सम्पादकीय

गुरु-शिष्य में सामंजस्य होना जरूरी

Rani Sahu
24 Aug 2023 3:31 PM GMT
गुरु-शिष्य में सामंजस्य होना जरूरी
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जिला ऊना के एक सीमावर्ती सरकारी स्कूल के छात्र व उसके पिता द्वारा स्कूल प्रिंसिपल के साथ मारपीट का मामला जब ध्यान में आता है, तो अनायास ही मुझे अपने स्कूल के दिन याद हो आते हैं। उस समय अन्य कई उपदेशक वाक्यों के साथ गुरु जी हमें स्कूल में यह वाक्य भी खूब रटाया करते थे, ‘स्पेयर द रॉड, सपॉइल द चाइल्ड।’ जो इसे याद न कर पाता, उसे गुरु जी छड़ी दिखा-दिखा कर याद करवा लेते। यदि फिर भी बात न बनती, तो छड़ी हथेली पर पड़ कर याद करवा देती। आज न मेरी इन उंगलियों में वो ताकत होती, न मेरी कलम में इस साफगोई से लिखने की सलाहियत होती, यदि मेरे पिता जी, जो मेरे अध्यापक भी रहे, इस कलम को इन उंगलियों के बीच में न भींचते। प्रिंसिपल से मारपीट की इस घटना का ध्यान आते ही अपना अब तक का 24 वर्षीय अध्यापन काल भी •ोहन में उभर आता है। इस दौरान अच्छा-बुरा, हर तरह का समय देखा, पर इस तरह की घटना से दो-चार नहीं होना पड़ा। इसलिए भगवान का शुक्रिया जरूर करता हूं और प्रार्थना करता हूं कि बाकि का बचा हुआ अध्यापन काल भी बस सही-सही गुजर जाए! उक्त घटना के पीछे का कारण जांच का विषय है। मामला जो भी रहा हो, यह घटना सचमुच आधुनिक शिक्षा पद्धति पर शर्मनाक दाग है। सचमुच अब जमाना बदल गया है। तख्तियों से मोबाइल फोन तक आते-आते बहुत कुछ बदल गया।
गुरु जी इतने मजबूर हो गए हैं कि बच्चा बिगड़े तो बिगड़े, पर छड़ी बची रहनी चाहिए। आधुनिक शिक्षा, विशेषज्ञ शिक्षाविद व मनोवैज्ञानिक ऐसा ही कह रहे हैं। सवाल पुरानी या नयी पद्धति का बेहतर और खराब होने का नहीं है, बल्कि सामंजस्य का है क्योंकि ध्यातव्य व व्यावहारिक बात यह भी है कि कुछ बच्चे प्यार से, कुछ दुलार से, कुछ डांट-डपट से व कुछ छड़ी की चोट से जीवन में आगे बढ़ते हैं। ऐसी घटनाओं की बात की जाए तो फेहरिस्त काफी लंबी है। कुछ महीनों पहले बड़सर के सरकारी स्कूल में भी अध्यापक से मारपीट का मामला सामने आया था। दिसंबर 2021 में हमीरपुर के एक सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में एक छात्र ने अध्यापक पर हाथ उठा दिया था। कुछ वर्ष पहले दिल्ली के सुलतानपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का उसके ही शिष्य ने कत्ल कर दिया था। यह घटना गुरु-शिष्य के बीच बिगड़ते रिश्ते की पराकाष्ठा है। दिसंबर 2014 में झारखंड के एक स्कूल के सातवीं कक्षा के तीन छात्रों ने अपने अध्यापक को इसलिए मार डाला क्योंकि उक्त अध्यापक ने उन्हें धूम्रपान न करने की सलाह दी थी। फरवरी 2012 में चिन्नई के एक स्कूल में नवीं कक्षा के छात्र ने चाकू से अपने अध्यापक की जान ले ली। हमारे प्रदेश में भी इस तरह की घटनाएं होती आयी हैं। 14 दिसम्बर 1998 में अरसू के एक सरकारी स्कूल के नवीं कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य पर सरिये से वार किया जिसके कारण उनकी मौत हो गयी। अगस्त 2014 में संजौली कॉलेज में छात्रों ने प्रधानाचार्य व अन्य शिक्षकों के साथ मारपीट की थी। कुछ वर्ष पहले गंगथ के सरकारी स्कूल के एक छात्र ने सुबह-सवेरे स्कूल ग्राउंड में प्रधानाचार्य का गला पकड़ लिया था।
