सम्पादकीय

सबसे कड़ी सजा की नजीर से आगे देखना जरूरी

Gulabi
20 Feb 2021 9:22 AM GMT
सबसे कड़ी सजा की नजीर से आगे देखना जरूरी
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शबनम की दया याचिका राष्ट्रपति ने भी खारिज कर दी।

शबनम की दया याचिका राष्ट्रपति ने भी खारिज कर दी। इस तरह आजादी के बाद यह पहला मौका होगा, जब किसी महिला को फांसी पर लटकाया जाएगा। दुनिया भर में, और विशेषकर भारत में सजा देते समय महिलाओं के साथ अमूमन नरमी बरती जाती है। जमानत देते समय उन्हें विशेष सुविधा हासिल है और विशेष परिस्थितियों को छोड़कर आमतौर पर उन्हें जमानत दे दी जाती है। इतना ही नहीं, सजा-माफी की अर्जी पर विचार करते समय भी राष्ट्रपति और राज्यपाल उनके प्रति उदारता बरतते हैं। यही कारण है कि आजाद भारत में सजा-ए-मौत तो कई महिलाओं को सुनाई गई, किंतु किसी को अब तक फांसी नहीं दी गई। किंतु शबनम के मामले में ऐसा नहीं हुआ। अदालत के सामने शबनम की सजा पर सुनवाई के दौरान उनके महिला होने और बच्चे की परवरिश की चिंता करते हुए उनकी सजा को आजीवन कारावास में बदलने की मांग की गई थी।

सबसे कड़ी सजा की नजीर से आगे देखना जरूरी

मृत्युदंड के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बच्चन सिंह के मामले में दिए गए दिशा-निर्देश का भी हवाला दिया गया, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि मृत्युदंड विरल से विरलतम मामलों में ही दिया जाना चाहिए। किंतु शबनम के मामले में अदालत ने इन दलीलों को नहीं माना। उनके अपराध को बहुत गंभीर किस्म का अपराध मानते हुए उन्हें फांसी की सजा दी गई, जिसे बाद की अदालतों ने भी बरकरार रखा। शबनम ने प्रेमी सलीम के साथ मिलकर अपने पूरे परिवार की हत्या कर दी थी, क्योंकि परिजन उनकी शादी सलीम से करने को तैयार नहीं थे। यह जघन्यतम अपराध था, जिसमें प्रेमी से विवाह करने के लिए इतने निकट संबंधियों का कत्ल कर दिया गया था, जिसमें उसका 10 माह का मासूम भतीजा भी शामिल था।

बहरहाल, दंड शास्त्र की पारंपरिक विचारधारा कहती है कि अपराधियों को इतना कठोर दंड दिया जाए कि वह समाज और कानून तोड़ने वालों के लिए नजीर बने। लोगों के मन में कानून का इतना खौफ रहे कि वे अपराध करने से परहेज करें। राज्य की शासन-व्यवस्था के प्रति इसी तरह का भय पैदा करने के लिए किसी जमाने में मौत की सजा सार्वजनिक रूप से दी जाती थी। सभ्यता के विकास के साथ इस तौर-तरीके में अंतर आया। गाहे-बगाहे इस बात पर भी बहस होती रहती है कि मौत की सजा देने से क्या अपराधों में वास्तव में कमी आती है और क्या इस तरह की कठोर सजा देने से अपराधियों के मन में खौफ पैदा हो पाता है? सुधारवादी लोग इस बात से सहमत नहीं हैं। वे मानते हैं कि आवेश या तीव्र आवेग के वशीभूत होकर अपराध करने वाला व्यक्ति परिणाम की चिंता नहीं करता।
उसके पास यह सब सोचने-समझने की क्षमता ही नहीं रह जाती। इसलिए इन लोगों का मानना है कि मृत्युदंड को समाप्त ही कर देना चाहिए। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। ऐसे मामले भी आए हैं, जब इस कदम से समाज को नुकसान हुआ। जहां अमेरिका के कुछ राज्यों में मृत्युदंड को समाप्त करने के बाद गंभीर अपराधों में बेतहाशा वृद्धि हुई। इसके कारण कानून बनाकर कुछ राज्यों को मृत्युदंड बहाल करना पड़ा। दंड शास्त्र का उद्देश्य यह होता है कि अपराध की संख्या में कमी आए, जिससे जनमानस का शासन-व्यवस्था में भरोसा बना रहे, अन्यथा लोग न्याय पाने के लिए अपराधी को खुद दंडित करने के लिए उठ खड़े होंगे। शबनम जैसे मामलों में अक्सर अपराधी सही, गलत या फांसी की सजा के खौफ के बारे में विचार नहीं कर पाता। इसीलिए मृत्युदंड का आतंक इस तरह के अपराधों में तात्विक कमी लाने में सफल नहीं होता। इस तरह के अपराधों का संबंध हर व्यक्ति के पालन-पोषण, सामाजिक परिवेश और शिक्षा जैसे कई कारकों पर निर्भर करता है और उनमें सुधार करके ही इस तरह के अपराधों में कमी लाई जा सकती है। कोई भी राज्य-व्यवस्था अपराधों की कमी के लिए समाज में आदर्श परिस्थितियों के निर्माण की प्रतीक्षा नहीं कर सकती। उसे समाज को आश्वस्त करना होता है कि किसी भी अपराधी को कतई छोड़ा नहीं जाएगा, हर दोषी को दंड मिलेगा। जघन्य अपराधों के मामलों में तो यह और भी जरूरी होता है। इसीलिए ऐसे गंभीर मामलों में महिलाओं और बच्चों को दी जाने वाली दया की सीमा भी महत्वहीन हो जाती है। शबनम का अपराध भी संभवत: इसी श्रेणी में आता है।


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