सम्पादकीय

दूषित चिंतन से एक अच्छे समाज का निर्माण संभव नहीं, नशा ना बने सामाजिक प्रतिष्ठा का परिचायक

Tara Tandi
8 Oct 2021 4:15 AM GMT
दूषित चिंतन से एक अच्छे समाज का निर्माण संभव नहीं, नशा ना बने सामाजिक प्रतिष्ठा का परिचायक
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आश्चर्य नहीं कि नशाखोरी से कलंकित बालीवुड फिर से विवादों में है

शशांक पांडेय । बलबीर पुंज। आश्चर्य नहीं कि नशाखोरी से कलंकित बालीवुड फिर से विवादों में है। हैरानी की बात यह है कि इस बार ड्रग्स मामले में एक आरोपित के पिता ने अपने पुत्र के लिए भविष्य की जो योजना निश्चित की थी, उसमें से एक ड्रग्स लेने के लक्ष्य को वह संभवत: पूरा भी कर चुका है। क्रूज पार्टी में आर्यन ने ड्रग्स ली थी या नहीं या फिर वह उसकी खरीद-फरोख्त में शामिल था या नहीं, इसका उत्तर अभी स्पष्ट नहीं, परंतु यह बेहद आश्चर्यजनक है कि उनके पिता शाहरुख खान ने पहले ही एक साक्षात्कार में कहा था कि वह चाहते हैं कि उनका बेटा बड़ा होकर ड्रग्स ले। जितना संगीन अपराध और सामाजिक बुराई का प्रतीक किसी भी ड्रग्स का सेवन करना और आर्थिक लाभ कमाने हेतु ड्रग्स कारोबार में शामिल होना है, उससे कहीं अधिक गंभीर इस प्रकार का मानस है। माता-पिता, जिनकी जिम्मेदारी अपने नौनिहालों को संस्कार देने की होती है और जो अपने बच्चों के प्रथम शिक्षक भी होते है, यदि उनका दृष्टिकोण ऐसा होगा, तो क्या समाज विनाशकारी अंत की ओर नहीं बढ़ेगा?

शाह रुख खान कोई आम भारतीय नहीं हैं। हिंदी सिनेमा के करोड़ों प्रशंसकों में उनकी पहचान है। जिन शाहरुख को उनके चाहने वाले अपना प्रेरणास्नेत मानते हैं, उनकी दृष्टि में भारत का युवा कैसा होना चाहिए, वह उनके सिमी ग्रेवाल के साथ साक्षात्कार से स्पष्ट है। तब शाहरुख से सिमी ने पूछा था कि वह आर्यन का पालन-पोषण कैसे करेंगे तो उन्होंने कहा, मैं उसे कहूंगा कि वह लड़कियों के पीछे भाग सकता है, ड्रग्स ले सकता है..। क्या ऐसे चिंतन से सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा? यह चिंता इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि अपनी महिला मित्र को प्रसन्न रखने और उसे महंगे से महंगा उपहार देने हेतु कई युवा या तो लूटपाट की घटना में शामिल पाए जाते हैं या फिर पैसों की पूर्ति के लिए अनैतिक कृत्य में लिप्त मिलते है? इस प्रकार के कई समाचार हाल के वर्षो में सामने आ चुके है। आखिर इसकी प्रेरणा उन्हें कहां से मिलती है?

