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क्या ये इतिहास दर्ज किए जाने के लायक नहीं था?
साहित्य अकादमी ने अपने 67 वर्षों के इतिहास में पहली बार किसी महिला कवि को उनकी काव्य कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की है. साल 2020 का साहित्य अकादमी अवॉर्ड 59 वर्षीय लेखिका और कवियत्री अनामिका जी को उनकी काव्य कृति 'टोकरी में दिगंत: थेरी गाथा' के लिए दिया जाएगा. इसके पहले पांच स्त्री लेखिकाओं को यह सम्मान मिल चुका है, लेकिन वह सब औपन्यासिक कृतियां थीं.
पुरस्कार की घोषणा के साथ पिछले साल के उलट इस साल हिंदी की मुख्यधारा दो धड़ों में बंट गई है. इस साल लोगों को इस सम्मान को सेलिब्रेट न करने के लिए वह सारे तर्क और कारण याद आ रहे हैं, जो पिछले साल नंदकिशोर आचार्य को कविता के लिए ही सम्मानित किए जाने पर नहीं आए थे क्योंकि सरकार तो पिछले साल भी वही थी, जो इस साल है. पुरस्कार वापसी के उपक्रम से लेकर अकादमी के स्त्रीद्वेषी चरित्र तक सारी परिस्थितियां वही थीं. पिछले साल फरवरी में अकादमी के सेक्रेटरी के. श्रीनिवास राव पर सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस हुआ था और केस की इंक्वायरी पूरी होने से पहले ही अकादमी ने उस महिला को ही नौकरी से निकाल दिया. जहां तक सम्मान-पुरस्कार आदि की निरर्थकता और सत्ता से उसके गठजोड़ का सवाल है तो यह बहस तो शाश्वत है. हमेशा से थी, लेकिन हमें याद अभी क्यों आ रही है, जबकि संस्थानों से लेकर समाज तक के सारे स्त्री द्वेषी चरित्र और माहौल के बीच यह मौका थोड़ा खुशी मनाने का है.
अनामिका जी के अवॉर्ड पर जिन अनगिन तर्कों और तरीकों से नाक-भौं सिकोड़ी जा रही है, उतने तर्क तो मिसोजिनी के खिलाफ भी नहीं सुनने को मिलते.
खैर, चलिए इतिहास में थोड़ा पीछे चलते हैं.
1954 का साल था. भारत को आजाद हुए 7 बरस हो चुके थे. न्याय और बराबरी के संविधान को लागू हुए 4 बरस. एक आजाद, लोकतांत्रिक मुल्क आकार ले रहा था. जवाहरलाल नेहरू की सरकार थी, जो साहित्य, कला, विज्ञान की उन्नति में देश की उन्नति देख रही थी.
इसी साल साहित्य अकादमी की स्थापना हुई.
स्थापना के एक साल बाद 1955 में हिंदी में पहला पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी को 'हिम तरंगिणी' के लिए दिया गया. उसके अगले साल वासुदेव शरण अग्रवाल, उसके अगले साल आचार्य नरेंद्र देव और उसके भी अगले साल राहुल सांकृत्यायन को.
टोकरी में दिगंत: थेरी गाथा
1979 तक चला ये सिलसिला, जब 1980 में पहली बार अकादमी ने किसी महिला को इस पुरस्कार के योग्य समझा और कृष्णा सोबती को उनके उपन्यास 'जिंदगीनामा' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया. उसके बाद फिर दो दशक तक अकादमी से सम्मानित हो रहे सारे लेखक पुरुष ही थे. 21 साल बाद फिर दूसरी महिला लेखिका की बारी आई 2001 में, जब अलका सरावगी को उनके उपन्यास 'कलिकथा वाया बाईपास' के लिए साहित्य अकादमी मिला. फिर उसके 11 साल बाद 2013 में मृदुला गर्ग को और फिर 2016 और 2018 में नासिरा शर्मा और चित्रा मुद्गल को. अब 2020 का अवॉर्ड अनामिका जी को मिला है. अब तक कुल मिलाकर औरतें छह और मर्द साठ.
मैं इन 67 सालों की कहानी क्यों सुना रही हूं? 20-20 साल तक एक के बाद एक सब मर्द अवॉर्ड पाते रहते हैं. साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, सचिव सब मर्द होते रहे हैं, चयन समिति के 99 फीसदी सदस्य मर्द रहे हैं और किसी के जेहन में ये सवाल ही नहीं आया कि उस दौर की सारी स्त्रियां कहां हैं. एक भी औरत क्यों नहीं. सबको धरती खा गई या आसमान निगल गया. ये कभी-कभार 20-20 सालों के अंतराल में कोई इक्का-दुक्का ही क्यों धूमकेतु की तरह साहित्याकाश में प्रकट होती हैं और फिर सन्नाटा.
