सम्पादकीय

आवश्यक है विभाजन विभीषिका का स्मरण: विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस क्रूर त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति दर्शाता है संवेदना

Tara Tandi
26 Aug 2021 3:02 AM GMT
आवश्यक है विभाजन विभीषिका का स्मरण: विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस क्रूर त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति दर्शाता है संवेदना
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भारत की स्वतंत्रता के 74 वर्ष बाद पहली बार किसी सरकार ने विभाजन की विभीषिका को आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय त्रासदी की मान्यता देने का निर्णय लिया है।

भूपेंद्र सिंह | भारत की स्वतंत्रता के 74 वर्ष बाद पहली बार किसी सरकार ने विभाजन की विभीषिका को आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय त्रासदी की मान्यता देने का निर्णय लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की है कि प्रतिवर्ष 14 अगस्त विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाएगा। यह सचमुच चौंकाने वाली बात है कि ऐसी भीषण त्रासदी जिसमें करीब बीस लाख लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोगों का पलायन हुआ उसे भारतीय चिंतन और स्मृति पटल से या तो मिटाने का प्रयास किया गया या फिर उसके प्रति जानबूझकरउदासीनता बरती गई। इस त्रासदी के घाव इतने गहरे हैं कि देश के बहुत बडे़ हिस्से खासकर पंजाब और बंगाल में बुजुर्ग लोग 15 अगस्त को सिर्फ विभाजन के ही रूप में याद करते हैं। यह लंबे समय तक सुप्त भारतीय चेतना और राजनीतिक निर्बलता का ही परिचायक है कि जो त्रासदी मानव इतिहास में सबसे बडे़ पलायन की वजह बनी, उसकी न तो कोई औपचारिक स्मृति बनी और न ही कोई स्मारक।

इसके विपरीत विश्व के अन्य देशों में छोटी-बड़ी त्रासदियों को सामूहिक चेतना में जीवित रखने के हरसंभव प्रयास होते रहे हैं। यहूदियों ने द्वितीय विश्व युद्ध में हुए नरसंहार की स्मृतियों को सहेजने के लिए अमेरिका से लेकर इजरायल तक स्मारक बना रखे हैं। जर्मनी और पोलैंड में यातना शिविरों को स्मारक के रूप में बदल दिया गया है। नाजी सेना के हाथों बडे़ पैमाने पर हुए यहूदी नरसंहार को याद करते हुए विश्व के तमाम देश 27 जनवरी का दिन होलोकास्ट रिमेंब्रेंस डे के रूप में मनाते हैं। इसी तरह दो अगस्त भी द्वितीय विश्व युद्ध में हुए रोमा जनजाति के सामूहिक नरसंहार की स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है। वहीं जापानी सेना द्वारा किए गए नानजिंग नरसंहार की स्मृतियों को चीन हर वर्ष 13 दिसंबर के दिन याद करता है। आर्मेनिया से लेकर कंबोडिया और रवांडा से लेकर ग्रीस तक प्रत्येक समाज अपने नरसंहारों को पूरी गंभीरता से याद रखता है। सभी ने इसके लिए स्मृति दिवस निर्धारित किए हुए हैं। इन प्रयोजनों का आशय विभीषिका की क्रूरता में दिवंगत हुई आत्माओं को श्रद्धांजलि देने के साथ ही उन राजनीतिक शक्तियों एवं वैचारिक प्रेरणाओं के प्रति सजगता बनाए रखना भी होता है, जो समाज के लिए पुन: खतरा बन सकती हैं।

वर्ष 1947 में भारत का विभाजन भी कोई अनायास हुई घटना नहीं थी। उसके पीछे वही इस्लामी कट्टरता और अलगाववादी विचारधारा थी, जो भारत को विजित भूखंड और भोगभूमि से ज्यादा कुछ नहीं समझती। मुस्लिम लीग की अगुआई में विभाजन की मांग को व्यापक मजहबी समर्थन के पीछे वह सोच था जिसमें भारत में शासकीय वर्ग के तौर पर तो रहा जा सकता था, परंतु 'एक व्यक्ति एक वोट' जैसी बराबरी का दर्जा नामंजूर था। विभाजन विभीषिका की सरकारी उपेक्षा इसी अलगाववाद से मुंह मोड़ने की कोशिश थी। बहुत से मंचों से प्रचार होता रहा है कि पाकिस्तान की मांग अस्पष्ट और मुस्लिम लीग के दबाव की राजनीति थी। कई बार विभाजन को नेहरू और जिन्ना की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से जोड़कर भी देखा जाता है। ये दोनों ही तर्क सतही और असल वजह से भटकाने वाले हैं। जिन्ना की जगह लीग का नेतृत्व कोई और करता तब भी शायद पाकिस्तान की मांग को लेकर वैसी ही हिंसा होती, क्योंकि जहां भी लीग के नेता सत्ता में थे, वहां उन्होंने हिंसा को खुलकर बढ़ावा दिया।

