सम्पादकीय

आवश्यक है भ्रष्ट तंत्र की साफ-सफाई, पर जांच एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर भी कुछ सवाल हैं कायम

Rani Sahu
2 Aug 2022 11:29 AM GMT
आवश्यक है भ्रष्ट तंत्र की साफ-सफाई, पर जांच एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर भी कुछ सवाल हैं कायम
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आवश्यक है भ्रष्ट तंत्र की साफ-सफाई

सॉर्स - Jagran

संदीप घोष : पिछले कुछ दिनों से मीडिया में घोटाले और छापेमारी (Raids) ही सुर्खियों में छाए हुए हैं। हाल में इसकी शुरुआत दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन (Satyendra Jain) की गिरफ्तारी से हुई। उसके बाद दिल्ली सरकार की नई आबकारी नीति को लेकर विवाद शुरू हुआ। इसके लिए दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) को निशाने पर लिया जाने लगा। फिर प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी द्वारा सोनिया गांधी से पूछताछ की बारी आई, जिस पर बिफरे कांग्रेसियों ने देश भर में 'सत्याग्रह' के नाम से विरोध-प्रदर्शन किया। इस कड़ी में अगला पड़ाव कोलकाता बना, जहां एक गुमनाम सी अभिनेत्री के यहां से 50 करोड़ रुपये की बेनामी नकदी मिली। जिनके ठिकानों से यह बरामदगी हुई, वह ममता सरकार में वरिष्ठ मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख कर्णधारों में से एक रहे पार्थ चटर्जी (Partha Chatterjee) की खासी करीबी और भरोसेमंद लोगों में गिनी जाती रही हैं। ताजा मामला शिवसेना के संजय राउत का है।
वैसे तो जांच एजेंसियों द्वारा ऐसी छापेमारी बहुत सामान्य सी बात रही है, लेकिन शुरुआती दौर की हलचल के बाद उन्हें भुला दिया जाता था। ऐसे मामलों में सीबीआइ और ईडी (ED) द्वारा आरोप सिद्ध करने के कमजोर रुझान को देखते हुए ऐसी तमाम कार्रवाई गंभीर न होकर दिखावटी साबित होती रही। यहां तक कि आरोपपत्र दाखिल करने के बावजूद सुस्त न्यायिक प्रक्रिया के चलते ये मामले जल्द ही जनता की स्मृतियों से भी ओझल हो जाते और फिर उनका कोई खास मूल्य-महत्व नहीं रह जाता।
इससे यही आम धारणा बनी कि जो नेता खुद शीशे के घरों में रहते हों, वे दूसरों की ओर पत्थर न फेंकें। इसी से छनकर 'सब मिले हुए हैं जी' जैसी बातें भी सुनाई पड़ीं। ऐसे में जनता के बीच यह स्वीकार्यता बढ़ती गई कि हमारे समाज में कुछ स्तर पर भ्रष्टाचार है। इसके पीछे व्यापक रूप से चुनावी राजनीति की मजबूरियां रहीं, क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए भारी मात्रा में पैसों की दरकार होती है। अगर नेता जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहें तो जनता को उनसे तब तक कोई शिकायत नहीं होती जब तक कि वे उनसे उगाही या उनका उत्पीड़न न करने लगें।
नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार को मिटाने और घोटाले करने वालों को दंडित करने का वादा करके सत्ता में आए। अपने आठ वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने इस मामले में कुछ प्रगति भी दिखाई है कि उनकी सरकार में कोई घोटाला सामने नहीं आया। उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्य में लोगों को शासन के मोर्चे पर अभूतपूर्व सुधार महसूस हो रहा है और कम से कम सरकार के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार में भारी कमी दिखी है। भाजपा शासित अन्य राज्यों के बारे में भी कमोबेश यही कहा जा सकता है। सरकारी सेवाओं और सुविधाओं को लाभार्थियों तक पहुंचाने के मोर्चे पर भारी सुधार देखने को मिला है। कोविड काल में लोगों को मुफ्त राशन बांटने से लेकर प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजनाएं इसकी पुख्ता मिसाल हैं। इसने तंत्र की साफ-सफाई और खामियों को दूर करने में सरकारी मंशा के प्रति जनता के भरोसे को बहाल किया है।