इन सात दशकों में क्या स्त्रियां नहीं थीं. वो किताबें नहीं पढ़ रही थीं? लिख नहीं रही थीं? वो कहां थीं? क्या कर रही थीं? वो क्या सोचती थीं? कैसा था उनका जीवन. उनके आसपास के लेखक, माहौल. उनकी निजी कहानी. उस दौर की अकादमी की सभाएं, गोष्ठियां, साहित्यिक विमर्श और इस पूरे परिदृश्य में कहीं किसी कोने में बैठी अदृश्य महिलाएं.
हमें उनके बारे में कुछ खास पता नहीं. हमें उन्हीं के बारे में पता है, जिन्हें अवॉर्ड मिल रहा था, जिनकी चर्चा की जाती थी, जिन्हें सभाओं में बुलाया जाता था, जिनका जिक्र होता था. हमें उतना ही इतिहास पता है, जितना इतिहास में दर्ज किया गया.
जो दर्ज ही नहीं, उसे कैसे जानें भला.
लेकिन मेरा दिल ये मानकर राजी नहीं कि कोई स्त्री थी ही नहीं. कोई लिख ही नहीं रही थी. वो रही होंगी, हम बस उनके बारे में कुछ जानते नहीं. सिर्फ इसलिए नहीं कि वो मर्दों के आधिपत्य वाले मुख्यधारा साहित्य का हिस्सा नहीं थीं क्योंकि औरतें तो किसी भी क्षेत्र की मुख्यधारा का हिस्सा कभी नहीं थीं.
इसलिए क्योंकि हाशिए की उन कहानियों को कभी इतिहास में दर्ज नहीं किया गया. मुख्यधारा इतिहास के समानांतर वो दूसरा इतिहास, जो लगातार घट रहा था, लेकिन दर्ज नहीं हो रहा था. जितना मैसिव डॉक्यूमेंटेशन औरतों के इतिहास का सेकेंड वेव फेमिनिज्म के दौरान और उसके बाद पश्चिम में हुआ, वैसा हमारे यहां नहीं हुआ क्योंकि इस देश में कोई ठोस फेमिनिस्ट मूवमेंट कभी रहा ही नहीं. उन्होंने अब तक लिखे और बताए गए इतिहास के पैरलल फेमिनिस्ट हिस्ट्री का पूरा नरेटिव खड़ा किया. उन्होंने औरतों की कहानियों को वहां से ट्रेस करना शुरू किया, जिसका बहुत लिखित प्रमाण भी नहीं मिलता था.
उन फेमिनिस्ट औरतों का तर्क था कि ऐसा तो कोई वक्त नहीं रहा होगा, जब सारी की सारी औरतों ने मर्दों के आधिपत्य को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया हो. 16वीं-17वीं शताब्दी में भी फेमिनिस्ट औरतें होती होंगी, जो अपनी कहानी लिख रही होंगी. बराबरी के लिए लड़ रही होंगी. उस खोज में उन्हें 17वीं शताब्दी की फ्रेंच फेमिनिस्ट ओलाप दुगूस समेत ऐसी अनेकों फेमिनिस्ट औरतों की कहानियां मिलीं, जिन्हें स्त्री अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए फांसी पर चढ़ा दिया गया, जिंदा जला दिया गया और आजीवन जेल में रखा गया.
ये कहानियां मैं फिर कभी विस्तार से सुनाऊंगी, लेकिन यहां इस जिक्र का मकसद सिर्फ ये था कि हिंदुस्तान में भी साहित्य, कला, सिनेमा सबकी मुख्यधारा जब मर्दों के वर्चस्व से लबालब थी, औरतें तब भी कहीं चुपचाप अपना काम कर रही होंगी. हमारी त्रासदी ये है कि हम उनके बारे में कुछ जानते नहीं.
तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारग्रेट थ्रेचर के हाथों ज्ञानपीठ अवॉर्ड ले रही लेखिका महादेवी वर्मा, वर्ष 1982
एक महादेवी वर्मा को जानते हैं, लेकिन उनके भी लेखन के सबसे ठोस और जरूरी हिस्से को पूरी तरह दरकिनार कर हिंदी के मुख्यधारा साहित्य ने उन्हें "मैं नीर भरी दुख की बदली" में ही बदल दिया. जबकि उनकी किताब 'श्रृंखला की कडि़यां' को हिंदी के शुरुआती फेमिनिस्ट टेक्स्ट की तरह पढ़ाया जाना चाहिए था. वो किताब इतनी पावरफुल है कि आज भी हिंदी प्रदेश की कोई 15-16 की लड़की उसमें अपने सवालों, चुनौतियों और अपनी जिंदगी का अक्स पा सकती है. 65 साल बाद भी अगर कोई फेमिनिस्ट टेक्स्ट इतना प्रासंगिक है तो हम कल्पना ही कर सकते हैं कि अंगद के पांव की तरह पैर जमाए बैठी पितृसत्ता को शायद ही थोड़ा सा हिला पाए हैं.
जब बात कला और औरतों के इतिहास की चली है तो सिनेमा के जिक्र के बगैर कैसे पूरी होगी.
