सम्पादकीय

बैंकों के निजीकरण का मुद्दा

Subhi
14 Jun 2022 3:49 AM GMT
बैंकों के निजीकरण का मुद्दा
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मुक्त अर्थव्यवस्था के पैरोकारों की दृष्टि में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से सरकारी हिस्सेदारी वापस ले लेना एक स्वागत योग्य कदम हो सकता है, पर यदि इन बैंकों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों के हितों को देखें तो सरकार का ऐसा फैसला तर्कसंगत लगता नहीं है।

विजय प्रकाश श्रीवास्तव: मुक्त अर्थव्यवस्था के पैरोकारों की दृष्टि में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से सरकारी हिस्सेदारी वापस ले लेना एक स्वागत योग्य कदम हो सकता है, पर यदि इन बैंकों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों के हितों को देखें तो सरकार का ऐसा फैसला तर्कसंगत लगता नहीं है।

वर्ष 2021-22 के बजट में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की मंशा जाहिर की थी। बीच में वित्त मंत्रालय के कुछ इस तरह के बयान आए कि इस बारे में सरकार अभी किसी अंतिम फैसले पर नहीं पहुंची है। अब मई के आखिर में कहा गया कि बैंकों के निजीकरण पर काम प्रगति पर है और आने वाले महीनों में इस संबंध में महत्त्वपूर्ण घोषणा की जाएगी।

पिछले वर्षों में जिस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय हुआ, एअर इंडिया को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया, उसी तरह से दो सरकारी बैंकों का निजीकरण होकर रहेगा, इसमें अब शक की कोई गुंजाइश रह नहीं जाती। गौरतलब है कि 1969 में चौदह और 1980 में छह बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। राष्ट्रीयकरण से पूर्व देश में बैंकों की बहुत कम शाखाएं हुआ करती थीं। इनमें से भी अधिकांश महानगरों और बड़े शहरों में ही थीं। इन बैंकों और शाखाओं के ग्राहक वर्ग में मुख्यत: बड़े व्यापारी, उद्योगपति आदि थे। किसानों, मजदूरों और निम्न मध्यम वर्ग की बैंकिंग सुविधाओं तक पहुंच नहीं थी। राष्ट्रीयकरण के बाद देश में बड़ी संख्या में बैंकों की शाखाएं खुलीं। कस्बाई और ग्रामीण इलाकों तथा सुदूर स्थानों पर बैंक शाखाएं खोलने पर जोर दिया गया।

इस बीच विकास विशेषकर ग्रामीण विकास की अनेक योजनाएं इन बैंक शाखाओं के माध्यम से ही लागू की गर्इं। इसका बड़ा लाभ यह हुआ कि महाजनों और साहूकारों द्वारा ग्रामीणों को कर्ज के जाल में फंसा कर शोषण करने की घटनाएं अब काफी हद तक रुक गई हैं, क्योंकि बैंकों के संस्थागत तंत्र से ग्रामीणों, किसानों, कारीगरों और अन्य जरूरतमंदों को कर्ज आसानी से मिल रहा है। जनधन योजना के जरिए एक विशाल समुदाय बैंकिंग तंत्र से जुड़ गया है। जाहिर है, देश के विकास और इसकी वंचित आबादी के सशक्तिकरण में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बड़ी भूमिका रही है।

पर अब बैंकों का निजीकरण बैंकों के विलय से पूरी तरह भिन्न है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बीच विलय के कई चरण पूरे हो चुके हैं। पर इस तरह का कोई ठोस अथवा वैज्ञानिक अध्ययन मौजूद नहीं है कि ऐसे विलय से बैंकों की दक्षता, कार्य कुशलता और ग्राहक सेवा की गुणवत्ता में किसी प्रकार का बदलाव आया है। यह जरूर हुआ है कि कुछ शाखाएं बंद करनी पड़ी हैं और कई जगहों पर दो या तीन शाखाओं को मिला कर एक कर दिया गया है। कर्मचारियों की जरूरत कम संख्या में है, इसलिए इन बैंकों में भर्तियां पहले जितनी बड़ी संख्या में नहीं होतीं। बैंकों के विलय के पीछे सरकार का एक इरादा बड़े बैंक बनाना था, जो दुनिया के बड़े बैंकों में गिने जा सकें। कम से कम अभी तो यह इरादा पूरा हुआ नहीं जान पड़ता।

किसी सरकारी विमानन कंपनी को निजी हाथों में सौंपना और सार्वजनिक क्षेत्र के किसी बैंक का निजीकरण करना एक ही निहितार्थ नहीं रखते, क्योंकि दोनों व्यवसायों में फर्क है। विमान सेवा के उपयोगकर्ताओं की संख्या सीमित होती है, जबकि एक ही बैंक शाखा के हजारों ग्राहक होते हैं। फिर, हमारे देश में विमान यात्रा करने वालों में बहुसंख्यक लोग शहरी आबादी से और उच्च आय वर्ग के हैं, जबकि बैंकों के ग्राहक वर्ग में शहरी, ग्रामीण से लेकर अमीर-गरीब सभी का प्रतिनिधित्व है। जिस एअरलाइंस का विनिवेश सरकार ने किया है, वह वर्षों से घाटे में चल रही थी। जबकि सरकारी बैंकों ने तो घाटा कभी-कभार ही दर्शाया है और ऐसे घाटे की भरपाई बैंक अपने मुनाफे से आसानी से कर सकते हैं। मुक्त अर्थव्यवस्था के पैरोकारों की दृष्टि में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से सरकारी हिस्सेदारी वापस ले लेना एक स्वागत योग्य कदम हो सकता है, पर यदि इन बैंकों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों के हितों को देखें तो सरकार का ऐसा फैसला तर्कसंगत लगता नहीं है।

