सम्पादकीय

गैर बीजेपी दलों के लिए रोजा इफ्तार पार्टियों को छुपाना भी हुआ मुश्किल, जताना भी हुआ मुश्किल!

Rani Sahu
4 May 2022 2:44 PM GMT
गैर बीजेपी दलों के लिए रोजा इफ्तार पार्टियों को छुपाना भी हुआ मुश्किल, जताना भी हुआ मुश्किल!
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजनीति में एक ओर जहां विधानसभा चुनाव (Assembly Election) के नतीजों के बाद प्रमुख विपक्षी दलों के बीच मुस्लिम वोटरों (Muslim Voters) को अपने साथ लाने की होड़ मची है

रंजीव

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजनीति में एक ओर जहां विधानसभा चुनाव (Assembly Election) के नतीजों के बाद प्रमुख विपक्षी दलों के बीच मुस्लिम वोटरों (Muslim Voters) को अपने साथ लाने की होड़ मची है, वहीं दूसरी तरफ इस समाज को साधने के लिए अहम माने जाने वाले रोजा इफ्तार पार्टी के आयोजनों से विपक्षी दलों का पूरे रमजान माह में कटे रहना भी एक अलग ही विरोधाभास बयां कर रहा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाल के वर्षों में यह पहली ईद रही, जिसमें पूरे रमजान माह में किसी विपक्षी दल की तरफ से पूर्व की तरह बड़े पैमाने पर रोजा इफ्तार की दावत का आयोजन नहीं किया गया. वहीं पड़ोसी राज्य बिहार में न सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रोजा इफ्तार का आयोजन किया, बल्कि मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की ओर से विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी रोजा इफ्तार का आयोजन कर परंपरा को कायम रखा.
हिंदी पट्टी के दो प्रमुख राज्यों में रोजा इफ्तार को लेकर प्रमुख गैर बीजेपी दलों के इस विपरीत रवैए ने यह सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि क्या रोजा इफ्तार अब उत्तर प्रदेश में सेक्युलर राजनीति का दम भरने वाले राजनीतिक दलों के एजेंडे से बाहर हो गया है? क्या इन दलों के लिए इनका आयोजन मुस्लिमों के प्रति खुद को संवेदनशील साबित करने का बड़ा प्रतीक अब नहीं रहा?
दरअसल 2014 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में जिस तरीके से भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व कामयाबी मिलती रही है, उसने गैर बीजेपी दलों को अपने राजनीतिक तौर-तरीकों में बदलाव लाने को विवश भी किया है. इसका ही नतीजा है कि चाहे अखिलेश यादव हों या फिर प्रियंका गांधी या मायावती, सबको 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले सॉफ्ट हिंदुत्व की शरण में जाना पड़ा. उत्तर प्रदेश की राजनीति ने यह देखा कि कैसे अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी ने खुद को हिंदू धर्म के प्रतीकों के साथ आत्मसात किया. मंदिरों में पूजा करने और हाथ में गदा या चक्र लिए तस्वीरें खिंचवाने से कोई गुरेज नहीं किया, जबकि जालीदार टोपी वाली फोटो से परहेज करना खूब साफ-साफ देखा गया.
अब सभी राजनीतिक पार्टियां सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर जा रही हैं
बीएसपी की ओर से पार्टी के चुनावी अभियान की शुरुआत ही अयोध्या से घंटा घड़ियाल बजाकर की गई, जहां जय भीम से अधिक जय श्रीराम के नारे लगे. वहीं लखनऊ में हुए पार्टी के कार्यक्रम में बीएसपी प्रमुख मायावती की त्रिशूल हाथ में लिए तस्वीरें इन चर्चाओं के साथ सुर्खियां बनीं कि हाथी नहीं, बसपा को अब त्रिशूल ज्यादा भा रहा है. बीजेपी को परास्त करने के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा विपक्षी दलों के काम नहीं आया और चुनाव नतीजों ने फिर एक बार बीजेपी की सरकार बना दी. इसका स्पष्ट संदेश यह भी निकला कि बहुसंख्यक तबके का वोटर यानी हिंदू अभी भी बीजेपी को ही अपनी पसंदीदा पार्टी मानता है.