दादा साहेब फाल्के का नाम कौन नहीं जानता. उनकी लीगेसी को हमने इतिहास में कितने जतन से संजोया और संभाला है. उन पर किताबें लिखी गईं, फिल्में बनीं. उनके फिल्म बनाने की कहानी पर अलग से फिल्म बनी 'हरिश्चंद्रांची फैक्ट्री,' जिसे 2008 में नेशनल अवॉर्ड भी मिला. दादा साहेब के नाम से इस देश का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म अवॉर्ड दिया जाता है. यह अवॉर्ड उनके घरवाले नहीं, बल्कि भारत सरकार देती है. ये लीगेसी है उस महान शख्सियत की, जो इस देश का पहला फिल्ममेकर था.
इस इतिहास को इतनी दृढ़ता और निष्ठा से संजोए जाने से मुझे उज्र नहीं, लेकिन सवाल ये है कि क्या आपको पता है इस देश की पहली महिला फिल्म डायरेक्टर कौन थी? वो कौन स्त्री थी, जिसने पहली बार कैमरा अपने हाथों में उठाकर पूरी फिल्म बनाई. वो फिल्म कौन सी थी? वो कैसी थी, उसकी कहानी क्या थी?
कोई दीवाना खुद ही ढूंढने लग पड़े तो शायद पा ले, लेकिन उस महिला का नाम दादा साहेब फाल्के के नाम की तरह खुद चलकर आपके दरवाजे तक नहीं आएगा क्योंकि वो असंख्य लोगों के द्वारा, असंख्य बार दोहराया नहीं गया. वो पॉपुलर कल्चर का हिस्सा नहीं है. वो बच्चों की किताबों में पढ़ाया नहीं जाता. उस नाम पर कोई अवॉर्ड नहीं है. वो इतिहास में ढंग से दर्ज भी नहीं है.
इस देश की पहली महिला फिल्ममेकर का नाम कोई नहीं जानता क्योंकि उसे कभी रिकग्नाइज ही नहीं किया गया. उसे देखा, सराहा नहीं गया. उस पर बात नहीं की गई, उसे इतिहास में डॉक्यूमेंट नहीं किया गया.
उस महिला का नाम था फातमा बेगम.
दादा साहेब ने 1913 में फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी. उसके महज 13 साल बाद 1926 में फातमा बेगम नाम की महिला ने पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म बनाई- 'बुलबुल-ए-परिस्तान', जो उन्होंने खुद लिखी और डायरेक्ट की थी. अब न वो फिल्म मिलती है, न उसकी कहानी.
मैं तो सिर्फ कल्पना कर रही हूं कि अगर आज कोई फिल्म इस पर बने कि 1926 का समय है. एक महिला है, जो एक फिल्म बनाना चाह रही है. उसकी क्या कहानी होगी. सिनेमा और कैमरे से उसका कैसा नाता होगा, उसने पहली बार कैमरा कैसे जुटाया होगा, कैसे चलाया होगा, कैसे सेट बनाया गया, एक्टर्स कहां से लिए होंगे, कैसे कहानी लिखी होगी. वो फिल्म कैसे बनकर तैयार हुई होगी. उसके क्या संघर्ष रहे होंगे. कितनी तिरछी निगाहें, कितने तीरो-तलवार, कितने सवाल, राह में कितने रोड़े.
दादासाहेब फाल्के की राह के सारे रोड़े तो पता हैं हमें. फातमा बेगम का कुछ पता नहीं.
क्या ये इतिहास दर्ज किए जाने के लायक नहीं था?
था तो, बस उनके लिए नहीं था, जो कर रहे थे. और जैसाकि मैंने पहले कहा, फेमिनिस्ट हिस्ट्री तो कभी लिखी ही नहीं गई.
फिर से वहीं लौटती हूं, जहां से शुरू किया था. अनामिका जी के अवॉर्ड पर आह-ऊह कर रहे और संसार के सब राजनीतिक प्रश्न एक सांस में दोहरा रहे लोगों में यह इतिहास बोध ही सिरे से नदारद है. वो ये नहीं देख पा रहे कि बात एक अवॉर्ड की नहीं है. बात इतिहास में करीने से दर्ज किए जाने की है. वरना अनामिका जी के लिखे का पढ़ने वालों के साथ जो नाता है, वह इस पुरस्कार से परे है. वो इससे न घटने, न बढ़ने वाला है. जो प्रेम करते थे, करते रहेंगे. जो नहीं करते थे, वो आगे भी नहीं करेंगे.
बात अतीत के उन ठियों-ठिकानों पर लौटने और कभी न लिखे किए गए इतिहास को सिरे से खंगालने और दर्ज करने की है. बात उस लड़की की है, जो पचास साल बाद कविताएं लिख रही होगी और ये पढ़ रही होगी कि 2021 में पहली बार किसी महिला को कविता के लिए सम्मानित किया गया था. बात वो दरवाजा, वो रास्ता खुलने की है, जो सैकड़ों सालों से हमारे मुंह पर पूरी बेशर्मी और अधिकार से बंद किया जाता रहा है. बात उस वैश्विक बहनापे की, उस सिस्टरहुड की है, जो अनामिका जी के संपूर्ण रचना कर्म का मर्म है.
बात इतिहास में दर्ज किए जाने की है.
Gulabi
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