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सम्पादकीय
क्या राजनीति में फिर धमाकेदार वापसी करने वाले हैं यशवंत सिन्हा?
Tara Tandi
27 May 2021 2:16 PM GMT
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बात सन 1988 की है. दिल्ली के पॉश कॉलोनी ग्रेटर कैलाश का एक बंगला. मैंने घंटी बजायी और मुझे अन्दर ड्राइंग रूम में बैठने को कहा गया
जनता से रिश्ता वेवडेस्क | अजय झा बात सन 1988 की है. दिल्ली (Delhi) के पॉश कॉलोनी ग्रेटर कैलाश (Greater Kailash) का एक बंगला. मैंने घंटी (Bell) बजायी और मुझे अन्दर ड्राइंग रूम (Drawing Room) में बैठने को कहा गया. मैंने घड़ी देखी और समय सुबह का ठीक 10 बज चुका था. मैं तय समय में तय जगह पर पहुँच गया था. अन्दर किसी कमरे से जोर-जोर से मंत्रोच्चारण की आवाज़ आ रही थी और अगरबत्ती की खुशबू सारे घर में फ़ैल रही थी. दबे स्वर में मुझे इंतज़ार करने को कहा गया. पूजा लम्बी चली और आधे घंटे तक मैं इंतज़ार करता रहा. इंतज़ार करने के सिवा मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था.
पूजा समाप्त हो चुकी थी. "माफ़ कीजिएगा, आज मेरी पूजा कुछ लम्बी ही हो गयी." सामने मुस्कुराते हुए प्रणब मुख़र्जी (Pranab Mukherjee) खड़े थे, जो साढ़े तीन साल पहले भारत (India) के प्रधानमंत्री (Prime Minister) बनते-बनते रह गए थे और अब गुमनामी की जिंदगी जी रहे थे. "कोई बात नहीं दादा, इंतजार का फायदा यह हुआ कि आज मुझे पता चला कि आप इतने धार्मिक व्यक्ति हैं." मैंने कहा. इंटरव्यू शुरू हुआ और वह बड़ी सहजता और सच्चाई से मेरे सभी सवालों का जवाब बिना हिचक देते रहे और मैं अपने नोट पैड पर लिखता रहा. लगभग आधे घंटे हमारी बात चली. अब मेरे जाने का समय आ गया था. मैंने उनको समय देने के लिए धन्यवाद कहा और जब चलने लगा तो उन्होंने पीछे से पूछा, "यह इंटरव्यू कब छपेगा?"
मैंने उन्हें बताया कि यह इंटरव्यू के रूप में नहीं छपेगा, बल्कि एक फीचर होगा. हमारे अख़बार में एक साप्ताहिक फीचर चल रहा है 'Fade In Fade Out' जिसमे हम उन बड़े लोगों के बारे में लिखते हैं जो कभी बड़ी हस्ती होते थे और अब जनता की नज़रों से ओझल हो चुके हैं.
राजनीति में कोई नेता कभी फेडआउट नहीं होता
प्रणब दा के चेहरे पर मुस्कान बढ़ गयी. "जैसे भी इसका इस्तेमाल करना है करो, पर एक कॉपी ज़रूर भेज देना. और हाँ, याद रखो कि कोई नेता Fade Out नहीं होता, विपरीत परिस्थितियों में वह दो कदम पीछे हट जाता है और अपने सही वक़्त का इंतज़ार करता है. मैं अभी रिटायर नहीं हुआ हूँ." प्रणब दा के ये शब्द और उनका आत्मविश्वास से भरा चेहरा अब भी मुझे 33 वर्षों बाद भी याद है.
सुनने में यह अटपटा और बड़बोलापन ज़रूर लगा. लेकिन कभी इंदिरा गाँधी के करीबी और विश्वासपात्र रहे प्रणब मुख़र्जी का राजनीतिक सफ़र कहीं रुक गया था. इंदिरा गाँधी के निधन के बाद सबसे वरिष्ठ मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री बनने की बारी प्रणब मुख़र्जी की थी. पर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने परंपरा को तोड़ते हुए राजीव गाँधी की प्रतीक्षा की और बिना उनके कांग्रेस संसदीय दल के नेता चुने गए. उस वक्त एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई जो उस समय मंत्री भी नहीं था.
राजीव गाँधी ने प्रणब मुख़र्जी को मंत्री पद से हटा दिया और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया. प्रणब दा इस अपमान को सह नहीं सके, 1986 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी खुद की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया, 1987 के पश्चिम बंगाल चुनाव में उनकी पार्टी कहाँ गायब हो गयी पता भी नहीं चला, और अब वह अपने ग्रेटर कैलाश के बंगले में पूजा-पाठ करते हुए सही समय की प्रतीक्षा में थे.
