोगों को लगा कि वाटसन आनुवांशिकी की आड़ में अपने मन में बसे नस्लवादी-जातिवादी भड़ास को निकाल रहे हैं. लोगों, सहकर्मियों, मीडिया वगैरह सभी ने पूछा कि उनकी इस थ्योरी का क्या आधार है, विज्ञान की कौन-सी शाखा आपके नस्लपरक बयानों का साक्ष्य प्रस्तुत करती है तो वे बगलें झांकने लगे. इसके बाद हुआ वही जो होना था. उन्हें न्यूयॉर्क स्थित द कोल्ड प्रिरंग हार्बर लेबोरेटरी (सीएसएचएल) के चांसलर पद से तुरंत बर्खास्त कर दिया गया. उन्हें कई बोर्डों के डायरेक्टर पद पर से भी मुक्त कर दिया गया.
अब क्या था, सामाजिक बहिष्कार के साथ-साथ वाटसन के आय के स्रोत भी एक-एक करके सूख गए. 2014 में वाटसन ने अपनी शानो-शौकत भरी लाइफ स्टाइल को बरकरार रखने के लिए वह अकल्पनीय काम किया, जिसके बारे में अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं था – अपने नोबेल मेडल की नीलामी! हालांकि बाद में मेडल के खरीददार ने नोबेल पुरस्कार का सम्मान करते हुए उसे वापस वाटसन को लौटा दिया, लेकिन तब तक वाटसन की खूब फजीहत हो चुकी थी.
वाटसन के दावों का कोई खास वैज्ञानिक रूप से विश्वसनीय आधार नहीं रहा है. 2019 में उनकी सभी मानद उपाधियाँ और कई सम्मान वापस ले लिए गए. वजह थी उनका यह कहना कि नस्ल और बुद्धिमत्ता का एक-दूसरे से गहरा संबंध है जबकि इस धारणा के विरुद्ध काफी वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं. आज कुल-मिलाकर देश-दुनिया की निगाह में वाटसन एक रूढ़िवादी, नस्लवादी, स्त्री विरोधी और स्वार्थी वैज्ञानिक बन चुके हैं, इसलिए अब कोई भी उनके बयानों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता. कह सकते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी तर्कशीलता से लड़खड़ाकर रूढ़िवाद के आँचल में गिरता है, तब वह जेम्स वाटसन बन जाता है!
मौजूदा वक्त में वाटसन एक महान वैज्ञानिक से छद्मवैज्ञानिक बनने के एक बड़े उदाहरण हैं. जेम्स वाटसन का सामाजिक तिरस्कार और बहिष्कार होना ही चाहिए. उन्होंने अपनी बद्जुबानी से वैज्ञानिक समुदाय और वैज्ञानिक चिंतन को नीचा दिखाया है. विज्ञान से बढ़कर कोई भी वैज्ञानिक नहीं है. अस्तु!


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
प्रदीप तकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.
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