सम्पादकीय

तीन स्तरों पर चुनावों की योजना बनाकर संभव है बार-बार चुनाव की चुनौती का समाधान

Rani Sahu
30 Jan 2022 4:42 PM GMT
तीन स्तरों पर चुनावों की योजना बनाकर संभव है बार-बार चुनाव की चुनौती का समाधान
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गत 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विद्वानों और विशेषज्ञों से अपील की है

हृदयनारायण दीक्षित। गत 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विद्वानों और विशेषज्ञों से अपील की है कि 'एक राष्ट्र एक मतदाता सूची और एक राष्ट्र एक चुनाव पर निरंतर चर्चा होती रहनी चाहिए। जब चर्चा होगी तो पक्ष-विपक्ष के बिंदु समझ में आएंगे। जब मंथन होगा तभी अमृत निकलेगा।' प्रधानमंत्री पहले भी सभी चुनाव एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं। उनका विचार स्वागतयोग्य है। देश लगातार चुनाव से तनाव में रहता है। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने भी कहा है कि हमें संघीय व्यवस्था के तीनों स्तरों के चुनाव एक साथ कराने के बारे में विचार करना चाहिए।

पहले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते थे, लेकिन 1968 से यह क्रम टूट गया। राज्य विधानसभाएं कई कारणों से कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। तमाम असमय भंग हुईं। सरकारें राजनीतिक साजिश का शिकार हुईं। अनुच्छेद 356 का करीब सवा सौ बार उपयोग हुआ। साथ-साथ चुनाव की ताल बिगड़ने का एक मुख्य कारण यह भी है। यहां स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था है। संविधान सभा में आयोग के लिए पृथक कर्मचारी समूह रखने की बात उठी। डा. आंबेडकर ने कहा कि आयोग के पास काम कम होगा, मगर शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा, 'संविधान में निर्धारित नहीं है कि अमेरिका की तरह चार वर्ष में चुनाव जरूरी होगा। बहुत संभव है कि केंद्र और राज्यों का चुनाव एक साथ न हो। तब हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहेंगे।'
आज यही स्थिति है। 2018 में त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मप्र, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना के चुनाव हुए। फिर 2019 में आंध्र, अरुणाचल, ओडिशा, सिक्किम, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हुए। उसी साल लोकसभा चुनाव भी हुए। वर्ष 2020 में दिल्ली, बिहार और 2021 में बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु में चुनाव हुए। फिलहाल उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बजा हुआ है। इसी साल के अंत में गुजरात और हिमाचल में चुनाव होने हैं। जम्मू-कश्मीर में भी हो सकते हैं। अगले वर्ष त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान, तेलंगाना में चुनाव होने है। उसके बाद 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र, अरुणाचल, ओडिशा, सिक्किम के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनाव प्रस्तावित हैं।
स्पष्ट है कि भारत का बड़ा हिस्सा चुनाव में ही व्यस्त रहेगा। अलग-अलग चुनाव में भारी धनराशि खर्च होती है। सामान्य सरकारी कामकाज भी प्रभावित होते हैं। संविधान सभा ने सरकारों को सदनों के प्रति जवाबदेह बनाया। बहुमत दल शासन करता है। अल्पमत होते ही सरकार गिर जाती है। राजनीतिक अस्थिरता के कारण समय पूर्व चुनाव की नौबत आ जाती है। संविधान निर्माता राजनीतिक स्थिरता की तुलना में जवाबदेही को श्रेष्ठ मानते थे। डा. आंबेडकर ने स्वयं कहा था कि संविधान में जवाबदेही को