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जयप्रकाश चौकसे स्मृति शेष
सारंग उपाध्याय।
सांसों की डोर सृजन से बंधी होती है। रचनात्मकता यश को नहीं उम्र को भी बढ़ाती है और कलाएं जीवन में केवल बाह्य उपक्रम मात्र नहीं होती बल्कि उसका एक संसार आत्मा और देह के बीच भी रचता-बसता है जहां जीवन की तमाम उठापटक और तन-मन की आधियों-व्याधियों के बीच आयु के सेतु की मरम्मत सतत् होती रहती है। संगीत की साधना हो अथवा कैनवास में रंग भरती किसी चित्रकार की कूची अथवा शब्दों से संसार में रचते-पगते किसी लेखक, स्तंभकार की कलम, जिस दिन सृजन की यह यात्रा थमती है उससे बंधी सांसें भी उखड़ने लगती है और देह और आत्मा के बीच बंधा आयु का सेतु दरकने लगता है।
वरिष्ठ पत्रकार श्री जयप्रकाश चौकसे की सांसों की डोर भी उनकी कलम से बंधी थी। 26 साल तक एक कॉलम लगातार लिखते रहने वाले इस अद्भुत और अद्वितीय फिल्म पत्रकार, कहानीकार, उपन्यासकार और संवेदनशील कवि हद्य ने कुछ दिन पूर्व ही जब अस्पताल के बिस्तर से यह खबर अपने चाहने वालों और लाखों पाठकों के बीच पहुंचाई कि वे अब बीमारी और देह की मनाही के बीच लिख ना पाएंगे तो अंदेशा हो गया था कि चौकसे जी नि:संदेह ज्यादा तकलीफ में हैंं, अन्यथा कैंसर जैसी बीमारी के शारीरिक, मानसिक कष्ट और पीड़ा के बीच आत्मा के भीतर चल रही कलम की यह यात्रा अचानक ना थमती।
जाहिर है, आयु का सेतु कहीं दरकने लगा था और अलविदा की गूंज उन्हें सुनाई देने लगी थी।
और आज वही हुआ जिसकी आशंका मुझे 25 फरवरी के दैनिक भास्कर के प्रथम पृष्ठ पर उनके स्तंभ थमने और फिर दोबारा शुरू होने की सूचना के बीच थी। उनकी अलविदा की गूंज आज पत्रकारिता जगत और उनके लाखों पाठकों के संसार के बीच निधन की सूचना बन गई।
जयप्रकाश चौकसे अपनी विदा की सूचना में गूंजती अलविदा के साथ ही हजारों-लाखों पाठकों का संसार सूना कर गए और उन्हें छोड़ गए पर्दे के पीछे की उस दुनिया के साथ जिसे आने वाली पीढ़ियां एक पाठशाला के तौर पर आ जीवन अपनी विरासत के तौर पर याद रखेंगी।
एक ऐसे दौर में जब फिल्मों को ही गंभीरता से नहीं लिया जाता था और उसका प्रभाव पत्रकारिता में सिनेमा और मनोरंजन पत्रकारिता पर भी नकारात्मक ही था और जिसके चलते फिल्म पत्रकारिता मुख्यधारा में केवल चटपटी मसालेदार खबरों की भरपाई मात्र थी, वहां जयप्रकाश चौकसे जैसे प्रखर फिल्म पत्रकार/स्तंभकार ने 5 दशक तक सिनेमाई दुनिया के संसार की ऐसी छवि गढ़ी जिसने फिल्म पत्रकारिता को एक स्तर दिया और अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा के साथ स्थापित कर दिया।
अपनी 50 साल की फिल्म पत्रकारिता में चौकसे जी ने करियर की आधी से ज्यादा जिंदगी यानी 26 साल दैनिक भास्कर जैसे राष्ट्रीय अखबार में पर्दे के पीछे जैसे स्तंभ को गढ़ते हुए गुजारी। पर्दे के पीछे जैसा यह कॉलम चौकसे जी जैसे फिल्म पत्रकार ने अपने सरल, सहज भाषाई तेवर के साथ और बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा की दुनिया के भीतर चल रही तकरीबन चौंकाने देने वाली जानकारियों व विवेक-विचार के कौशल के साथ समृद्ध किया और इतनी मजबूती से स्थापित किया कि इसने भविष्य के फिल्म पत्रकारों के लिए प्रकाश स्तंभ का ही किया काम किया।
