सम्पादकीय

इसरो की अंतरिक्ष आर्थिकी

Rani Sahu
24 Aug 2023 3:30 PM GMT
इसरो की अंतरिक्ष आर्थिकी
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By: divyahimachal
इसरो अपनी स्थापना के करीब 61 सालों में भारतीय अंतरिक्ष गतिविधियों का सूत्रधार रहा है। यदि आज दुनिया भर में ‘चंद्रयान-3’ की चर्चा है और वह कौतुहल-सा बना है, तो उसमें इसरो के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तमाम इकाइयों की अनथक मेहनत और अत्याधुनिक विज्ञानी तथा प्रौद्योगिकीय मेधा का ही योगदान है। केंद्रीय अंतरिक्ष विज्ञान मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने एक साक्षात्कार में खुलासा किया था कि हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम अर्थव्यवस्था के विस्तार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लेकिन इसरो के सीमित आर्थिक संसाधनों की भी चर्चा की जानी चाहिए। इसरो से अपेक्षाएं हैं कि वह 100 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का आधार बने, लेकिन अमरीका, रूस, चीन, जापान आदि देशों की तुलना में इसरो के संसाधन ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ समान हैं। यदि अमरीका में नासा का बजट 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक है, तो इसरो का बजट 2023-24 में 12,544 करोड़ रुपए तय किया गया था। लक्ष्य एक समान हैं कि चांद पर पांव रखें। सूर्य का मिशन ‘आदित्य एल-1’ कामयाब रहे और ‘गगनयान’ के जरिए मानव को अंतरिक्ष की सैर कराई जाए। हालांकि यह कैसे और कब संभव होगा, रोबोट पर परीक्षण करने के बाद ही इसरो और उसके वैज्ञानिक किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकेंगे। बहरहाल इसरो के बजट का संदर्भ है, तो पहला सवाल यह किया जा सकता है कि 2022-23 के बजटीय आवंटन से करीब 8 फीसदी कम क्यों किया गया? हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। आजकल प्रधानमंत्री मोदी ब्रिक्स जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के दावे करने लगे हैं। भारत सरकार का लक्ष्य है कि इसरो विश्व की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में देश की हिस्सेदारी बढ़ाए। फिलहाल यह मात्र 2 फीसदी है, लेकिन बजट को लेकर सरकार की चिंता गंभीर नहीं है। वित्त वर्ष 2021-22 में भी बजट 12,474 करोड़ रुपए था। आखिर यह ठहराव-सा क्यों है?
अर्थव्यवस्था का संदर्भ है, तो आज करीब 150 निजी स्टार्टअप अंतरिक्ष गतिविधियों को लेकर काम कर रहे हैं। वे इसरो की विज्ञानी एवं प्रौद्योगिकी विशेषज्ञताओं के साथ-साथ उसके बुनियादी ढांचे और डाटा का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या इन गतिविधियों से हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा नहीं मिलता? वैसे अंतरिक्ष गतिविधियों की हमारी अपनी सरकारी विरासत भी है, जिसके तहत पीएसएलवी, जीएसएलवी, एसएसएलवी के जरिए भारत सेटेलाइट लॉन्च करता रहा है। यह इसरो की रोजी-रोटी भी है। भारत जुलाई, 2023 तक 36 देशों के 431 सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेज चुका है। इस काम के जरिए हमने जुलाई, 2022 तक 22.30 करोड़ डॉलर कमाए हैं। भारत दुनिया के 10 देशों में एक है, जो रॉकेट लॉन्च करने में सक्षम है। हम 15 शीर्ष देशों में सम्मिलित देश हैं, जिसके अनेक उपग्रह अंतरिक्ष की विभिन्न कक्षाओं में स्थित हैं, लेकिन वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी मात्र 2 फीसदी है। भारत का लक्ष्य दशक के अंत तक 9 फीसदी का है। एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी का आकलन है कि 2040 तक भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था 40 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है। यही नहीं, भारत की क्षमता 100 अरब डॉलर की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था तक पहुंचने की है, लेकिन उसमें सरकार का सहयोग और समर्थन बेहद जरूरी है। उसके लिए इसरो का पर्याप्त बजट और वैज्ञानिक भी बेहद अनिवार्य हैं, ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम में भी नवाचार किया जा रहा है। वह परिवर्तनकारी है, सिर्फ गिनती के तौर पर विस्तार नहीं पा रहा है। सालों गुजर गए हैं, लेकिन इसरो अपने श्रम-बल और कार्यबल को बढ़ा कर ताकतवर नहीं बना सका है, क्योंकि उसके आर्थिक संसाधन सीमित हैं। यह भी गौरतलब तथ्य है कि अंतरिक्ष कार्यक्रमों और विज्ञान पर पीएचडी करने वाले शोधार्थियों का गिनती भी लगातार घट रही है। यदि ऐसे ही रुझान मौजूद रहे, तो हम महत्वाकांक्षी मिशन को कामयाबी के साथ पूरा करने में नाकाम रहेंगे और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय भी हासिल नहीं कर सकेंगे। ‘चंद्रयान-3’ के ऐतिहासिक अवसर पर कमोबेश प्रधानमंत्री और कैबिनेट को गंभीर मंथन जरूर करना चाहिए। अंतरिक्ष अनुसंधान पर हमारा कुल खर्च अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है, इसलिए इसे बढ़ाया जाना चाहिए।
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