हालांकि भ्रष्टाचार से जुड़े दूसरे मोर्चे यानी पूर्व में किए गए घपलों-घोटालों पर प्रहार को लेकर कुछ खास होता नहीं दिखा। ईडी और सीबीआइ की मौजूदा सक्रियता इसी खाई को पाटने का प्रयास प्रतीत होती है। जब किसी विपक्षी नेता, खास एजेंडा चलाने वाले एक्टिविस्ट या मीडिया कर्मियों पर छापेमारी होती है तो उसे लेकर 'राजनीतिक बदले की कार्रवाई' का राग छेड़ना बहुत आम है। विपक्षी खेमे की ओर से विरोध जताया जा रहा है कि सरकार जानबूझकर भाजपा विरोधी दलों को निशाना बनाकर उन्हें बदनाम कर उनका उत्पीड़न करने में लगी हुई है। उसका यह भी आरोप है कि इसमें सत्तारूढ़ दल से जुड़े नेताओं को बख्शा जा रहा है। ये आरोप कुछ हद तक वाजिब हो सकते हैं, लेकिन इससे यह तथ्य गौण नहीं होता कि एक गलती से दूसरी गलती को सही ठहराया जा सके।
आम तौर पर यही माना जाता है कि राजनीति के कीचड़ में कोई भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं। चलिए, यह मान भी लिया जाए कि खुद भाजपा के भीतर ऐसे नेता हैं, जिनके दामन पर दाग हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि जिन लोगों पर गंभीर आरोप हैं, उनके विरुद्ध अभियोग नहीं चलाया जा सकता। एजेंसियां भी जनता को समझाने का पर्याप्त प्रयास करती हैं कि ऐसे मामले कितने गंभीर हैं। पार्थ चटर्जी के मामले को ही देखें तो जब नोटों के बंडल की तस्वीरें सामने आती हैं तो जांच एजेंसियों की कार्रवाई उपयुक्त लगती है और जनता में न्याय के प्रति भरोसा बढ़ता है, भले ही उसकी औपचारिक प्रक्रिया कुछ लंबी ही क्यों न खिंच जाए।
इसी मोर्चे पर विपक्षी दलों की दलीलें दम तोड़ रही हैं और वे नजरिये की लड़ाई में पस्त पड़ रहे हैं। कांग्रेस इस मामले पर बखेड़े को अलग ही स्तर पर ले गई। राहुल गांधी से पूछताछ के दौरान उसने बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन किए। यह इसलिए अजीब लगा, क्योंकि उसने पी. चिदंबरम जैसे नेताओं के मामले में तो ऐसा कुछ नहीं किया था, जिन्हें कई दिन तक सीबीआइ हिरासत में भी रहना पड़ा था। इस मुद्दे को राजनीतिक तूल देकर कांग्रेसियों ने यही संकेत दिया कि उनके लिए पार्टी का प्रथम परिवार कानून से ऊपर है। शायद पार्टी ने यह रणनीति अपनाकर भारी भूल कर दी, क्योंकि आज की पीढ़ी किसी भी प्रकार की प्रभुता के विरुद्ध है।
जांच एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर भी कुछ सवाल कायम हैं। एक तो यही कि क्या यह भविष्य में आगाह करने से जुड़ी है? वैसे हाल के दौर में सरकार अपने स्तर पर बेहतर तैयारी और इच्छाशक्ति के साथ सक्रिय दिख रही है, जहां अपना दामन साफ दिखाने का जिम्मा आरोपितों पर है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में आर्थिक अपराधों के मामले में ईडी को और बल प्रदान किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नेताओं और राजनीतिक दलों पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा और वे अपने मतदाताओं को अब हल्के में लेने से बचेंगे।
हालांकि इसमें जनता द्वारा अपने शासकों से जवाबदेही की मांग ही निर्णायक सिद्ध होगी। भारत भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति सरीखी तीसरी दुनिया वाली कार्यसंस्कृति के साथ पहली कतार के देशों में शामिल नहीं हो सकता। इसका दारोमदार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी है कि वह तंत्र की साफ-सफाई के काम में कोई शिथिलता न लाकर भारत को गर्व के साथ अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित करें।
Rani Sahu

Rani Sahu

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