जयप्रकाश चौकसे के दैनिक स्तंभ के केंद्र में भले ही फिल्में और सिनेमा था, लेकिन उनके इस कॉलम की दुनिया इतनी विशाल थी कि इसमें साहित्य, समाज, संस्कृति, लोकजीवन, लोककथाएं, परपंराएं और भारतीय परंपरा की विराट किस्सागोई आकार लेती थी। श्री जयप्रकाश चौकसे का यह सिनेमाई पर्दा फिल्मों की केवल रुपहले पर्दे की रंग-बिरंगी दुनिया ही समेटे हुए नहीं था, बल्कि इसमें व्यवस्था के हर चित्र और आयाम का लेखा-जोखा था। सरकारों से लेकर कलाकारों और साहित्यकारों से लेकर फिल्मकारों की प्रशंसा, आलोचना और तीखे तेवरों के साथ कटाक्ष भी शामिल थे।
अपने कॉलम के माध्यम से श्री चौकसे खुले विचारों, लोकतांत्रिक मूल्यों, शोषित, वंचित और पीड़ित व हाशिए पड़े वर्ग की भी खबर लेते थे और व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते थे। उनकी पैनी दूरदृष्टि और तीखी नजर ने हाशिए पर पड़े और तकरीकबन उपेक्षित ओर संसाधनविहीन सिनेमा के कलाकारों की पूछ परखी ली, बल्कि उनकी प्रशंसा और सराहना के बीच उन्हें जगह दिलवाने में मदद भी की।
मप्र के बुरहानपुर में 1939 में जन्में जयप्रकाश चौकसे ने अंग्रेजी ओर हिंदी साहित्य में एमए किया था। उनकी लगातार साहित्य और संस्कृति में आवाजाही थी। उन्हें दराबा और ताज जैसे दो उपन्यास लिखे और कहानियां भी लिखीं। साहित्य में वे जितना नए को पढ़ रहे थे उतनी ही उनकी दृष्टि अतीत व प्राचीन सृजन संसार की प्रासंगिकता पर भी बराबर बनी रही।
इन पंक्तियों के लेखक की श्री जयप्रकाश चौकसे से दो मुलाकातें हैं। मुंबई में पत्रकारिता करते हुए जब उनके कैंसर जैसे प्राणघातक रोग की गिरफ्त में आने की सूचना मिली थी तब उसके कुछ महीने बाद एक बार अंधेरी पश्चिम के यारी रोड वाले फ्लैट में हिंदुस्तान में कार्यरत् वरिष्ठ खोजी पत्रकार और अभिन्न मित्र मुकेश बालयोगी के साथ मिलना हुआ था और लंबी बातें हुईं थीं। उनकी सेहत और कुशलक्षेम के साथ ही उस समय भी उनसे सिनेमा पर लंबी बातचीत हुई। तकरीबन 1 से डेढ़ घंटे की इस मुलाकात में भी वे अपनी देह में लग चुके इसे जानलेवा रोग से भयाक्रांत नहीं दिखाई पड़े। किसी मुश्किल अथवा परेशानी से इतर वे लगातार फिल्मों, कवियों और बॉलीवुड में हो रहे प्रयोगधर्मी सिनेमा पर बतियाते रहे।
इधर, उनसे दूसरी मुलाकात भी मुंबई में 2014 में अपने अखबार के दफ्तर में ही हुई और लंबी बातचीत के बीच वे घर आने का कहकर लौट गए। इस बीच 2016 में मराठी सिनेमा पर साहित्यिक पत्रिका वसुधा के लिए लिखे लेख में उनसे एक लंबी बातचीत फोन पर हुई। उस दौरान भी उन्होंने लगभग हैरत में ही डाल दिया। मराठी सिनेमा व संस्कृति को लेकर उनकी जानकारियां हतप्रभ करने वाली थीं। तकरीबन एक घंटे की उस लंबी फोन वार्ता में उन्होंने मराठी साहित्य, रंगकर्म और नाटकों की ऐसी लंबी फेरहिस्त खड़ी कर दी थी कि मुझे अचरज था कि मैं मराठी सिनेमा पर किसी हिंदी के फिल्म पत्रकार से बात कर रहा हूं अथवा मराठी साहित्यकार या किसी रंगकर्मी से।