एक जमाना था जब स्कूल में की गई किसी शरारत के लिए शिक्षक तो सजा देते ही देते थे, पर साथ में माता-पिता भी कोई कसर नहीं छोड़ते थे। परंतु बदलते वक्त के साथ गुरु-शिष्य के संबंधों में बहुत खटास और दूरी आ गयी है। जिस देश में शिष्य अपने गुरु को देवतुल्य मानता आया है, वहीं आज इस रिश्ते में इतनी तल्खी और हिकारत आ गयी है कि नौबत मारपीट तक ही नहीं, बल्कि कभी कत्ल तक भी पहुंच जाती है। जिस देश का इतिहास गुरु-शिष्य की आदर्श परंपरा के उदाहरणों से भरा पड़ा है, उस देश में आज गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती खाई एक समस्या बनती जा रही है। विद्यालय में मुल्क के भविष्य को सींचा जाता है और भाग्य की रेखाएं खींची जाती हैं। इस मुकद्दस जगह पर इल्म के चिराग जला कर गुरु अपने शिष्य के अज्ञान के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करता है और उसे अनुशासन, संस्कार और शिष्टाचार का सबक पढ़ाता है। परंतु जो कुछ घटित हो रहा है, उससे साफ जाहिर है कि धीरे-धीरे शिक्षण संस्थान अनुशासनहीनता, बदजुबानी, मारपीट और हिंसा के केंद्र बनते जा रहे हैं। मैं यह तो कतई नहीं कह रहा हूं कि अध्यापक को अपने शिष्य को पीटने का मालिकाना हक है, परंतु अपने शिष्य को सही राह दिखाना, पथभ्रष्ट होने से रोकना, गलती पर टोकना, उसे अनुशासित रहने का सबक सिखाना गुरु के लिए अगर गुनाह हो गया है, तो आखिर इन शिक्षा के मंदिरों का औचित्य क्या है? क्या संत कबीर की ये पंक्तियां सिर्फ किताबी छलावा हैं : ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है…अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहे चोट।’ पठन-पाठन केवल किताबों से नहीं, बल्कि दिल से होता है, गुरु-शिष्य संवाद से होता है। अध्यापक और शिष्य का रिश्ता वर्चस्व स्थापित करने का नहीं, बल्कि आपसी समझ का रिश्ता है।
गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती दूरियों के लिए वे अभिभावक भी जिम्मेदार हैं जो समझते हैं कि शिक्षक एक कर्मचारी है जिसे तनख्वाह दी जाती है और वे इसके लिए फीस अदा कर रहे हैं। गुरु-शिष्य का रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का पेशा नहीं है। शिक्षण ऐसा कार्य है जिसमें शिष्य में ज्ञान प्राप्ति का जुनून व समर्पण की भावना होनी चाहिए और गुरु में अपने ध्येय के प्रति निष्ठा। घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है और मां-बाप पहले अध्यापक। बच्चों के मानस पटल पर घर के माहौल और वहां मिल रही तरबीयत का गहरा असर होता है। अत्यधिक खुले वातावरण ने बच्चों का भला कम और नुक्सान ज्यादा किया है। यदि उचित समय पर बच्चों को सही राह न दिखाई जाए, तो आगे चल कर वे समस्या बन जाते हैं। मां-बाप को याद रखना चाहिए कि बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए डांट व दुलार, फटकार व शाबाशी, थपेड़े व पुचकार की जरूरत होती है, ताकि उसका विकास एकतरफा न हो। यदि गुरु, शिष्य व अभिभावक विद्यालयों में दोस्ताना तालिमी माहौल नहीं बना सकते, तो मैं तो ईश्वर से यही प्रार्थना करूंगा कि अगले जन्म में मुझे कुछ और बनाना, अध्यापक नहीं बनाना।
जगदीश बाली
शिक्षाविद
By: divyahimachal
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