सम्पादकीय

ऐसा लगता है राहुल गांधी की दिलचस्पी खुद को बचाने में है कांग्रेस पार्टी को नहीं

Rani Sahu
16 March 2022 8:53 AM GMT
ऐसा लगता है राहुल गांधी की दिलचस्पी खुद को बचाने में है कांग्रेस पार्टी को नहीं
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पांचों राज्य में मुंह के बल गिरने के बाद कांग्रेस (Congress) में शुरू हुए उठापटक और हंगामे के बीच एक बात अजीबोग़रीब रही जिस पर आपने निश्चित रूप से गौर किया होगा

आशीष मेहता

पांचों राज्य में मुंह के बल गिरने के बाद कांग्रेस (Congress) में शुरू हुए उठापटक और हंगामे के बीच एक बात अजीबोग़रीब रही जिस पर आपने निश्चित रूप से गौर किया होगा. उनमें से कोई भी राजनीति के किसी मूलभूत मूल्यों या किसी विचारधारा के बारे में बात नहीं कर रहा है. सवाल यह नहीं है कि भारी बहुमत वाली सरकार के सामने विपक्ष (Opposition) की भूमिका कैसे बेहतर तरीके से निभाई जाए. पार्टी के लिए सबसे चिंता की बात होनी चाहिए कि लोगों के साथ फिर से कैसे जुड़ना है और आम जनता की आवाज कैसे बुलंद की जाए. पंजाब की असफलता से लेकर G-23 की आलोचना तक की इस ट्रैजिक-कॉमेडी के सभी एपिसोड अपने प्रभाव और शक्ति को बचाने तक सीमित रहे. यह बात उस पार्टी को समझ में आनी चाहिए, जिसके पास प्रभाव और शक्ति दोनों की कमी है.
बीजेपी के उदय और उत्कर्ष के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ने में कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के नेतृत्व ने कम योगदान नहीं दिया है. यह केवल तार्किक तौर पर सत्य नहीं है, बल्कि एक सीधी और सरल राजनीतिक हकीकत है. लगातार दो कार्यकाल तक देश पर शासन करने वाली पार्टी 2014 में इतनी सिमट गई कि उसे विपक्ष के नेता का पद भी नहीं मिल पाया क्योंकि उसे दस फीसदी सीटें भी नहीं मिलीं. क्या इस पर कोई चिंतन हुआ? क्या हार के कारणों पर सच्ची समीक्षा हुई? क्या जिम्मेदारी तय करने की कवायद की गई थी? दरअसल कुछ भी नहीं किया गया. कोई आश्चर्य नहीं कि 2019 में कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा. इसके बावजूद कोई आत्मनिरीक्षण नहीं हुआ और पार्टी नेतृत्व ने हार की जिम्मेदारी तय नहीं की.
दिशाहीन पार्टी नेतृत्व
पार्टी को इस विनाशकारी मोड़ में लाने वाले कारण क्या हैं या इसके लिए कौन जिम्मेदार हो सकता है? जिस पार्टी का इतिहास एक सदी से अधिक का है, वह अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. यह केवल एक तथ्य हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी ने लोगों से अपना संबंध खो दिया है. पार्टी दुर्गति की ओर बढ़ रही है और पार्टी नेतृत्व, यानि कि राहुल गांधी इस बात से बेख़बर हैं. उनमें कोई दृष्टि नहीं है, कोई दृढ़ विश्वास नहीं है. उनका मानना है कि राजनीति में पूरी तरह से स्टेज परफॉरमेंस होता है. ऐसे में दिखावे की बातों से इतर, गंभीर इरादों के साथ चौबीस घंटे पार्टी को समर्पित किया जा सकता है.
हालांकि ऐसा कुछ होता नहीं है और यही कांग्रेस की बदहाली का मूल कारण है. इसी वजह से पार्टी के पुराने नेताओं में बेचैनी देखी जा रही है और वे पार्टी के पतन को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की कोशिश कर रहे हैं. पार्टी के चुनावी प्रदर्शन को देखते हुए उसकी दुर्दशा समझ से परे नहीं है. यह सब छोटे समयकाल में नहीं बल्कि लंबे समय में हुआ है. वे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत को "कांग्रेस-मुक्त" बनाने का बीजेपी का संकल्प वस्तुतः 2024 तक बीजेपी को "कांग्रेस-युक्त" बनाकर पूरा किया जा सकता है. इसे बीजेपी का वादा या चुनौती भी कह सकते हैं.
निकास द्वार पर कतार और लंबी हो सकती है