स्थिरता की तुलना में ऊपर रखा गया है। संवैधानिक जवाबदेही का अर्थ मूल्यवान है। मूलभूत प्रश्न संवैधानिक है। क्या हमारा दलतंत्र पांच वर्षीय स्थिरता और सरकार के प्रति सदनों के विश्वास में समन्वय बैठाने को तैयार है? क्या लोकसभा व विधानसभाओं में बहुमत प्राप्त निर्वाचित सरकार की पांच वर्षीय स्थिरता संभव है? क्या हम सरकारों के सुनिश्चित कार्यकाल का संवैधानिक उपाय खोज सकते हैं? पांच वर्षीय कार्यकाल के बीच राजनीतिक कारणों से सरकार अल्पमत में जा सकती है। क्या कुछ प्रतिबंधों के साथ सदनों को कार्यकाल पूरा किए जाने की व्यवस्था की जा सकती है। आपत्ति हो सकती है कि उत्तरदायित्वविहीन पांच वर्षीय सुनिश्चित कार्यकाल पाकर सरकारें निरंकुश हो सकती हैं। इसका उलटा भी हो सकता है। तब अस्थिरता से भयग्रस्त सरकारें निर्भय होकर काम पूरा करेंगी। सदनों के प्रति जवाबदेही भी बनी रहेगी।
एक देश एक चुनाव के सिद्धांत में राज्य स्तरीय पार्टियों की आपत्ति हो सकती है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने पर क्षेत्रीय मुद्दों की आवाज दब जाएगी। लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी होते हैं और राज्यों के चुनाव में स्थानीय सवाल बहस का विषय बनते हैं। क्षेत्रीय दलों की इस समस्या का समाधान भी संभव है। सारे देश में तीन चुनाव प्रस्तावित हो सकते हैं। लोकसभा का चुनाव अलग होना चाहिए और विधानसभाओं व पंचायत तथा नगरीय चुनाव का कार्यक्रम अलग। सभी राज्यों के चुनाव एक साथ संभव हैं। इस तरह कुल तीन चुनाव की संवैधानिक योजना बनाई जा सकती है। लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे होंगे और राज्य विधानसभा के चुनाव में राज्य स्तरीय। इसी तरह नगरीय व ग्रामीण पंचायतों के चुनाव में स्थानीय मुद्दे होंगे। तब रोज-रोज के चुनावी झंझट से बचा जा सकता हैं। कोई भी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था जड़ नहीं हो सकती। तद्नुसार सामाजिक परिवर्तन की गति चलती है।
चुनाव सुधार राजनीतिक सुधार के ही अंग हैं। चुनाव आयोग की कार्यकुशलता के चलते चुनाव संचालन में अनेक गुणात्मक सुधार हुए है। आदर्श चुनाव आचार संहिता भी चुनाव सुधारों का परिणाम है। चुनाव सुधार जरूरी है। कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने केंद्रीय कानून मंत्रालय के एक संदर्भ के उत्तर में लोकसभा व विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने पर सहमति जताई थी। साथ-साथ चुनाव भारत के जन-गण-मन का मुद्दा है। चुनाव सुधारों की गति मद्धम है। प्रधानमंत्री ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने की पहल के लिए आयोग की प्रशंसा की है। मतदाता सूची में पंजीकरण के लिए साल में सिर्फ एक बार अवसर के बजाय अब चार अवसर मिलने और मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने की सराहनीय सुधारवादी पहल की जा रही हैं।
मतदान केवल अधिकार नहीं कर्तव्य भी है। चुनाव सुधारों से जुड़े सभी पहलुओं पर गहन विचार जरूरी है। राजनीतिक दलों को चुनाव सुधारों के लिए आगे आना चाहिए। संप्रति दलतंत्र हमेशा चुनावी मूड में रहता है। प्रधानमंत्री का प्रस्ताव स्वागतयोग्य है। राजनीतिक सुधारों पर सार्थक बहस अनिवार्य है। इस पर लगातार विमर्श करना चाहिए। भारत भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में होने वाले चुनाव का बोझ उठा रहा है। करोड़ों रुपये की धनराशि का अपव्यय हो रहा है। प्रधानमंत्री ने सही कहा है कि इसी चिंतन मंथन से ही अमृत निकलेगा।
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