चुनाव नतीजों ने यह भी देखा कि मुस्लिमों का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी की तरफ आया और पार्टी की सीटें दोगुनी होने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा. लिहाजा यह माना जा रहा था कि रमजान के महीने में समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी परंपरा को कायम रखते हुए रोजा इफ्तार पार्टी का आयोजन करेगी. पार्टी की ओर से भव्य रोजा इफ्तार पार्टी के आयोजन का सपा का दो दशक से भी अधिक का इतिहास भी रहा है. सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के जमाने से शुरू हुई यह परंपरा अखिलेश यादव के जमाने की सपा में भी हाल के वर्षों तक जारी रही है.
सपा की तरह भव्य भले न हो, लेकिन रोजा इफ्तार के आयोजन से बीएसपी को भी परेहज नहीं रहा. मायावती के मुख्यमंत्री रहते रोजा इफ्तार के सरकारी आयोजन भी हुए. पार्टी के प्रमुख नेता भी रोजा इफ्तार पर जमावड़ा करते रहे हैं. यूपी कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय में भी जोर शोर से रोजा इफ्तार के आयोजन बीते वर्षों में होते रहे हैं. पार्टियों की ओर से आयोजित रोजा इफ्तार पार्टियों में शामिल अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की भीड़, खास कर समाज के प्रमुख लोगों व मौलानाओं व उलेमा की संख्या को पार्टी के प्रति मुस्लिमों के रुझान का पैमाना माना जाता था.
बीएसपी और कांग्रेस तो पूरी तरह से इससे दूर रहे
इन दलों के अल्पसंख्यक नेताओं के बीच होड़ मची रहती थी कि कैसे ज्यादा से ज्यादा प्रमुख धर्म गुरुओं और मुस्लिम समाज के लोगों को उनकी पार्टी के रोजा इफ्तार में शामिल करवाया जाए. उस अतीत से एकदम उलट 2022 का माह-ए- रमजान किसी बड़े सियासी रोजा इफ्तार के आयोजन का गवाह नहीं बन सका, जबकि बीते 2 साल में कोरोना के प्रकोप के कारण न तो ढंग से ईद मनाई जा सकी थी और न ही बड़े पैमाने पर रोजा इफ्तार का आयोजन हो सका था. 2022 में ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद सपा, बसपा और कांग्रेस ने रोजा इफ्तार की पार्टी के आयोजन से परहेज किया. तो क्या यह माना जाए कि ये दल सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को छोड़कर फिर से अपने पुराने वोटबैंक की राजनीति में लौटकर किसी संभावित नुकसान से आशंकित हैं? क्योंकि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बढ़त ही इस आधार पर मिली कि उसने ठीक से प्रचारित किया कि बाकी विपक्षी दल वोट बैंक की राजनीति करते हैं और तुष्टिकरण को तवज्जो देते हैं.
रोजा इफ्तार से कन्नी काटने की जो प्रवृत्ति देखी गई उससे ऐसा ही लगता है. विपक्षी दलों की आशंका है कि यदि वे अपनी पुरानी पॉलिटिक्स की तरफ लौटे तो बीजेपी फिर उन्हें तुष्टिकरण के मुद्दे पर घेर लेगी. इस पूरे रमजान महीने को देखें तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव करीब आधा दर्जन रोजा इफ्तार के आयोजनों में पहुंचे और उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल से उनकी तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर शेयर कीं. वहीं बसपा प्रमुख मायावती और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ने यह भी नहीं किया. जबकि चुनाव नतीजों के बाद से ही मायावती के मुसलमानों से अपील कर रही हैं कि उन्होंने सपा का साथ देकर बीजेपी की सरकार बनवा दी. जबकि यदि वे बसपा के साथ आते तो दलित और मुस्लिम का गठजोड़ उत्तर प्रदेश में बीजेपी को रोक देता और बसपा की सरकार बन जाती.