निजीकरण सरकार के एजंडे का मुख्य विषय है। सरकार की योजना के अनुसार यदि दो और बैंकों का निजीकरण कर दिया जाता है तो इस लक्ष्य के एक बड़े भाग की पूर्ति हो जाएगी। इस निजीकरण के समर्थन में कई तर्क दिए जा रहे हैं। जैसे कि निजी क्षेत्र के बैंकों की तुलना में सरकारी क्षेत्र के बैंकों की लाभप्रदता कम है, इन बैंकों में खराब कर्जों का प्रतिशत ज्यादा है और इनकी उत्पादकता कम है। दरअसल, भारत में एक आम मान्यता यह है कि निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में ज्यादा चुस्त-दुरुस्त है। यदि सरकारी बैंकों को लेकर यही सोच है तो इसमें कुछ भिन्नता नहीं है। यह भी जरूरी नहीं कि इस तरह की हर सोच हर मामले में सही ही हो। सार्वजनिक क्षेत्र में नवरत्न, महारत्न, मिनीरत्न जैसी श्रेणियों में अनेक प्रतिष्ठान हैं जिनके सामने निजी क्षेत्र की कई बड़ी कंपनियों का लाभ भी थोड़ा है। स्पष्ट है, कंपनियां इतना लाभ अपने कुशल संचालन के बूते ही कमाती होंगी।

सरकारी बैंकों की उपलब्धियों और कार्य निष्पादन का मूल्यांकन करते समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे किस माहौल में कार्य कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि इन बैंकों को सरकार की तमाम योजनाओं पर काम करना होता है और सरकार की ओर से दिए गए लक्ष्यों को हासिल भी करना होता है। परिचालन के मामले में जितनी आजादी निजी बैंकों को है, उतनी सरकारी बैंकों को नहीं है। सरकारी बैंक बहुत कम राशि से भी जमा खाता खोलते हैं और छोटे दुकानदारों, मजदूरों, स्वयं सहायता समूहों को कर्ज देते हैं।

अपने संसाधनों से वे एक बड़े समुदाय को सेवा देते हैं। जबकि निजी बैंकों ने बैंक के अधिकांश कार्यों को उन लोगों से कराने की प्रणाली स्थापित की है जो उनके अपने कर्मचारी नहीं हैं। अधिकाधिक सेवाओं के बाहर से करवा कर उन्होंने अपनी लागतों को कम रखा है और इस प्रकार वे ज्यादा लाभ कमा पाते हैं। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के समर्थन में एक तर्क यह दिया जाता है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। यह बात सैद्धांतिक रूप से सही लग सकती है, पर इसे अमली जामा पहनाना मुश्किल है, विशेषकर भारत जैसे देश में जहां आजादी के बाद से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था पर जोर दिया गया है और जहां रोजगार सृजन, औद्योगिक विकास आदि में सार्वजनिक क्षेत्र ने महती भूमिका निभाई है।

विगत एक-डेढ़ दशक में निजी क्षेत्र के बैंकों ने अपनी पहुंच काफी बढ़ाई है। महानगरों और बड़े शहरों के साथ-साथ छोटी जगहों पर अपनी शाखाएं खोली हैं। वर्ष 2017 में सरकार ने वाणिज्यिक बैंकों से अलग, बैंकों की दो नई श्रेणियों के लिए अपनी लाइसेंस नीति की घोषणा की थी। इसमें लघु वित्त बैंक और भुगतान बैंक आते हैं। इन दोनों श्रेणियों के कई बैंक स्थापित किए जा चुके हैं और सभी निजी क्षेत्र में हैं। विलय के बाद देश में सार्वजनिक बैंकों का कारोबार जहां सीमित हुआ है, वहीं निजी बैंकिंग उद्योग अपने पांव तेजी से पसार रहा है। अगर दो सरकारी बैंक निजी क्षेत्र में चले जाते हैं तो यह संतुलन और गड़बड़ा जाएगा।

कारपोरेट घरानों को बैंकिंग लाइसेंस देने के प्रस्ताव को भारतीय रिजर्व बैंक पहले ही खारिज कर चुका है। इस निर्णय में निश्चित रूप से हमारे केंद्रीय बैंक ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया होगा। उचित होगा कि सरकार इस्पात उद्योग या खनन उद्योग या ऐसे किसी अन्य उद्योग से बैंकिंग उद्योग की भिन्नता पर गंभीरता से ध्यान दे और इस व्यावहारिक तथ्य को समझे कि देश को निजी तथा सरकारी दोनों बैंकों की जरूरत है।


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