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कुछ दिनों पहले एक मजेदार वीडियो वायरल हुआ था
डॉ॰ विजय अग्रवाल
कुछ दिनों पहले एक मजेदार वीडियो वायरल हुआ था. वीडियो में दिखाया गया था कि कुछ युवा डॉक्टर हरे रंग का चोंगा पहने हुए हाथ जोड़कर संस्कृत में एक प्रार्थना कर रहे हैं. प्रार्थना को 'धनवंतरी मंत्र' कहा गया था. वे यह प्रार्थना एक ऑपरेशन करने से पहले कर रहे थे. कुछ लोगों को यह बड़ा बचकाना और हास्यास्पद लगा. उन्होंने इसके बारे में कटु टिप्पणियां भी कीं, जिसका लब्बो-लुआब यह था कि प्रार्थना करने से भगवान आकर आपरेशन नहीं कर देंगे. यह बेकार के एक अंधविश्वास हैं, और वह भी विज्ञान के क्षेत्र में. इस दृश्य के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारधारा को जिम्मेदार ठहराया गया. चूंकि यह दृश्य बंगलुरू के एक अस्पताल का था, और कर्नाटक में अभी बीजेपी की सरकार है, इसलिए उनकी बात को सीधे-सीधे नकारा भी नहीं जा सकता था.
कुछ ऐसी ही बात तब कही गई थी, जब लगभग साठ साल पहले सन् 1963 में भारत ने अपना पहला राकेट लाँच किया था. रॉकेट को लाँच करने से पहले बकायदा पूजा-अर्चना की गई थी, नारियल फोड़ा गया था. उस समय देश में कांग्रेस की सरकार थी, और जवाहलाल नेहरू हमारे प्रधानमंत्री थे. एक अन्य आदेश पर आते हैं. राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने फैसला किया है कि अब डॉक्टर्स अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद हिप्पोक्रेट्स की शपथ के स्थान पर 'चरक शपथ' लेंगे. इसके विरोध में भी आलोचना के स्वर उभरे, जबकि ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार होगा. कुछ मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी पहले से ही चरक शपथ ले रहे हैं. इनमें देश का सर्वोच्च संस्थान ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस भी है. कुछ मेडिकल कॉलेज ने हिप्पोक्रेटस शपथ में कुछ परिवर्तन करके उसे अपना रखा है.
अब मैं आपसे कुछ इसी तरह की घटनाओं से जुड़ा अपना एक अनुभव रखने की इजाजत चाहूंगा. यह सन् 2000 की बात है. मैं पूना स्थित फिल्म एवं टेलीविजन इन्स्टीट्यूट में एक माह का फिल्म एप्रीशिएशन कोर्स करने गया था. वहां फिल्म से जुड़े रियलिज्म, अवांगार्दा जैसे सिद्धांतों की बातें बताई गईं. ये सभी सिद्धांत अमेरिका, फ्रांस, इटली और रूस से आये हुए थे. हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे भरतमुनि के ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' का ज्ञान था. मैंने क्लास में खड़ा होकर अपना यह विरोध दर्ज कराया कि हमें उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के नये पश्चिमी सिद्धान्तों के बारे में तो बताया गया, लेकिन 6 घंटों के इस लेक्चर में 'नाट्यशास्त्र' का उल्लेख तक नहीं आया. क्या आप इसका कोई संबंध फिल्म से नहीं मानते?
मेरे इस प्रश्न से अस्सी छात्रों वाले उस कक्ष में कुछ देर तक सन्नाटा छा गया. मुझे लगा कि वहाँ मौजूद किसी भी स्टूडेन्ट ने शायद ही यह नाम सुना हो. हो सकता है कि यह संभावना उन प्रोफेसर पर भी सही उतरती, जिनसे प्रश्न पूछकर मैंने उन्हें विचित्र धर्मसंकट में डाल दिया था. लेकिन उन्होंने मुझे जिस तेज और उपेक्षापूर्ण निगाह से देखा, उससे कोई भी यह अंदाजा लगा सकता था कि उनके लिए यह प्रश्न अत्यंत मूर्खतापूर्ण, बेहद गँवार और बेमतलब का था.
मेरा सरोकार यहाँ न तो राजनीति से है, और न ही 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' जैसे भारी-भरकम विचारों से. मेरी चिंता और प्रश्न यह है कि क्यों हम अपनी विरासत के प्रति इस तरह की हीन ग्रंथि से ग्रसित हैं कि उनका नाम लेना तक पसंद नहीं करते. या तो आप इस बौद्धिक विरासत को झुठलाने का तर्क एवं प्रमाणयुक्त कदम उठाकर इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए खारिज करने का उपक्रम कीजिये, जो आप कर ही नहीं सकते. और यदि ऐसा नहीं कर सकते, तो उसे पूरे गर्व के साथ स्वीकार कीजिये.
जब 'चरक शपथ' की बात आई, तो मैंने विस्तार के साथ हिप्पोक्रेटस, आचार्य सुश्रुत और चरक के बारे में विस्तार से पढ़ा. इनमें सुश्रुत सबसे वरिष्ठ लगभग 8वीं शताब्दी ई.पू. के हैं. इसके बाद हिप्पोक्रेटस चौथी शताब्दी ई.पू. के हैं. अंत में आते हैं, चरक, लगभग दूसरी शताब्दी पूर्व के.
समय निकालकर यदि आप इन तीनों द्वारा प्रस्तुत शपथों को पढ़ेंगे, तो आपको यह सुखद आश्चर्य होगा कि यदि हम इनके शपथों में से 'परिवेश' को खारिज कर दें, तो तीनों की आत्मा एक ही है. तीनों शपथ निःस्वार्थ भाव से सेवा की बात कहते हैं, बीमार व्यक्ति की गोपनीयता को बनाये रखने को कहते है, भौतिक लाभ की इच्छा से परे रहने तथा जरूरत पड़ने पर किसी भी समय उपस्थिति रहने की शपथ लेने की बात करते हैं.
सुश्रुत का आदेश है कि 'अपने प्रत्येक मरीज का इलाज अपने बच्चे के समान करो.' चरक अपने शिष्यों से कहलाते हैं कि 'मैं अपने लिए नहीं, अपनी किसी भौतिक इच्छा की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि केवल दुखी मानवता के हित के लिए काम करूंगा.' मुझे लगता है कि यहाँ यह पूछने की बजाय कि 'ऐसा करने से क्या हो जायेगा?', पूछा यह जाना चाहिए कि 'यह इतनी देरी से क्यों हो रहा है, जबकि चरक तो 2200 साल पहले हो चुके हैं.'
जब तक कोई राष्ट्र अपने अतीत की स्वस्थ जड़ों से नहीं जुड़ेगा, तब तक सच्ची लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती. इस तरह के परिवर्तनों को 'लादने' की बजाय 'भूल सुधार' के रूप में देखा जाना अधिक श्रेयष्कर होगा.
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