लेखन, पठन और रचनात्मक दुनिया के प्रति उनकी प्रतिबद्धता काबिले गौर थी और आश्चर्य में डालती थी। यह पत्रकारिता और साहित्य के प्रति उनकी दीवानगी ही थी कि अपनी आयु के शुरुआती दौर से ही यानी की लगभग 17 साल में उन्होंने संगम नामक एक पाक्षिक अखबार सालभर चलाया और वे खुद ही उसके संपादक, प्रकाशक और यहां तक की हॉकर बनकर घर-घर बांटने भी काम करते रहे। हिंदी के प्रति उनकी निष्ठा और प्रेम किसी से छिपा नहीं था। वे हिंदी में लिखना बेहद पसंद करते थे।
हिंदी के प्रति अपने प्यार को साझा करते हुए मीडिया मिरर डॉट कॉम के संपादक डॉ. प्रशांत राजावत को दिए एक लंबेे बेइंटरव्यू में उन्होंने कहा था-
जनाब जावेद अख्तर साहब ने मुझसे एक बार कहा था कि अगर मैंने अंग्रेजी भाषा में लेखन किया होता तो देश-विदेश से मुझे भाषण देने के लिए निमंत्रित किया जाता, परंतु मेरा विश्वास रहा है कि मनुष्य को उस भाषा में लिखना चाहिए जिसे झाडू की तरह इस्तेमाल करके वह अवचेतन में जमा कचरे को बाहर कर सके।
सागर और इंदौर विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने और बाद उन्होंने गुजराती कॉलेज में 13 साल अध्यापन किया। श्री चौकसे के अध्ययन, पठन और सूचनाओं के विराट संसार की गलियां दूर-दूर तक फैली हुईं थीं। 12 साल की उम्र में वे राजकपूर की आवारा से प्रभावित हुए थे और यही वह फिल्म थी जिसने उनके सामने बंबई के आकाश का चित्र खींचा। राजकपूर से प्रभावित जयप्रकाश जी बाद में कपूर परिवार के निकट भी आए और उनके स्तंभ में कपूर परिवार के जीवन की घटनाएं और फिल्मी जुड़ाव के ब्यौरे सामने आते रहे जिसकी वजह से आलोचना का शिकार भी हुए।
बहरहाल, तमात विरोधाभासों, विषमताओं के बीच अपनी पत्रकारिता, लेखन और दीर्घ रचनात्मक यात्रा को लेकर जयप्रकाश चौकसे मानते थे कि साहित्य से सिनेमा तक का उनका यह सफल सफर उनके जीवन में घटे उन संयोगों का हिस्सा ही है जहां वे सही समय पर सही लोगों से मिल पाए।
और देखिए कैसा ही यह संयोग है कि जैसे ही उन्होंने अपने कॉलम को थामने की घोषणा की, उसके कुछ दिन बाद ही उनके सांसों की वह डोर भी थम गई जो सृजन से बंधी थी- ठीक महान लेखक प्रूस्त की तरह जो अपने महान उपन्यास "रिमेम्बरेंस ऑफ थिंग्स पास्ट" का आखिरी पन्ना लिखने के कुछ घंटे बाद ही इस संसार को अलविदा कह गए थे, जैसे वे केवल इसे ही लिखने आए थे।
बहरहाल, 83 की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले श्री चौकसे की कलम थमने के बाद भी अपने पीछे शब्दों और सूचनाओं की ऐसी विरासत छोड़ गई है जहां से हिंदी फिल्म पत्रकारिता के लिए विराट संपदा है। एक ऐसा वैभव जिस तक पहुंचकर बहुत-बहुत समृद्ध हुआ जा सकता है।
जयप्रकाश चौकसे जी को भावभींनी श्रद्धांजलि।
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