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सम्पादकीय
जिन्हें हम अपने से अलग समझते हैं, उन्हें समाज से जोड़ना भी हमारी जिम्मेदारी है
Gulabi Jagat
15 April 2022 8:26 AM GMT
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रोज दुनिया में हजारों-लाखों बच्चे जन्म लेते हैं
रश्मि बंसल का कॉलम:
रोज दुनिया में हजारों-लाखों बच्चे जन्म लेते हैं। बड़े होकर समाज का हिस्सा बनते हैं, अपने लायक कोई काम पकड़ते हैं। कॉम्पीटिशन बहुत है, नौकरी मिलना आसान नहीं। लेकिन एक ऐसा ग्रुप है, जिन्हें काम मिलना मुश्किल नहीं नामुमकिन जैसा है। वो ग्रुप जिन्हें हम डिसएबल्ड कहते हैं, जिनके शरीर या दिमाग में कुछ कमजोरी है।
इसलिए ये सुनकर आश्चर्य हुआ कि अमेरिका की कॉफी शॉप चेन 'बिट्टी एंड बो' के 350 एम्प्लायीज में से 90 प्रतिशत डिसएबल्ड हैं। इस कम्पनी के मालिक हैं एक पति-पत्नी, जिनके चार बच्चे हैं। उनमें से दो डाउन सिंड्रोम के साथ पैदा हुए। मां-बाप की एक ही चिंता थी कि आगे जाकर इन बच्चों का क्या होगा? तो एक मकसद से उन्होंने 2016 में पहली कॉफी शॉप खोली।
एक से दो, दो से तीन, आज उनकी ग्यारह आउटलेट हैं। और अब वो मैकडॉनल्ड्स की तरह फ्रैंचाइजी भी दे रहे हैं। जहां भी 'बिट्टी एंड बो' खुलता है, लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कि हमें तो मालूम ही नहीं था कि जिन्हें हम डिसएबल्ड मानते हैं, वो ऐसा रोल निभा सकते हैं। अब हम यहीं कॉफी पीना चाहेंगे, हमें देखकर अच्छा लगता है।
और हां, ये बिजनेस प्रॉफिट कमाता है। ना ही इन्हें एट्रिशन की समस्या है- जो भी नौकरी लेता है, लम्बे समय तक टिकता है। आजकल ये किसी चमत्कार से कम नहीं। ट्रेनिंग जरूर देनी पड़ती है, मगर वो तो वैसे भी देनी पड़ती। एक तरह से इस एक्सपेरिमेंट ने साबित कर दिखाया कि जिन्हें हम अक्षम का लेबल देते हैं, वो सक्षम हो सकते हैं।
इसी तरह डेनमार्क में 'स्पेशलस्टर्न' नाम की आईटी कम्पनी है, जो सिर्फ एस्पर्जर सिंड्रोम से ग्रस्त लोगों को नौकरी देती है। ये एक ऐसी कंडीशन है, जिसमें आपकी आईक्यू तो हाई है, मगर आप अपने में खोए रहते हैं। सोशल स्किल्स ना के बराबर होने की वजह से नौकरी मिलना या रीटेन करना मुश्किल है। तो ऐसे लोगों के साथ कम्पनी फिर बनी कैसे?
'स्पेशलस्टर्न' के मालिक भी एक ऐसे पिता हैं, जिनका बेटा एस्पर्जर सिंड्रोम के साथ पैदा हुआ। पिता आईटी सेक्टर में थे, उन्होंने ऑब्जर्व किया कि लड़का कंसंट्रेशन और डिटेल वाले काम बखूबी करता है। आईटी में जरूरी होती है सॉफ्टवेयर टेस्टिंग, जिसमें यही क्वालिटी चाहिए। और वो काम काफी रिपीटिटिव है, मगर एस्पर्जर सिंड्रोम वालों को वह सूट करता है।
तीसरी कहानी, एक ऐसे नौजवान की जिसका डिसएबल्ड के साथ कोई पर्सनल कनेक्शन नहीं। लेकिन ध्रुव लाकरा को बहरों के लिए दिल में सहानुभूति थी। वो मानते थे कि ये सबसे इनविजिबल कंडीशन है, जिनके लिए कोई अपॉर्च्यूनिटी नहीं। ध्रुव ऑक्सफोर्ड से सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप का कोर्स करने के बाद अपना कोई वेंचर खोलना चाहते थे। मगर आइडिया नहीं मिल रहा था।
एक दिन घंटी बजी। दरवाजे पर कूरियर बॉय ने दस्तक दी थी। उन्होंने साइन किया और पैकेज ले लिया। तब दिमाग में बत्ती जली कि एक मिनट के इस इंटरेक्शन में कोई बातचीत नहीं हुई। ये एक ऐसा काम है, जो एक बहरा भी कर सकता है। इस इनसाइट के साथ उन्होंने खोली मिरेकल कूरियर नाम की कम्पनी, जो आज गरीब वर्ग के लगभग 50 लोगों को रोजगार देती है।
क्योंकि आप एक सोशल कॉज से जुड़े हैं, इसका ये मतलब नहीं कि आप दान मांगने निकले हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनीज़ से कॉम्पीट करके ही मिरेकल कूरियर को बिजनेस मिलता है। इसलिए हमारा काम ए-वन होना चाहिए, यही ध्रुव का मानना है। बस मौका दीजिए, हम करके दिखाएंगे।
ये हुई ना बात। इसी तरह कई छोटे-बड़े इनिशिएटिव देशभर में चल रहे हैं। लेमन-ट्री होटल ग्रुप के 500 से अधिक एम्प्लायीज़ डिसएबल्ड ग्रुप से हैं और अपनी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा रहे हैं। वहीं आगरा में शीरोज़ कैफे एसिड-अटैक से जली हुई लड़कियों को सपोर्ट करने के लिए शुरू की गई है।
इनके चेहरे चाहे आज विकृत हों, मगर उन पर मुस्कान वापस आ गई है। जिन्हें हम अपने से अलग समझते हैं, उन्हें समाज में शामिल करना हमारी जिम्मेदारी है। पुण्य कमाइए, और प्रॉफिट भी।
आप किसी को पैसा दान देते हैं, वो एक दिन रोटी खाएगा। आप किसी को नौकरी देते हैं, वो रोज खाएगा- और सम्मान के साथ। क्या कोई ऐसा काम आपकी दुकान या फैक्टरी या डिपार्टमेंट में है? जरा सोचिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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