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किसी भी स्वतंत्र लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति के लिए ही नहीं अपितु तंत्र के बेहतर इस्तेमाल के लिए भी आवश्यक है
गोविन्द माथुर। किसी भी स्वतंत्र लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति के लिए ही नहीं अपितु तंत्र के बेहतर इस्तेमाल के लिए भी आवश्यक है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत लिखित और मौखिक रूप से अपना मत प्रकट करने हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान है। अपवाद के तौर पर देश की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता पर संकट की स्थिति में, वैदेशिक संबंधों पर विपरीत प्रभाव और न्यायालय की अवमानना जैसी विशिष्ट परिस्थितियों में इस महत्वपूर्ण अधिकार को बाधित या सीमित कर सकते हैंं।
समय के साथ अभिव्यक्ति के माध्यम भी बदलते हैं। आज इंटरनेट द्वारा सोशल मीडिया का अद्भुत विस्तार हुआ है, जिससे अभिव्यक्त विचार को बहुत व्यापक स्तर पर प्रसारित और प्रचारित किया जाना संभव है। आज सोशल मीडिया से व्यक्तिगत रूप से या किसी छोटे समूह में कही गई बात को बहुत बड़े स्तर पर प्रसारित करना संभव हो गया है। इसकी प्रभावशीलता से भारत सहित दुनियाभर की सरकारें अचंभित भी हैं और भयभीत भी, अतः इस माध्यम को येन केन प्रकारेण बाधित करने के प्रयास निरंतर किए जा रहे हैं, जो अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन ही है।
ताजा मामले मुनव्वर फारूकी और कुणाल कामरा के हैं जिन पर कर्नाटक सरकार ने राज्य में हास्य-व्यंग्य कार्यक्रम करने पर रोक लगा दी है। इनके कार्यक्रम सौ-सवा सौ लोगों के समक्ष ही होते हैं परंतु यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर द्वारा इनकी पहुंच करोड़ों लोगों तक है। इनके कार्यक्रम में सरकार, नेताओं, सत्ताधारी दल और राजकीय तंत्र पर व्यंग्य द्वारा गंभीर टिप्पणी की जाती है और यही सरकार की नाराजगी की वजह है। फारूकी व कामरा के कार्यक्रम रद्द करने की वजह उनके विवादित बयान, कुछ संगठनों द्वारा की गई शिकायत तथा कानून और व्यवस्था बिगड़ने की संभावना को बताया गया।
क्या ये कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से विचलन के लिए पर्याप्त हैं? हालांकि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी प्रदत्त है और इन अधिकारों को विशिष्ट परिस्थितियों में बाधित किया जा सकता है, लेकिन फारूकी और कामरा के मामलों में ऐसी कोई परिस्थिति अस्तित्व में नहीं है।
राज्य सरकार को भी खतरा कानून और व्यवस्था बिगड़ने का ही लगा है और वह भी कुछ संस्थाओं के ज्ञापन के आधार पर। सर्वोच्च न्यायालय ने 1950 में ही रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामले में यह अवधारित किया कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विचारों के प्रसार की स्वतंत्रता शामिल है। प्रेस की स्वतंत्रता में सूचनाओं तथा समाचारों के जानने का अधिकार भी शामिल है।
इस फैसले के प्रभाव को कमजोर करने के इरादे से ही संविधान में पहला संशोधन किया गया, परंतु सर्वोच्च न्यायालय के एक के बाद एक आने वाले फैसले इस महत्वपूर्ण अधिकार को मजबूत करते रहे। 1962 में साकल पेपर्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 19 में किए गए संशोधन को वैधानिक मानते हुए भी कहा कि शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिन्हों, प्रसारण आदि से अपने विचारों को व्यक्त करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में सम्मिलित है तथा प्रेस की स्वतंत्रता भी इस अधिकार में शामिल है।
हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशांत कन्नोजिया और अर्णब गोस्वामी के मामलों में कहा कि किसी नागरिक की आजादी के साथ समझौता नहीं हो सकता। अभिव्यक्ति का अधिकार संविधान से मिला है और इसका उल्लंघन नहीं हो सकता। विभिन्न फैसलों का प्रभाव यह है कि अनुच्छेद 19(1)(क) के अंतर्गत नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार है और सरकार उन्हें केवल अनुच्छेद 19(2) में वर्णित आधारों पर ही अनुमति देने से इंकार कर सकती है।
भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, न्यायालय की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के उद्दीपन की स्थिति में ही इस अधिकार को बाधित किया जा सकता है। लोकव्यवस्था भी एक ऐसा ही महत्वपूर्ण कारण है, परंतु अभिव्यक्ति को बाधित करने हेतु राज्य की संतुष्टि के लिए बहुत ठोस आधार चाहिए।
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है कि अभिव्यक्ति का अधिकार सामान्यत: अक्षुण्ण रहे। अभिव्यक्ति से ही तंत्र की समीक्षा संभव है। अन्यथा व्यवस्था में पूर्ण भटकाव की संभावना है। फारूकी और कुणाल यही कार्य कर रहे हैं। सरकार को चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बाधित करने की जगह विधि के शासन को दृढ़ करे तथा लोक व्यवस्था के प्रश्नों से भी निबटे।
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