सम्पादकीय

आवश्यक है इतिहास का पुनर्लेखन, युवा पीढ़ी को भारत के आत्मबोध से परिचित कराना जरूरी

Rani Sahu
20 Oct 2022 6:09 PM GMT
आवश्यक है इतिहास का पुनर्लेखन, युवा पीढ़ी को भारत के आत्मबोध से परिचित कराना जरूरी
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सोर्स -JAGRAN
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल : भारत में इतिहास शिक्षण की स्थिति देखकर लगता है कि इतिहास केवल भूतकाल की घटनाओं के बारे में जानकारी देता है। क्या इतिहास शिक्षण का उद्देश्य केवल भूतकाल की सूचनाओं का आयात करना है? इस स्थिति में अध्ययन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। उद्देश्य स्पष्ट न होने से यह प्रश्न बेमानी हो जाता है कि अंतर्वस्तु क्या है? यह प्रश्न भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना इतिहास को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या का अंग बनाने का प्रश्न। इतिहास खंडित या विकृत है, यह बाद का प्रश्न है। कोई भी राष्ट्र या समाज संपूर्णता में पढ़ने की प्रक्रिया की अपेक्षा रखता है। जो पढ़ाई हो, वह सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिक हो, जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम रहते हैं, उस सांस्कृतिक परिवेश को संबोधित करती हो और हमारे जीवन को गौरवान्वित भी करती हो। दुनिया भर में इतिहास का उपयोग इसी दृष्टि से हुआ है। प्राय: 10वीं कक्षा और उससे नीचे ही शत-प्रतिशत इतिहास की पढ़ाई होती है। इस स्तर तक भी यदि पढ़ाने के तरीके में तार्किकता के बजाय केवल घटनाओं का बखान हो तो उसे उचित नहीं कहा जा सकता।
इतिहास में घटनाओं के चयन, प्रविधि और उनके भाष्य का प्रश्न महत्वपूर्ण होता है। भारत जैसे देश के इतिहास को निरंतरता में देखा जाना चाहिए, लेकिन प्रायः उसे खंडित रूप में देखने की कोशिश की जाती है। इतिहास हमेशा शौर्य का होता है, कीर्ति का होता है और पराक्रम का होता है। कक्षा 10 से नीचे का विद्यार्थी इतिहास के थोड़े हिस्से से भी परिचित होता है तो मनुष्य की बेहतर प्रवृत्तियों से परिचित हो सकता है। इतिहास का उद्देश्य ही ज्ञान का विस्तार करना है।
अंग्रेजों ने इतिहास से छेड़छाड़ के पीछे के उद्देश्य को कभी नहीं छिपाया। वे जानते थे कि भविष्य में भारत की विद्याओं का बहुत योगदान होगा। इसे समझते हुए उन्होंने उस भारतविद्या का, उस संस्कृत का उपयोग मतांतरण के लिए किया। इतिहास में इंडिक स्रोत की ही बात की गई। इंडिक शब्द भी उतना ही खतरनाक है, क्योंकि जब हम इंडिक कहते हैं तो मध्यकाल के इतिहास लेखन में वे इंडिक स्रोत भी फारसी स्रोत के अभिन्न अंग हैं। इसीलिए मध्यकाल में जो इतिहास भारतीय भाषाओं में लिखा जा रहा था, उसमें भारतीय समाज की वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलता।
