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वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली पिछली भाजपा सरकार पर नज़र डालिए
शेखर गुप्ता का कॉलम:
प्रशांत किशोर से हमने पूछा कि आपकी कोई विचारधारा है? क्योंकि वे नरेंद्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी, कांग्रेस-सपा, एम.के. स्टालिन, जगन मोहन रेड्डी, अमरिंदर सिंह तक कई लोगों के लिए काम कर चुके हैं? उन्होंने कहा कि वे विचारधारा के मामले में नास्तिक नहीं हैं, उन्हें वामपंथी रुझान वाला माना जा सकता है। अगर यही सवाल दूसरे नेताओं से करें तो क्या जवाब मिलेगा।
भारतीय राजनीति के तालाब में आज जो भी डुबकी लगा रहा है वह उसकी वाम धारा की ही किसी-न-किसी गहराई में तैर रहा है। कोई यह नहीं कहेगा कि वह दक्षिणपंथी धारा में है। पर नरेंद्र मोदी का क्या जवाब होगा? आपका फौरन जवाब यही होगा कि वे तो दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं। पिछले सात साल से, जबसे भाजपा सत्ता में है, इस पार्टी को और इसके पीछे चल रही वैचारिक ताकतों को व्यापक तौर पर 'दक्षिणपंथी' ही माना जाता है।
लेकिन हमें यह जांचना होगा कि क्या यह तथ्यात्मक रूप से सही है। मैं यह तर्क रखने जा रहा हूं कि मोदी और उनकी भाजपा आज हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी राष्ट्रीय ताकत का नहीं बल्कि वामपंथी हिंदुत्ववाद का प्रतिनिधित्व करती है। वाम-दक्षिण का भेद समय के साथ गड्डमड्ड हो गया है। पिछले करीब सात वर्षों में मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के मामले में जो कदम उठाए, उन पर गौर करें।
वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली पिछली भाजपा सरकार पर नज़र डालिए। उसने बिजनेस की लागत से सरकार को अलग रखने का वादा किया था और एक विनिवेश मंत्रालय का गठन भी किया था। अब जाकर विनिवेश की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं लेकिन इस मोर्चे पर एअर इंडिया जैसे शानदार अपवाद के सिवा कुछ खास नहीं हुआ है।
मसलन एक विशाल पीएसयू छोटे उपक्रम को अधिग्रहीत करता है और सरकार एक बड़े शेयरधारक के रूप में अपने घाटे को संतुलित करती है। एलआईसी या ओएनजीसी के बारे में ही सोचिए। सरकार चाहती है कि वह उस पीएसयू को खरीद ले, जिसमें सरकार विनिवेश करना चाहती है। सरकार को मोटी रकम मिल जाती है।
सरकार जब उन्हें इस पैसे से एसेट्स खरीदने के लिए मजबूर करती है तब ये कंपनियां प्रायः बीमा धारकों या छोटे शेयर धारकों के हित में काम नहीं करती हैं। तथ्य यह है कि इन कंपनियों के बोर्ड इन गैर-सरकारी शेयर धारकों के हितों को सर्वोपरि रखकर ये फैसले नहीं कर रहे हैं। यह वामपंथ की खासियत है, दक्षिणपंथ की नहीं।
वामपंथ दान वाली अर्थनीति, राजस्व के बड़े हिस्से के पुनर्वितरण के लिए बड़ी, महत्वाकांक्षी कल्याणकारी योजनाओं के लिए भी जाना जाता है। मोदी सरकार वास्तव में यही कर रही है- चाहे वह मनरेगा हो या ग्राम आवास, शौचालय निर्माण, उज्ज्वला, किसानों और गरीबों को सीधे भुगतान करने, मुफ्त अनाज देने जैसी योजनाएं।
क्या आपने कभी गौर किया कि इस सरकार के बजटों की विपक्षी दलों की आलोचना कितनी नरम होती रही है? लेकिन यह सबको पता चलता है कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से आज निजी करों का स्तर सबसे ऊंचाई- 44% पर पहुंच चुका है। इसमें करीब 18 फीसदी जीएसटी भी जोड़ दीजिए। वामपंथियों को तो विस्तारवादी, विशाल सरकार ही पसंद होगी।
वाजपेयी सरकार से तुलना करें तो पाएंगे कि उन्हें दिल्ली में घाटा दे रहे लोधी होटल को बेचने में कोई हिचक नहीं हुई। ऐसा ही एक कबाड़ पीएसयू था होटल जनपथ, जिसे बेचा नहीं गया बल्कि वह सरकारी दफ्तरों का सरकारी ठिकाना बन गया है। अशोका होटल के बगल में बनाए गए सम्राट होटल को बहुत पहले ही होटल से सरकारी भवन में तब्दील कर दिया गया था।
हमारे यहां टैक्स का स्तर एक पीढ़ी आगे चल रहा है, सरकार का आकार दो पीढ़ी आगे चल रहा है और बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी सरकारी कंपनियों का 'निजीकरण' एक को दूसरे के हाथ बेचकर करते हैं। सरकार ही फैसला करती है कि पूरे देश में कौन-सी वैक्सीन लगाई जाएगी। निश्चित ही यह अर्थव्यवस्था के मामले में दक्षिणपंथी सरकार नहीं है। इसका दक्षिणपंथ केवल धर्म और राष्ट्रवाद के लिए है। इसलिए हमने मोदी-भाजपा की विचारधारा को वामपंथी हिंदुत्ववादी कहा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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