सम्पादकीय

स्कूली छात्रों के बस्ते का वजन कम करना है जरूरी

Gulabi
29 Jan 2021 4:17 PM GMT
स्कूली छात्रों के बस्ते का वजन कम करना है जरूरी
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स्कूल मैनेजमेंट का यह कर्तव्य और दायित्व है कि वे सभी छात्रों को पर्याप्त मात्र में गुणवत्तापूर्ण पीने योग्य पानी उपलब्ध कराएं,

हाल ही में दो केंद्र शासित प्रदेशों ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा जारी नई स्कूल बैग नीति, 2020 का पालन करने के लिए सभी स्कूलों को एक परिपत्र जारी किया है। इस परिपत्र के मुताबिक शिक्षकों के लिए यह अनिवार्य है कि वे छात्रों को पहले से ही यह सूचित करें कि किसी विशिष्ट दिवस पर कौन-सी किताबें और नोटबुक स्कूल में लानी हैं। स्कूल मैनेजमेंट का यह कर्तव्य और दायित्व है कि वे सभी छात्रों को पर्याप्त मात्र में गुणवत्तापूर्ण पीने योग्य पानी उपलब्ध कराएं, ताकि छात्रों को अपने घर से पानी की बोतल लाने की जरूरत न हो।


स्कूल बैग नीति, 2020 के मुताबिक स्कूली छात्रों का बैग उनके शरीर के वजन के 10 फीसद से ज्यादा नहीं होना चाहिए, साथ ही पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के लिए स्कूल बैग की परिपाटी खत्म होनी चाहिए। इसके मुताबिक पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के स्कूली बस्ते 1.6 से 2.2 किलोग्राम, तीसरी से पांचवीं के लिए 1.7 से 2.5 किग्रा, छठी और सातवीं के लिए दो से तीन किग्रा, आठवीं के लिए ढाई से चार किग्रा और नौवीं एवं दसवीं के लिए ढाई से साढ़े चार किग्रा वजन के होंगे। वहीं, 11वीं और 12वीं क्लास के बच्चों के बस्ते न्यूनतम साढ़े तीन किग्रा और अधिकतम पांच किग्रा के होंगे।
दरअसल, स्कूली बच्चों के बस्तों के वजन को कम करने की मांग वर्षो से की जा रही थी। वर्ष 1993 में यशपाल समिति ने भी भारत सरकार से बच्चों के बस्ते और पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने की सिफारिश की थी। वर्ष 2006 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी निर्देश दिया था कि स्कूली बच्चों के बस्ते का बोझ बच्चों के वजन का दसवां भाग होना चाहिए। वर्ष 2016 में सीबीएसई ने भी इस बारे में सभी स्कूलों से जरूरी कदम उठाने के लिए कहा था।
हालांकि ऐसा माना जा रहा है कि सरकार की इस नीति के तार मुख्य रूप से मई, 2018 में मद्रास हाई कोर्ट के दिए गए फैसले से जुड़ते हैं। एम पुरुषोत्तमन बनाम भारत संघ मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में यह कह कर सरकार को फटकार लगाई थी कि बच्चे कोई वेटलिफ्टर नहीं हैं। अपने फैसले में कोर्ट ने बच्चों को पढ़ाए जाने वाले विषय, होमवर्क और स्कूली बस्ते पर दिशा-निर्देश दिए थे। हालांकि उस समय सरकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन अब भारत सरकार ने एक नीति के तहत इस व्यवस्था को पूरे देश में लागू करना अनिवार्य कर दिया है।