यानी एक तरफ तो मुस्लिमों का साथ पाने की ललक और बेताबी स्पष्ट है, लेकिन दूसरी तरफ इस समाज के साथ खड़े होने के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में उभरे रोजा इफ्तार के आयोजन या रोजा इफ्तार में जाने से भी बसपा प्रमुख का परहेज विरोधाभास ही पेश करता है. ऐसा ही कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के मामले में भी है क्योंकि चुनाव के दौरान सक्रियता से उत्तर प्रदेश में राजनीति करती हुई दिख रहीं प्रियंका गांधी पूरे रमजान के महीने में उत्तर प्रदेश के परिदृश्य से बाहर रहीं.
मुस्लिम समुदाय भी अब दिखावे से दूर जा रहा है
वैसे, सियासी दलों की ओर से रोजा इफ्तार करने या न करने के इस दौर में खुद मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग में बहस यह है कि क्या महज रोजा इफ्तार कर देने भर से कोई पार्टी खुद को मुस्लिमों का हमदर्द साबित कर ले जाती है? इस तबके का मानना है कि क्या यह महज एक प्रतीक की राजनीति के तौर पर नहीं उभर गया है कि चाहे मुसलमानों के वाजिब और वास्तविक समस्याओं के साथ साल भर ना खड़े हो, लेकिन रमजान के महीने में एक रोजा इफ्तार का आयोजन कर दो जिसमें कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं को बुला लो तो जिम्मेदारी पूरी? उनके मुताबिक जो भी पार्टियां वास्तविक रूप से मुस्लिम समाज की समस्याओं के प्रति हमदर्दी रखने का दावा करती हैं, उनके लिए ज्यादा जरूरी है कि वे इस समाज के साथ खड़ी दिखाई दें, उनकी समस्याओं पर बोलें और इस आशंका से इस समाज के साथ दूरी न बनाएं कि कहीं वोट का नुकसान तो नहीं हो जाएगा.
मुस्लिम राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले यूपी अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य शफ़ी आज़मी कहते हैं, किसी ने इफ्तार पार्टी नहीं की तो क्या आफत आ गयी. दिखावा करने से मुसलमानों का भला नहीं हो सकता. बात, यह होनी चाहिए कि मुसलमानों के मसायल पर कोई जलसा, मजलिस क्यों नहीं होती? मुसलमानों के मसायल जानकर, उसका हल निकालने वाले हितैषी होते हैं न कि साल भर में एक इफ्तार पार्टी कर मीडिया में छपने-दिखने वाले. रही बात इफ्तार पार्टी की तो रोज़ा अपनी नफ़्स यानी इच्छाओं को काबू में करने का नाम है तो सियासी जमात के इफ्तार पार्टी की इच्छा भी रोज़ेदार को नही होती. इफ्तार पार्टी के मौज़ू के बजाय मुसलमानों की पीड़ा पर बात हो तो हर शख्स स्वागत करेगा.
वहीं मुस्लिम मामलों के जानकार, पेशे से चिकित्सक डॉ. शोएब अहमद कहते हैं, राजनीतिक दलों के इफ्तार का आयोजन सिम्बॉलिक ज्यादा हो गया है. इफ्तार पार्टी करने से मुस्लिम समाज का भला नहीं होगा. उनके मुद्दों, उनकी समस्याओं पर फोकस ज्यादा अहम है. समाज का हर तबका तरक्की चाहता है और प्राथमिकता उसे ही मिलनी चाहिए. मेरी समझ से यह सोच भी गलत है कि इफ्तार पार्टी कर देने से मुस्लिम समुदाय किसी दल से जुड़ जाता है. यह दिखावा ज्यादा हो गया है.
Rani Sahu

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