यदि ड्रग्स सेवन मामले में जांच पश्चात आर्यन का दोष सिद्ध होता भी है, तो संभवत: उन्हें विधिवत सीमा में सजा मिलेगी और वह अपने अपराध के लिए जिम्मेदार भी होंगे, किंतु आर्यन के पिता शाहरुख का क्या, जो भारतीय समाज के अभिजात्य वर्ग का भी हिस्सा हैं। विडंबना देखिए कि इस प्रकार के चिंतन के बाद भी बड़ी-बड़ी कंपनियां शाहरुख को अपने विज्ञापनों में आइकन और प्रेरणास्नोत के रूप में स्थापित करती हैं। यदि प्रेरक ऐसा होगा, तो उसके करोड़ों अनुचर किस दिशा में आगे बढ़ेंगे? यदि समाज में ईमानदारी, विश्वास, मानवता और सहिष्णुता के बजाय ड्रग्स जनित धुएं का गुबार और सनक हो तो उस समाज का विनाश निश्चित है।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि ड्रग्स सेवन और अश्लीलता को बालीवुड के साथ समाज का एक वर्ग न केवल पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर प्रगतिशीलता, उदारवादिता और संपन्नता का प्रतीक मान रहा है, बल्कि आर्यन से सहानुभूति भी जता रहा है। क्या भारत में ड्रग्स लेना अपराधमुक्त और प्रतिष्ठा का परिचायक है? योजनाबद्ध और संगठित तरीके से आर्यन के समर्थन में संवेदनापूर्ण भाव उत्पन्न करके उसे मासूम बताया जा रहा है। यदि 23 वर्षीय आर्यन पर लगे ड्रग्स सेवन और उसकी खरीद-फरोख्त के आरोपों को बचपना और नादानी कहकर गौण किया जा रहा है तो ऐसा कहने वाले इसी आयु में देश की स्वतंत्रता हेतु प्राणों की आहुति दे चुके भगत सिंह और ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा को किस दृष्टि से देखेंगे?

ड्रग्स मामले में फंसे आर्यन के प्रति संवेदना पहली बार नहीं दिख रही है। इससे पहले ऐसे ही फंदे में बीते वर्ष कई नामी अभिनेता-अभिनेत्रियां भी फंसे चुके हैं। संजय दत्त का प्रकरण भी सर्वविदित है। इन मामलों में कानूनी-जांच का विरोध करने वाले अधिकांश चेहरे वही हैं, जो शिवसेना के नेतृत्व वाली महानगरपालिका द्वारा बीते वर्ष कंगना रनोट का घर तोड़े जाने का मौन समर्थन कर रहे थे। शाहरुख-आर्यन के पक्षधर, मीडिया द्वारा मुंबई-गोवा क्रूज ड्रग्स मामले की रिपोर्टिग को मीडिया-ट्रायल की संज्ञा दे रहे हैं। उनका एक आरोप यह भी है कि जब लखीमपुर खीरी प्रकरण जैसा मामला देश के समक्ष है तो मीडिया का एक वर्ग ड्रग्स मामले पर अत्याधिक ध्यान क्यों दे रहा है? ऐसा आक्षेप लगाने वाले अप्रैल 2020 में महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं की हिंसक भीड़ द्वारा निर्मम हत्या की रिपोर्टिग किए जाने पर भी अपनी आपत्ति जता चुके हैं।

इस पृष्ठभूमि में जब 2015 में दादरी स्थित अखलाक की भीड़ ने दुर्भाग्यपूर्ण हत्या कर दी थी और मीडिया की दिनोंदिन उग्र रिपोर्टिग और टीवी-बहस ने देश की छवि को असहिष्णु और मुस्लिम विरोधी बनाने का प्रयास किया था, तब वह कुनबा इसका या तो समर्थन कर रहा था या फिर उस पर सुविधाजनक रूप से चुप था। ऐसा ही मनगढ़ंत विमर्श 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला आत्महत्या मामले और 2018 के कोरेगांव हिंसा में भी बनाया गया था।

सच तो यह है कि जब से देश में 24 घंटे चलने वाले चैनल प्रारंभ हुए हैं, तब से न केवल मीडिया का व्यावसायीकरण हो गया है, बल्कि उसने देश की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। जिन घटनाओं में (ग्लैमर सहित), अपराध और मजहब का घालमेल होता है, उसमें दर्शकों-पाठकों की दिलचस्पी सर्वाधिक होती है और टीआरपी अर्थात राजस्व पाने हेतु चैनल उस ओर भागने लगते हैं। आरुषि-हेमराज हत्याकांड, भंवरी देवी हत्या, डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम और आसाराम बापू से जुड़े मामले की उग्र-रिपोर्टिग इसका प्रमाण है। तब इस पृष्ठभूमि में आर्यन ड्रग्स मामला अपवाद कैसे है?


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