सम्पादकीय

स्वाभाविक ही है जातीय पहचान की भावना : भारतवंशी का ब्रिटिश पीएम बनना, इतिहास के सहारे जुड़ता आत्मीयता का धागा

Neha Dani
30 Oct 2022 1:55 AM GMT
स्वाभाविक ही है जातीय पहचान की भावना : भारतवंशी का ब्रिटिश पीएम बनना, इतिहास के सहारे जुड़ता आत्मीयता का धागा
x
हर सामान्य भारतीय के नाम के पीछे जातीय उपनाम न लगा होता।
ब्रिटिशों से अफ्रीका में अपमानित होकर आए महात्मा गांधी ने दुनिया की एक तिहाई आबादी वाले उनके उपनिवेश आजाद करवाए थे, अब उसी अविभाजित भारत से अफ्रीका पहुंचे एक परिवार के वंशज ने अंग्रेजों का नेतृत्व हासिल किया है। यह बदला नहीं है, यह इतिहास चक्र है। ऋषि सुनक के नाम के साथ ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की घोषणा ने भारत में एक शब्द मीमांसा खड़ी की है, गोत्र संवाद शुरू हुआ है।
इतिहास के विद्यार्थी और खासकर सामाजिक इतिहास के शोधार्थी के रूप में मेरे लिए यह दिलचस्प घटनाक्रम है। यह और भी कमाल है कि हम सुनक को भारतवंशी कहते-मानते हुए खुशी और गर्व से भरे हुए हैं, जबकि अपनी वेबसाइट के 'अबाउट मी' खंड में लंबा व्यक्तिगत, शैक्षणिक व्यवसायिक, राजनीतिक परिचय देते हुए वह भारत का एक बार भी नाम नहीं लेते।
पहले सुनक की ही बात की जाए। सुनक क्या शौनक शब्द का तद्भव रूप है, जो भारतीय परंपरा के ऋषि शौनक के नाम से जुड़ता है? संभवत: उत्तर वैदिक काल में ही उनका नाम ज्ञात होता है। तो पहली बात यह कि पंजाबी खत्रियों की गोत्र परंपरा में मुझे ऋषियों के नाम नहीं मिलते, (कोई मुझे दुरुस्त/ अपडेट करे, तो स्वागत/ आदर रहेगा) जैसे, वाड्रा, ओबेरॉय, भाटिया, सेठी, गेरा, गुजराल, कोहली, भसीन, साहनी, तलवार, भल्ला, महेंद्रू, मल्होत्रा, कौशल, खन्ना, खुराना, सूरी, त्रेहन, टक्कर, आनंद, जग्गी, मनचंदा, टंडन, धवन, चोपड़ा, सिब्बल, सोबती, कक्कड़, सोढ़ी, नरूला, नय्यर, कालरा, अबरोल, आहूजा, बत्रा, बजाज, धीर, दुग्गल, दुआ, कुंद्रा, खरबंदा...।
एक धारणा के अनुसार, खत्रियों के ऋषि गुरु कश्यप हैं। ऐसे में, शौनक से जुड़ाव होना मुश्किल हो जाता है। अगर यह मान भी लिया जाए, तो बताना जरूरी है कि भारतीय ऋषि परंपरा के ऋषि शौनक के पिता का नाम सुनक या शुनक था, तो शौनक से सुनक होना तद्भव या बिगड़ना हुआ या अधिक शुद्धीकरण/मूल की तरफ लौटना? यह भी दिलचस्प है कि खत्री समुदाय में सिख मतावलंबी भी मिलते हैं, और हिंदू भी। जैसे इस देश के तीन खत्री प्रधानमंत्रियों में से गुलजारी लाल नंदा और इंद्र कुमार गुजराल हिंदू रहे हैं, जबकि मनमोहन सिंह सिख।
कहने को जातीय पहचान ढूंढने की प्रक्रिया भी शुरू हुई है, जिसे अप्रगतिशील कहकर प्रथम दृष्टया खारिज किया जा सकता है। सरलीकृत प्रतिक्रिया यह भी हो सकती है कि भारतीय उनकी जाति खोजने लगें। पर इतनी सरलीकृत बात नहीं है।
पहली बात तो यह कि 'सेंस ऑफ बिलोंगिंग्स' खोजना मनुष्य का स्वभाव है। चाहे ऋषि सुनक से यह सेंस ऑफ बिलोंगिंगन्स उनके पुरखों के भारतीय होने से जुड़े, चाहे हिंदू होने से, खत्री होने से, या लहंदा पंजाब ( पश्चिमी पंजाब) का होने से। किसी से हम किसी न किसी रूप में आत्मीयता का धागा जोड़ना चाहते हैं, तो कभी अपने व्यक्तिगत/सामाजिक इतिहास के कारण न जुड़ने की वजह भी ढूंढते हैं। दोनों में ही मुझे मनुष्य की मनोवैज्ञानिक सहजता दिखाई देती है।
हमारे देश में जातीय व्यवस्था करीब पांच हजार साल से असमानता और शोषण का आधार रही है। केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही जातीय विमर्श को समतावादी विमर्श से अलग करके देखते हैं। इस जातीय विमर्श का एक हासिल यह है कि जातीय सरनेम हमारे नाम के साथ लगा रहता है पीढ़ी दर पीढ़ी। याद रहना चाहिए कि यह भारत के सामाजिक इतिहास का विमर्श है, जिसे विस्मृत करना संभव होता, तो हमारे या आपके या हर सामान्य भारतीय के नाम के पीछे जातीय उपनाम न लगा होता।

सोर्स: अमर उजाला

Next Story