यह इतिहास के किसी पाठ्यग्रंथ में नहीं लिखा गया कि आक्रमण, मतांतरण और तमाम अत्याचारों के बावजूद भारतीय ज्ञान परंपरा ने 11वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के बीच 45,000 से अधिक नई किताबें लिखीं और वे सभी भारतीय भाषाओं में लिखी गईं। 12वीं शताब्दी में रचित 'लीला चरित्र' वस्तुतः इतिहास ही है। वहां हम यही संशोधन कर सकते हैं कि वे भारतीय भाषाओं के साहित्यिक स्रोतों और अन्य विश्वसनीय मौलिक स्रोतों पर आधारित हैं। दूसरी ओर यात्रा साहित्य के आधार पर इतिहास खोजने के कारण यह भ्रांत धारणा बनाई गई कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की, वैसे ही जैसे कोलंबस ने अमेरिका खोजा। अगर हम वास्कोडिगामा को भारत की खोज करने वाले के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो उस किशोर विद्यार्थी का मानस नहीं बदलेगा। अमूमन आरंभिक स्तर पर पढ़ा गया इतिहास ही व्यक्ति जीवनपर्यंत के लिए सत्य-तथ्य मान लेता है, क्योंकि उच्च स्तर पर इतिहास का अध्ययन कम ही लोग करते हैं।
इतिहास लेखन की कमियों को दूर करना होगा। इसकी पाठ्यसामग्री में देश की दस प्रतिशत आबादी सभी प्रकार के इतिहास के दायरे से पूरी तरह बाहर है। इसमें बड़ी संख्या घुमंतू जनजातियों की है। इसी कारण से जब उनको अधिसूचित करके प्रतिबंधित किया गया तो कुछ को आपराधिक जनजाति कहा गया, कुछ के भ्रमण पर रोक लगा दी गई। ऐसा करना वस्तुतः इस देश में जीवन पद्धति को बदलने की प्रक्रिया थी। विदित हो कि 18वीं शताब्दी तक भारत बड़ी आर्थिक शक्ति था, जिसमें इन घुमंतू जनजातियों का बड़ा योगदान था। उन पर पाबंदियां लगाकर भारत के व्यापार और शिल्प, दोनों को प्रभावित करने का काम किया गया। भारत के इतिहास से उनका इतिहास गायब है।
कोई भी देश जिसकी 10-12 प्रतिशत आबादी प्रभावशाली रही हो, उसमें हम एक-दो को ही जानते हैं। परिणामस्वरूप विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा से निकल जाता है और उसे इन प्रजातियों के नाम नहीं पता होते। उसके मन में वही बना रहता है जो उनके बारे में अंग्रेजों ने लिखा। इसीलिए आज इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत है। उस पुनर्लेखन के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने लोगों को, अपने समाज को, अपने समाज की परंपराओं को गौरवपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना और उनसे किशोर-युवाओं का परिचय कराने की है।
इतिहास समझने का अभिप्राय देश को समझना है। भारत को किस रूप में समझना है, भारत को किस रूप में जानना है और भारत को उसकी युवा पीढ़ी किस रूप में जानेगी और मानेगी, उसकी निर्मिति इतिहास द्वारा होती है। इतिहास की हमारी दृष्टि उस किशोर के, उस बच्चे के मन-मस्तिष्क को सामने रखते हुए,
उसे श्रेष्ठ भारतीय मनुष्य बनाने के उद्देश्य को सामने रखते हुए बननी चाहिए। इतिहास के पाठ और उसकी अंतर्वस्तु को इस समझ के स्तर पर ले जाने की जरूरत है। 70 साल में जो बिगड़ा था, इधर कुछ वर्षों में उसे बनाने की कोशिश की जा रही है। उस गति को बढ़ाना पड़ेगा। संपूर्ण विश्व में भारत के प्रति जो सकारात्मक दृष्टिकोण बन रहा है, उससे अधिक सकारात्मक दृष्टि अब नहीं बन सकती। इस सकारात्मक दृष्टिकोण के कालखंड में ही इतिहास भी सकारात्मक और भारत केंद्रित हो सकता है। भारत को, भारत के लोगों को, भारतीय ज्ञान दृष्टि के आधार पर भारत के सुबोध का इतिहास निर्मित करना होगा। उस सुबोध के, आत्मबोध के इतिहास के आधार पर ही 21वीं शताब्दी की चुनौतियों का मुकाबला करने वाली योग्य युवा पीढ़ी निर्मित हो सकेगी।
Rani Sahu

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