- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- इसका मॉडल, उसका मॉडल

x
By: divyahimachal
हिमाचल के चुनाव में मॉडल बनाम मॉडल का हुंकारा कुछ करे या न करे, लेकिन राजनीतिक यादों में अतीत को सामने ले आया है। वीरभद्र सिंह मॉडल की आलोचना को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के अपने तर्क व जरूरत है और यह विवेचन का प्रश्न रहेगा कि राज्य पर बढ़ता कर्ज़ बोझ और बेरोजगारी का आलम क्यों आज खतरनाक दौर में प्रवेश कर चुका है। उदारता व कठोरता में फंसी सरकारों की हसरत में यह देखना मुश्किल होता रहा है कि उधार का गुलकंद कितना चाटा जाए या किस हद तक राज्य के आर्थिक हालात को नजरअंदाज किया जाए। क्या पंचायत, क्या नगर और अब नगर निगमों के दायरे में विकास के नए मॉडल विकसित हुए या भौगोलिक जरूरतों के सामने हमने राजनीतिक जरूरतों को संबोधित करके सारा ढांचा खराब कर लिया। हिमाचल में केवल दो मुख्यमंत्री हुए जिनके कडक़ फैसलों ने सरकार विरोधी आंदोलनों की परवाह नहीं की। स्व. वाई. एस. परमार और शांता कुमार के खिलाफ कर्मचारी आंदोलन अपनी नैतिकता का बोझ नहीं उठा पाए, क्योंकि उस दौर में हिमाचल की आर्थिक व वित्तीय स्थिति को देखते हुए दो मुख्यमंत्री चले। इसके बाद सरकारों ने कर्मचारियों के लिए पालने बिछाने का कार्य किया और आज भी हर चुनाव की नाखुशी में सरकार को इसी वर्ग के आगे नाक रगडऩे पड़ रहे हैं। प्रदेश के आर्थिक हालात जो भी हों, लेकिन कर्ज के आधार पर वित्तीय व्यवस्था की लूट का प्रदर्शन जाहिर है।
लगातार प्रदेश का बजट अपनी क्षमता का सत्तर फीसदी अगर सरकारी कार्य संस्कृति के लिए होम करने पर आमादा है, तो क्या उसका और क्या इसका मॉडल रहेगा। बेशक वीरभद्र सिंह ने कर्ज प्रेरित बजट को प्रोत्साहित करते हुए विकास का मॉडल बनाया, लेकिन अपने सियासी फर्ज में वह अर्थशास्त्र के संतुलन को भूल गए। आश्चर्य यह कि हिमाचल के अब तक के इतिहास में केवल दो ही मंत्रियों के पास स्वतंत्र रूप से वित्त मंत्रालय रहा, वरना हर मुख्यमंत्री ही राज्य का वित्त मंत्री और विकास मंत्री बनना चाहता है। मुख्यमंत्रियों में विकास-उदार पुरुष बनने की होड़ का नतीजा है कि हमसे कई गुना अधिक जीडीपी कमाने वाले राज्य जो नहीं कर पाते, उसे हम बिना सोचे-समझे कर रहे हैं। पंजाब का ही हवाला लें तो वर्तमान हिमाचल सरकार के फैसले गिनते-गिनते हम सरकारी कालेजों की संख्या का आंकड़ा डेढ़ सौ से ऊपर पहुंचा कर, पड़ोसी राज्य से तीन गुना आगे होंगे। आश्चर्य यह कि कृषि व बागबानी विश्वविद्यालयों को जांचे परखे बिना दो बागबानी कालेज खोल देते हैं।
नन्हें से प्रदेश के कंधों पर मेडिकल व एक और राज्य विश्वविद्यालय जोड़ देते हैं, फिर भी हमारे बच्चे बाहरी राज्यों में कुख्यात एमएमएस कांड में फंस जाते हैं। हिमाचल के वजूद में आठ मेडिकल कालेजों व एम्स का होना कितना प्रासंगिक है, यह प्रदेश का बजट नहीं बता सकता। आश्चर्य यह कि हिमाचल का हर सरकारी कालेज आज नहीं, तो कल स्नातकोत्तर हो जाएगा, लेकिन उच्च अध्ययन की कार्यशाला में हिमाचल का ज्ञान बिगड़ जाएगा। जो प्रदेश यह आंकड़े नहीं देख पाया कि बंदरों और आवारा पशुओं के कारण कितने खेत बंजर हो गए, ओलावृष्टि या जलवायु परिवर्तन से कितने बागीचे उजड़ गए, उससे क्या उम्मीद रखें। बंदरों की बढ़ती तादाद से अगर राजधानी शिमला का जीना हराम है, तो प्रदेश में इस प्रकोप को किसके मॉडल में तकसीम करें। प्रदेश के विकास का यह कौनसा मॉडल है, जो कई विधानसभा क्षेत्रों में एक साथ कई-कई कालेज, खंड विकास कार्यालय या नागरिक उपमंडल खोल देता है। ऐसे में मॉडल जो भी रहा, राज्य के संसाधनों का दुरुपयोग केवल राजनीतिक तुष्टिकरण के लिए ही हो रहा है। हमारा नागरिक समाज, प्रबुद्ध व कर्मचारी वर्ग प्रदेश के सामने अपने हित में राज्य की आर्थिक क्षमता की बर्बादी का अक्स देखना पसंद करें, तो सियासी लोरियां हमें केवल अपने-अपने फज से बेपरवाह ही कर सकती हैं। हम खुश हो सकते हैं कि अदने से राज्य में 160 सरकारी कालेज हो गए, लेकिन यहां पढ़ाई केवल बेरोजगारी पैदा कर रही है।

Rani Sahu
Next Story