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हॉस्टल का कमरा जिसकी खिड़की राजस्थान की रेत को निहारती थी, उसी के पास रखी कुर्सी पर मेरा समय बीतता। मेज़ पर लैपटॉप टिकाकर काग़ज़ पर नोट्स बनाती, डूबते सूरज को निहारती और जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनती। नोट्स पीछे रह जाते, शाम गहरा जाती, बचते तो मैं, आसमान के सीने पर उतरते तारे और जगजीत की आवाज़। दरअसल मैं भी कहां बच पाती थी, उस तरन्नुम में ही सब डूबता रहा।
एक दफ़ा मुझसे किसी ने कहा था-
अध्यात्म का ज्ञान न हो तो आंखें बंद किए ग़ज़लें सुना करो। तुम जानोगी कि अवचेतन तक कैसे पहुंचा जाता है।
जाहिर है अगर बात सच है तो जगजीत सिंह की आवाज़ से मैंने जब-तब अपने अवचेतन में प्रवेश किया है। कॉलेज के उन दिनों से वे मेरे हमसफ़र रहे हैं। घंटों लूप पर एक ही ग़ज़ल चलती रहती, फिर कोई कहता कि मेस जाना है। ग़ज़ल का मतला (पहला शेर) और जगजीत सिंह की आवाज़ जैसे टेप-रिकॉर्डर की तरह तब भी मन में चलते रहते। यह उनकी आवाज़ का मोजिज़ा था कि मतला से आगे कभी कुछ याद न हुआ, वे दूसरा शेर गा देते और हम पहले पर ही दाद में उलझे रहे।
फिर जगजीत इतनी आसानी से कहीं और जाने भी नहीं देते। उनके पास मन के हर सोपान के लिए तो कुछ है। बग़ीचे से हर रंग के फूल चुनकर उन्होंने अपनी आवाज़ में शहद इकट्ठा किया है।
प्रेमियों के लिए वे गाते हैं-
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है
हिज्र के लिए
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
रूमानी
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
हक़ीक़त
हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
चिट्ठी न कोई संदेश, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, इन तमाम ग़ज़लों और नज़्मों की तासीर अलग है। जिन शायरों ने इन्हें लिखा है उनकी कैफ़ियत भी एक दूसरे से अलग रही होगी लेकिन जगजीत एक ही थे। उन्होंने हर ग़ज़ल को जैसे ख़ुद भी जीया और फिर गाया हो।
एक इंटरव्यू के दौरान जगजीत सिंह ने कहा था-
उन्होंने ग़ालिब को मिर्ज़ा ग़ालिब बनकर गाया है न कि जगजीत सिंह बनकर। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने ग़ज़लें भर ही गाई हैं।
जगजीत सिंह: 70 की उम्र में साल 2011 अक्टूबर में उन्होंने हमें अलविदा कहा, मेरा उनके साथ सफ़र तब शुरू ही हुआ था।
जगजीत सिंह: 70 की उम्र में साल 2011 अक्टूबर में उन्होंने हमें अलविदा कहा, मेरा उनके साथ सफ़र तब शुरू ही हुआ था। - फोटो : पीटीआई, फाइल
जगजीत सिंह की आवाज़ में राधे-कृष्ण बांके-बिहारी मंदिर की गलियों में अब भी सुनाई दे जाता है। सुनने वाले अचरज करेंगे कि मंदिर की गलियों में गूंज रही इसी आवाज़ ने पंजाबी लोक के टप्पे गाए हैं, इसी गले से निकला- कि ठुकराओ अब कि प्यार करो, मैं नशे में हूं। अपने इन सुरों से जगजीत सिंह ने हर गली का सफ़र किया है - गले से गली तक की यात्रा और हर उम्र के लोगों के बीच लोकप्रिय। ज़हन की हर स्थिति के लिए कुछ गाने वाले।
वे जानते थे कि उन्हें अपने सुनने वालों के लिए कैसा काम करना है। वे फ़िल्मों को लेकर दुराग्रही नहीं थे, वहां हिट हुए तो ख़ूब काम किया जब फ़िल्म नहीं चली तो मोह भी न रहा। अपनी एल्बम बनाते रहे, काम करते रहे। संगीत के साज़ के साथ प्रयोग करते थे।
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था-
नई पीढ़ी को नए वाद्य के साथ संगीत देना चाहिए। यह बात 60 साल से अधिक के जगजीत सिंह कह रहे थे।
70 की उम्र में साल 2011 अक्टूबर में उन्होंने हमें अलविदा कहा, मेरा उनके साथ सफ़र तब शुरू ही हुआ था। कई बार सोचती हूं कि हॉस्टल की उस खिड़की से जो सितारे दीखते थे उनमें जगजीत कौन से होंगे।
किसी कवि ने लिखा है- कहते हैं तारे गाते हैं..!
हमारा ग़ज़ल गाने वाला तारा क्या आज भी हॉस्टल की किसी खिड़की के पार कुछ सुनाता होगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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