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- बहुत कठिन है डगर मरघट...

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रवीन्द्र बाबू ने कभी 'अकेला चलो रे' का संदेश दिया था। उसकी आवाज़ आज चारों ओर गूंजती है। 'सुनो, तेरे साथ कोई भी न आए, फिर भी तुझे अकेला चलना है। तेरे रास्ते में बिजलियां गिरें, तूफान आए, फिर भी तुझे चलना है।' लेकिन चलना कहां है? बंधु चले कहां। अकेला चलने के लिए नहीं कहा, अकेले घर में बंद होकर जीने के लिए कहा है। अकेलेपन को झेलते हुए उनकी कमर का दर्द जाग उठा, घुटने पीड़ा देने लगे हैं। बैठे-बैठे अपच से अजीर्ण हो गया। खट्टी डकारों के इलाज के लिए अब तो पड़ोस के सर्वज्ञाता भी अपनी खिडक़ी का पल्ला नहीं खोलते। अब हकीम से कर्ता तक सब रोल हमें ही करने होंगे। देसी नुस्खों से मालिश तक के सब गुर सीखने होंगे। माहौल असाधारण है और स्वनिर्वासन है। इसलिए घरों में सफाई का महत्व समझिए। हम सहधर्मी हैं और सहयोगी भी। प्रगतिशील घोषित थे और नारी समानाधिकार और सशक्तिकरण के बहुत बड़े पैरोकार। इसलिए अब घर में पोचा लगाने में मदद करनी है। जल में फिनाइल के मिश्रण का पोचा लगाइए। हम आज तक अपने महिमामंडन के लिए न जाने कितनी तस्वीरें व्ह्टसअप और फेसबुक पर डालते हैं, कृपया अपने फर्श पर पोचा लगाने के रमदान की तस्वीरें भी डाल दीजिए। ऐसे ही बहुत से अन्य पीडि़त पतियों की लाइक आप को मिल जाएंगे।
एक पीडि़त पति संगठन बनाने की प्रेरणा भी आप को मिलेगी। अभी तो फिलहाल अपने आपको नारी समानाधिकार का हामी प्रगतिशत पति कहकर सामाजिक मीडिया पर अपना महिमामंडन कर लो। महामारी की भयानक थी पदचाप। इसके कारण लोगों का आत्मनिर्वासन करके किवाड़ों के पीछे हुआ है, हमारी तो छह की छह इन्द्रियां जाग उठीं। छत से मुंडेरों पर हमें कौओं और कबूतरों के साथ नए-नए पंछियों की प्रजातियां नजऱ आने लगी। वह कोयल की कुहक सुनने की उम्मीद में छत के एक कोने में बैठे हैं ताकि बच्चे की चिल्लओं और बेगम साहिबा के उपालम्यों से छुटकारा मिले। कोयल की रुठी हुई आवाज़ उन्हें सुनाई नहीं दी, हां इस बीच उन्हें अपनी ही आवाज़ अधिक कर्कश सुनाई देने लगी। आज तक लोग अपनी ही आवाज़ के इश्क में गिरफ्तार रहे। सदा सोचते थे, उनसे अच्छा न कोई सोचता है, और न कोई बोलता है।
अब अकेले हुए तो इस विश्वास का भ्रम खुलता नजऱ आने लगा। हमें ही क्यों लगता है इस भ्रम में तो हमारी पूरी दुनिया पूरी सदी गिरफ्तार हो गई थी। अब रहस्यमय दैनिक शक्ति का कुल्हाड़ा पड़ा, तो कांपता हुआ आदमी तंत्र-मंत्र गृह नक्षत्र नज़मियों और खाल फेंकने वालों का सहारा लेता नजऱ आता है। कभी सोये हुए भाग्य को थाली बजा कर वापिस बुलाता है और उसे दूसरों का सम्मान बताता है। कभी घर की बत्ती बुझा कर मोमबत्ती जला अंधेरे से हटने की गुजारिश करता है। अरे यह अंधेरा तो एक न एक दिन छूट ही जाएगा, चाहे उसकी कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। लेकिन मनों पर छाये अंधेरों को दूर कौन करेगा? वह स्वच्छ निर्मल आकाश भी नहीं कि जिसमें एक नई चमक लेकर उभरता हुआ चांद हमें उस वातावरण का आभास देता है कि जिसे पाने के लिए पर्यावरण प्रदूषण के नाम पर हमने करोड़ों रुपए व्यय कर दिए थे। जानते हैं कि यह कठिन वक्त गुजऱ जाएगा तो यह निर्मल आकाश यह चमकता हुआ चांद हमसे विदा ले लेगा। डरे हुए घरों के किवाड़ खुल जाएंगे। नए वक्त का जश्न मनाते हुए पुराने मसीहा अपने मास्क उतार मुखौटे पहन चले आएंगे, आपके लिए चिंता भरे संभाषणों के साथ कि बहुत कठिन रही डगर कोरोना पनघट की। आइए, इस आकाश को फिर गंदला करें। चांद को उड़ती धूल में खो जाने दो। नव निर्माण को शुरू करना है। धन राशियां आबंटित करो, सर्वहारा के नाम पर हमारी जेबों के लिए। इन महाबलियों को नए समाज को पुराने तेवर देने का यह मंत्र फूंकना है। बस यूं बुरे वक्त के टलने का इंतजार कीजिए।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal

Rani Sahu
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