सही कहा था प्रणब दा ने. पूजा का ही शायद असर था कि जल्द ही उनका समय बदलने लगा. 1989 में उनका राजीव गाँधी से सुलह-समझौता हो गया और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का विलय कांग्रेस पार्टी में हो गया. राजनीति में वह फिर से सक्रिय होने लगे थे. राजीव गाँधी की हत्या के बाद जब केंद्र में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार बनी तो प्रणब मुख़र्जी की वापसी हुई. पहले उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया और बाद में विदेश मंत्री. धीरे-धीरे सोनिया गाँधी के साथ रिश्ता सुधरता गया, पर इतना भी नहीं कि 2004 में वह प्रणब मुख़र्जी को प्रधानमंत्री बना देती. वह फिर से केंद्र में मंत्री बने. हालांकि सरकार और कांग्रेस पार्टी में उनके अनुभव और सुलझे हुए विचारों का सम्मान होता था. वह प्रधानमंत्री तो नहीं बने पर 2012 में देश के राष्ट्रपति ज़रूर चुने गए.
कांग्रेस मुख्यालय में उनसे मुलाकात होती रहती थी, पर उनसे अकेल में बात करने का समय एक बार फिर तब आया जब वह मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री थे. मैंने उन्हें 1988 के इंटरव्यू की याद दिलाई. "मैंने ठीक ही कहा था ना कि वक़्त बुरा हो सकता है पर नेता मरते दम तक Fade Out नहीं होता." प्रणब मुख़र्जी ने यह साबित कर दिया था.
यशवंत सिन्हा की भी है यही कहानी
प्रणब मुख़र्जी की तरह ही बीजेपी में भी एक बड़े नेता होते थे, यशवंत सिन्हा. प्रणब मुख़र्जी की ही तरह वह केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपयी की सरकार थी तो वह वित्त मंत्री और विदेश मंत्री पद पर रहे थे. जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात चल रही थी तो यशवंत सिन्हा लाल कृष अडवाणी के खेमे में थे और मोदी का विरोध करते दिखे. जब बीजेपी मोदी के नेतृत्व में चुनाव जीत गयी और मोदी ने सरकार का गठन किया तो मंत्रिमंडल में यशवंत सिन्हा का नाम नहीं था.
धीरे-धीरे वह मोदी और सरकार के आलोचक बन गए, बीजेपी छोड़ दिया और राजनीति के अंधियारी गलियों में भटकते दिखे. यदाकदा सरकार की आलोचना करने के कारण उनका नाम अख़बारों में छप जाता था. लगने लगा था कि अब उनका राजनीतिक सफ़र ख़त्म हो चुका है. पर पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान यशवंत सिन्हा का नाम एक बार फिर से सामने आया. 13 मार्च को चुनावों के बीच वह तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए.
क्या तृणमूल कांग्रेस उन्हें राज्यसभा भेजेगी?
तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हो गए थे और ममता बनर्जी जनता को सन्देश देना चाहती थी कि उनके साथ बीजेपी के पूर्व बड़े नेता हैं. सिन्हा ने बीजेपी की हार और तृणमूल कांग्रेस के जीतने का दवा किया, और पश्चिम बंगाल में ऐसा ही हुआ. चुनाव समाप्त हो चुका है और यशवंत सिन्हा की तृणमूल कांग्रेस में उपयोगिता अब खास बची नहीं है. तो क्या यह मान लिया जाए कि एक बार फिर से वह Fade Out होने वाले हैं? अगर प्रणब दा की बात याद करें तो हो सकता है कि ज़ल्द ही यशवंत सिन्हा की वापसी हो सकती है. पश्चिम बंगाल से अभी राज्यसभा के दो सीट रिक्त हैं.
दादा की बात को अब दीदी ही सही साबित कर सकती हैं, अगर यशवंत सिन्हा को पश्चिम बंगाल से राज्यसभा के लिए चुन लिया जाए तो. शायद यह संभव भी है और तृणमूल कांग्रेस की जरूरत भी. डेरेक ओ ब्रायन के सिवाय राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस का कोई ओजस्वी वक्ता नहीं है. चूंकि दीदी की अब तमन्ना केंद्र की राजनीति में दबदबा बनाने की है तो इस लिहाज से उन्हें दिल्ली में और संसद में एक ऐसे नेता की ज़रुरत है जो उनके इशारों पर मोदी सरकार की बखिया उधेड़ने की क्षमता रखता हो. इस कसौटी पर यशवंत सिन्हा खरे उतरते हैं.
देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रणब मुख़र्जी की ही तरह यशवंत सिन्हा भी गुमनामी के गलियारों से देश की राजनीति में धमाकेदार वापसी करेंगे या फिर उनकी टिमटिमाती लौ मोदी लहर में बुझ जायेगी.
Tara Tandi
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