सत्य यह है कि विभाजन जिन्ना की नहीं, बल्कि मजहबी उन्माद से ग्रस्त एक बडे़ मुस्लिम वर्ग की मांग थी। आज भले ही कुछ लोग दावा करें कि भारतीय मुसलमानों ने विभाजन को ठुकराया, परंतु तथ्य सर्वथा भिन्न हैं और कड़वे भी। 1946 के प्रांतीय विधानसभा चुनाव पाकिस्तान की मांग के इर्दगिर्द ही हुए थे और इन चुनावों में 87 प्रतिशत मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग ही जीती थी। नेफा यानी आज के खैबर पख्तूनख्वा को छोड़कर लगभग पूरे अविभाजित भारत के मुसलमानों ने कांग्रेस ही नहीं, बल्कि जमात उलेमा-ए-हिंद, मजलिस-ए-अहरार और खाकसारों जैसी उन मुस्लिम पार्टियों तक को ठुकरा दिया, जो विभाजन के खिलाफ थीं। हालांकि 75 वर्ष पुराने निर्णय के लिए आज की पीढ़ी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता और न ही पूरे मुस्लिम समाज की राष्ट्रभक्ति पर अंगुली उठाई जा सकती, परंतु इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता कि अलगाववाद और चरमपंथ आज भी कई क्षेत्रों में उफान पर है। चाहे वह कश्मीर से हिंदुओं का सफाया हो या नागरिकता संशोधन कानून जैसे मानवीय कदम का हिंसक विरोध, मजहबी उन्माद आज भी एक सच्चाई है।

यह विभाजन की विभीषिका पर लगातार बनी रही उदासीनता का ही परिणाम है कि वंदे मातरम् का विरोध और मजहबी आधार पर आरक्षण जैसी मांगें स्वतंत्रता के 74 वर्ष बाद फिर मुखर हो चली हैं, जो विभाजन का कारण बनीं। राष्ट्र जीवन में सिर्फ हिंदू प्रतीकों का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का अपमान भी अब आम हो चला है। त्रासदियों के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया का पता इजरायल और भारत के बीच एक छोटी सी तुलना से चलता है। इजरायल में विश्वविख्यात संगीतज्ञ रिचर्ड वैगनर का संगीत इसीलिए निषिद्ध है, क्योंकि वह नाजीवाद के समर्थक थे। इसके विपरीत हिंदी तराने को बेशर्मी से कौमी तराने में बदल देने वाले और पाकिस्तानी विचार के प्रवर्तक अल्लामा इकबाल की नज्म 'सारे जहां से अच्छा' स्कूलों-कालेजों में आज भी पूरे जोश से गाई जाती है।

विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मात्र घटनाओं को याद करने का अवसर नहीं है। इससे वे हिंसक और असहिष्णु विचारधारा भी कठघरे में खड़ी होती हैं, जो इन त्रासदियों का कारण बनती हैं। विभीषिकाओं की स्मृति हमें निरंतर याद दिलाती है कि भावनाओं को भड़काकर कैसे बड़ी-बड़ी त्रासदियां छोटे से समय में राष्ट्र को झकझोर सकती हैं। ऐसे अभिप्राय जनमानस को पूछने के लिए प्रेरित करते हैं कि क्या विभाजन जैसी विभीषिका से देश को पर्याप्त सबक मिले या नहीं। केवल आत्म अवमानित या मृतप्राय समाज ही विभीषिकाओं को भुला सकते हैं। जीवंत समाजों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। स्मृति दिवस की घोषणा कर प्रधानमंत्री ने जताया है कि देश अपनी सबसे क्रूर त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति संवेदनशील है और साथ ही ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कटिबद्ध भी।


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