क्या यह पहले से ही नहीं हो रहा है? कुछ लोग तो इतने धैर्यवान हैं कि पार्टी में रहकर सुधार लाने करने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन दूसरे लोग संकेत मिलते ही बीजेपी में चले गए. कांग्रेस दिग्गज नेताओं को खो रही है. हेमंत बिस्व सरमा से लेकर जितिन प्रसाद तक कई ऐसे नाम हैं जो अलग परिस्थितियों में पार्टी के भविष्य को नया रूप दे सकते थे. उनके बाहर निकलने से कई दिग्गज अपनी भविष्य की योजनाओं पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य हैं. पंजाब उन तीन राज्यों में से एक था जहां कांग्रेस सत्ता में थी, और कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की गूंज को देखते हुए यकीनन यह एक महत्वपूर्ण राज्य था. राज्य में पार्टी को मजबूत करने के बजाय, कांग्रेस नेतृत्व ने आत्मघाती कदम उठाए. नतीजा, पार्टी ने राज्य की सत्ता के साथ अपने सबसे अनुभवी नेताओं में से एक कैप्टन अमरिंदर सिंह को खो दिया.
भव्यता के भ्रम टूटे नहीं हैं
आखिर वह कौन सी मजबूरी है जो कांग्रेस नेतृत्व को बार-बार ऐसा करने को प्रेरित करती है, यह तो पार्टी के अंदरूनी नेताओं को ही बेहतर मालूम होगा. बाहर से ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी अपनी वह साख खो चुकी हैं जिसकी वजह से पार्टी 2004 में सत्ता में आई और दो कार्यकाल तक सत्ता में बनी रही. राहुल नौसिखिए नेता से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं. गांधी परिवार अभी भी अतीत में रहता है, जहां कभी गांधी नाम और उससे जुड़ा करिश्मा से वोट हासिल करने के लिए काफी था. इस तरह की धारणा बना दी गई है कि गांधी परिवार न हो सत्ता में आने की बात तो छोड़िए पार्टी तक एकजुट नहीं रह सकती. इसके लिए पीवी नरसिम्हा राव के जमाने में जानबूझकर की गई अनदेखियों की जरूरत होगी.
टॉप लेवल पर शासन के अनुभव का पूर्ण अभाव मुसीबतों को और बढ़ा देता है. राहुल गांधी का सरोकार वास्तविकता से इतर है. उनकी राजनीतिक समझ जमीनी हकीकत, अनुभव और अभ्यास से जुड़े नहीं हैं. उनकी समझ का आधार उनके सलाहकारों द्वारा जल्दबाजी में तैयार 'डमीज गाइड टू इंडियन पॉलिटिक्स' जैसे नोट्स हैं. बराक ओबामा ने भी उनके बारे में यही बात कही है. उन्होंने अपने संस्मरण, 'द प्रॉमिस्ड लैंड' में लिखा, 'राहुल नर्वस और अपरिपक्व नजर आते हैं जैसे कि वे एक ऐसे स्टूडेंट हों जो कोर्स वर्क पूरा करने के बाद शिक्षक को प्रभावित करने के लिए उतावला हो, लेकिन कहीं न कहीं उनमें योग्यता या विषय में महारत हासिल करने के जुनून की कमी हो.'
राहुल को क्या करना चाहिए?
जब चुनौतियों का सामना करना पड़ता है तब ऐसा छात्र पार्टी नेताओं से निपटने के लिए प्रबंधकीय समाधानों की तरफ रुख करता है. किसी ज़माने में उनकी पार्टी जिन मूल्यों पर खड़ी थी, उसे फिर से ढूंढने के बजाय उन्हें पार्टी कैडर को फिर से सक्रिय करना होगा. खुद की परवाह किए बिना उन्हें आम लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाना चाहिए और जन सामान्य की चिंता करनी चाहिए.
कुल मिलाकर जब तक गांधी परिवार इन बातों को नजरअंदाज करता रहेगा, तब तक पार्टी में लगी आग बुझाने से स्थिति नहीं बदलेगी. दूसरे शब्दों में यह पूछना कि क्या राहुल को समस्या का सही समाधान मिल गया है, इससे कुछ हासिल नहीं होगा. आज की भारतीय राजनीति के बारे में यही एकमात्र कथन हो सकता है, जिसका उदारवादी और दक्षिणपंथी दोनों ही तहे दिल से समर्थन करेंगे.
ऐसी कई पार्टियां हैं जिन्होंने कुछ समय के लिए अपने उद्देश्य की पूर्ति की और फिर इतिहास के पन्नों में कहीं ग़ुम हो गए. राहुल गांधी कांग्रेस को इसी सूची में जोड़ने की जल्दी में हैं. गुमनामी में जा रही एक और पार्टी के लिए वैसे तो कोई चिंता नहीं करनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल होने के साथ-साथ एक ऐतिहासिक विरासत वाली पार्टी है. जैसा कि मोदी ने भी नोट किया है, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
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