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न्यूजीलैंड की संसद ने एक बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण कानून पास किया है
न्यूजीलैंड की संसद ने एक बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण कानून पास किया है. इस नए कानून में महिलाओं और उनके पार्टनर्स के लिए तीन दिन की मिसकैरिज लीव यानी छुट्टी का प्रावधान किया गया है. अगर प्रेग्नेंसी के किसी भी चरण में मिसकैरिज होता है कि महिला और उसके पार्टनर दोनों को तीन दिन की पेड सरकारी छुट्टी मिलेगी. तीन दिन की ये छुट्टी उनकी सिक लीव में से नहीं काटी जाएगी.
न्यूजीलैंड दुनिया के उन शुरुआती देशों में से है, जिन्होंने मिसकैरिज लीव की शुरुआत की है. ऐसी और भी बहुत सी छुट्टियां, सुविधाएं और अधिकार है, जिन्हें देने वाला न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश है. 120 साल पहले महिलाओं को वोटिंग राइट यानी मतदान का अधिकार देने वाला भी न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश था.
ढाई साल पहले जुलाई, 2018 में न्यूजीलैंड ने संसद में एक बिल पास किया. 63:57 के वोट से पास हुए इस बिल में डोमेस्टिक वॉयलेंस यानी घरेलू हिंसा की शिकार होने वाली महिलाओं के लिए 10 दिन की पेड लीव का प्रावधान किया गया था. अगर कोई हिंसा का शिकार होता है तो उसे उस रिश्ते से अलग होने, अपने लिए दूसरा घर, आश्रय या शेल्टर ढूंढने, काउंसिलिंग करवाने और नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने के लिए सरकार की तरफ से 10 दिन की पेड लीव का प्रावधान किया गया.
फिलीपींस के बाद न्यूजीलैंड दुनिया का दूसरा ऐसा देश था, जिसने पेड डोमेस्टिक वॉयलेंस लीव की शुरुआत की. कनाडा के कुछ हिस्सों में इस तरह की छुट्टियों का प्रावधान है, लेकिन वो बाकायदा लेजिस्लेशन पास करके बनाया गया कानून नहीं है. हालांकि ऑस्ट्रेलिया में लेबर पार्टी के नेता बिल शॉर्टन ने चुनाव के वक्त ये वादा जरूर किया था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह घरेलू हिंसा के शिकार लोगों के लिए 10 दिन की पेड छुट्टी का कानून लेकर आएगी.
न्यूजीलैंड में पास हुए इस कानून को पार्लियामेंट मेंबर जिनी एंडरसन ने संसद में प्रस्तावित किया था. जिनी एंडरसन लेबर पार्टी की नेता हैं और अक्तूबर, 2020 में दूसरी बार लेबर पार्टी से चुनाव जीतकर संसद में पहुंची हैं.
जिनी ने एक मीडिया इंटरव्यू में इस बारे में विस्तार से बताया कि इस बिल का विचार उन्हें कैसे आया. उन्हें एक महिला के बारे में पता चला, जिसके साथ ऐसा ही दुखद हादसा हुआ, लेकिन उसे अपनी जॉब से छुट्टी नहीं मिल पाई. जिनी को लगा कि ये मामला उतना मामूली नहीं है, जितना कि आमतौर पर लोगों को लगता है.
उस महिला को लगा कि यह गलत है और उसने स्थानीय सांसद से संपर्क किया और अपनी कहानी सुनाई. उसके बाद ही जिनी ने इस बिल पर विचार करना शुरू किया और इसकी पूरी रूपरेखा तैयार की. जिनी कहती हैं, "मैंने बहुत सारे लोगों से इस बारे में बात की और मुझे लगा कि तकरीबन सभी ने इसका समर्थन किया."
संसद में यह बिल पेश करते हुए जिनी एंडरसन ने कहा, "मि. स्पीकर, असमय गर्भपात की वजह से होने वाला दुख और पीड़ा कोई बीमारी नहीं है. यह क्षति है, नुकसान है और इस नुकसान की भरपाई में वक्त लगता है. शारीरिक और मानसिक रूप से रिकवर होने में वक्त लगता है. और मि. स्पीकर, अकसर इस पीड़ा में स्त्रियां अकेली नहीं होतीं. उनका साथी, उनका पार्टनर भी होता है. उनके पार्टनर का दुख भी इसमें साझा है. और मैं यह कहते हुए बहुत खुश हूं कि इस बिल में महिलाओं और उनके पार्टनर दोनों के लिए प्रावधान है. कपल्स को इतनी सुविधा और सुरक्षा मिलनी चाहिए कि वो अपनी इनकम और सिक लीव, दोनों को खोने का दबाव महसूस किए बगैर एक-दूसरे के साथ मिलकर इस निजी दुख से उबर सकें."
निजी एंडरसन ने आगे कहा, "न्यूज़ीलैंड में हर चार में से एक गर्भवती स्त्री इस तकलीफ से गुजरती है. वह असमय ही अपना अपना बच्चा खो देती है. न्यूज़ीलैंड में इस बिल का पास होना इस बात का प्रमाण है कि हमारा देश एक प्रगतिशील और संवेदनशील कानूनों वाला देश बनने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रहा है."