सवाल यह है कि बच्चों के स्कूली बस्तों का वजन इतना बड़ा मुद्दा क्यों हैं? दरअसल बच्चों के बस्तों में पाठ्यपुस्तकों के अलावा वर्कबुक, नोटबुक, खाने का डब्बा, पानी की बोतल और कई बार विशेष नोटबुक भी होते हैं। इस तरह से छोटे बच्चे औसतन पांच-छह किलो तक भारी बस्तों को अपने कंधे पर ढोने को मजबूर होते हैं। भारी बस्ते की वजह से न केवल बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ता है, बल्कि उनकी सेहत पर भी पड़ता है। एक अध्ययन के मुताबिक अपने वजन का 15 फीसद वजन वाला बस्ता ढोने वाले स्कूली बच्चों के सिर, गर्दन और पसलियों पर बुरा असर पड़ता है। यही कारण है कि शिक्षा विशेषज्ञ, सीबीएसई समेत देश के कई न्यायालय इस संबंध में चिंता जाहिर कर चुके हैं।
इस चिंता की सबसे बड़ी वजह है कि शिक्षा में इस प्रकार की व्यवस्था का असर हमारे मानव विकास पर पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार मानव विकास के जो भी पैमाने हैं, उनमें शिक्षा का विकास भी एक है। हालिया मानव विकास सूचकांक में भारत को 131वें पायदान पर रखा गया है जो साफ तौर पर इशारा करता है कि इस मामले में हम दुनिया के 130 देशों से पीछे हैं। जानकारों का मानना है कि भारत में पढ़ाई के बीच में ही स्कूल छोड़ने के पीछे स्कूली बस्ते का बोझ और होमवर्क का लोड भी कारण हैं। भारत में औसतन 4.5 फीसद बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं। इसके अलावा, छात्रों द्वारा आत्महत्या दर के मामले में भारत अव्वल है। एनसीआरबी यानी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक भारत में प्रति घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। शिक्षा के जानकार स्कूली बस्तों के बोझ और होमवर्क की बढ़ती परिपाटी को भी इसकी बड़ी वजह मानते हैं।
ऐसे में क्या करने की जरूरत है? दरअसल, सरकार स्कूल बैग नीति लाकर बच्चों की समस्याओं का सैद्धांतिक रूप से लगभग 50 फीसद समाधान कर चुकी है। शेष समस्याओं का समाधान करने के लिए कुछ खास पहलुओं पर ध्यान देना होगा। गौरतलब है कि आजादी के बाद हम सात दशक से ज्यादा का सफर तय कर चुके हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक-तिहाई हिस्सा अभी भी निरक्षर है, जबकि कई देश सौ फीसद साक्षरता दर हासिल कर चुके हैं। फिनलैंड, नॉर्वे, अजरबैजान आदि इसके उदाहरण हैं। इन देशों की असाधारण शिक्षा-प्रणाली भारत से बिल्कुल अलग है, जहां स्कूलों में ही किताब रखने के लिए आलमारी होती है।
हमारे देश की शिक्षा प्रणाली कुछ इस तरह से हो गई है कि अधिकांश निजी स्कूल बच्चों को बेहिसाब होमवर्क देते हैं और भारी बस्ते लाने के लिए उन्हें मजबूर करते हैं। किताबों की बेहिसाब संख्या को लेकर भी निजी संस्थानों ने बच्चों में आतंक का माहौल बना रखा है। आए दिन इन निजी संस्थानों की मनमानी की खबरें सुíखयों में रहती हैं। इससे इतर, फिनलैंड के बच्चों पर होमवर्क का बोझ भी नहीं डाला जाता। जाहिर है, शिक्षा में सुधार के लिए निजी स्कूलों पर नकेल कसने के साथ-साथ अभी और कई पहलुओं पर संजीदा होने की जरूरत है। इसके लिए अभिभावक, बुद्धिजीवी और युवा वर्ग से सुझाव आमंत्रित किया जाना चाहिए। बहरहाल, विद्याíथयों से जुड़े तमाम पहलुओं पर सरकार को गंभीर होने की जरूरत है, ताकि शिक्षा का समग्र विकास सुनिश्चित हो सके और मानव विकास के क्षेत्र में भारत एक मिसाल पेश कर सके।


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