जिन्नी एंडरसन ने इस बिल पर बोलते हुए कहा कि "न्यूजीलैंड में महिलाएं तीन महीने से पहले अपनी प्रेग्नेंसी के बारे में बात नहीं करतीं क्योंकि शुरू के महीनों में मिसकैरिज या गर्भपात का खतरा सबसे ज्यादा होता है. महिलाओं के बीच ये एक तरह का अनकहा नियम है. मुमकिन है, इस बिल के आने में इस सोच में भी थोड़ा बदलाव आए, टैबू टूटे और महिलाएं अब ज्यादा सहज होकर और खुलकर इस बारे में बात कर पाएं."
तीन दिन की इस नई छुट्टी के प्रावधानों में वो जोड़े भी शामिल होंगे, जो सैरोगेसी या एडॉप्शन के जरिए पैरेंट्स बनने का प्रयास कर रहे हैं. यह कानून उस जोड़ों पर लागू नहीं होगा, जो अपनी स्वेच्छा से अबॉर्शन का विकल्प चुनते हैं. न्यूजीलैंड दुनिया के उन प्रमुख देशों में से है, जहां अबॉर्शन लेजिस्लेशन एक्ट, 2020 के तहत महिलाओं को 20 हफ्ते के भीतर गर्भपात करवाने का कानूनी अधिकार है.
न्यूजीलैंड के इस नए कानून की भारत से भी तुलना की जा रही है, लेकिन दोनों देशों के कानूनों में कुछ बुनियादी फर्क है.
ये सच है कि भारत में 2017 में मैटर्निटी बेनिफिट एक्ट, 1961 में कुछ जरूरी बदलाव किए गए, जिसके तहत मैटर्निटी लीव या मातृत्व अवकाश की अवधि तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने कर दी गई. इन सुधारों के बाद इस कानून में ये प्रावधान भी जोड़ा गया कि मिसकैरिज होने पर महिला छह हफ्ते की पेड लीव की अधिकारी होगी. लेकिन सनद रहे कि भारत में इस कानून का लाभ सिर्फ वो महिलाएं उठा सकती हैं, जो ऑर्गनाइज्ड सेक्टर में काम कर रही हैं यानी ऐसी कंपनियों में, जो मैटर्निटी बेनिफिट एक्ट के प्रावधानों को लागू करने के लिए बाध्य हैं और भारत में ऐसी महिलाओं की संख्या सिफ 24 फीसदी है.
न्यूजीलैंड ने एक बार फिर इस अवधारणा को न सिर्फ मजबूत किया, बल्कि सही साबित किया है कि यदि महिलाओं के हाथ में स्टेट का नेतृत्व हो तो वो ज्यादा मानवीय ढंग से सोचती हैं और राज्य का बेहतर संचालन करती हैं. महिलाओं के पक्ष में बने कानून सिर्फ महिलाओं के हित में नहीं होते. उसमें पुरुषों और पूरे परिवार का हित निहित होता है. जैसे कहा था जिनी एंडरसन ने संसद में कि ये तीन दिन की पेड लीव स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है क्योंकि दोनों की क्षति और दोनों की पीड़ा साझा है. इस पीड़ा से उबरने की कोशिश में साझा होगी.
पिछले पांच सौ सालों के दुनिया के इतिहास में, जबकि ज्यादातर वक्त राष्ट्रों की बागडोर मर्दों के हाथ में ही रही है, ऐसा कम ही देखने को मिला कि स्त्री के शरीर के दुख से जुड़े किसी कानून में पुरुष का भी बराबर का साझा रहा हो. डोमेस्टिक वॉयलेंस, अबार्शन, रेप, मॉलिस्टेशन जैसे चीजों के लिए कानून बनाए भी तो सिर्फ स्त्री के लिए. पुरुष उससे अमूमन बाहर ही रहे.
भारत में दो साल पहले पुरुषों को तीन महीने की पैटर्निटी लीव देने का कानून आया तो उसमें भी साफ लिखा था कि ये कानून सिर्फ सिंगल, तलाकशुदा मर्दों के लिए है. अगर आप विवाहित हैं तो आपके घर में पत्नी है तो आपको पैटर्निटी लीव की जरूरत नहीं क्योंकि बच्चा पालने के लिए औरत ही काफी है. इसके ठीक उलट फिनलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश है, जिसने पिछले साल पैरेंटिंग लीव स्त्री और पुरुष दोनों में बराबर-बराबर बांट दी. यानी बच्चा पैदा होने पर मां और पिता दोनों को बराबर मैटर्निटी और पैटर्निटी लीव मिलेगी. भारत में महिलाओं को तो छह महीने की मैटर्निटी लीव मिलती है, लेकिन पुरुषों को सिर्फ 15 दिन की.
बहुत फर्क पड़ता है इस बात से कि राष्ट्र की बागडोर जिसके हाथ में है, उसका जेंडर क्या है. हालांकि ये मामला बायलॉजिकल बिलकुल नहीं है. सिर्फ कंडीशनिंग और ऐतिहासिक जेंडर ट्रेनिंग का है, जिसे मर्द चाहें तो बड़ी आसानी से बदल सकते हैं. बात सिर्फ सही और नेक इरादों की है.
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