सम्पादकीय

क्या स्कूल-कालेजों में लड़कियों का हिजाब पहनना इतना अहम मुद्दा है कि वह राष्ट्रीय विवाद और वैश्विक ध्यानाकर्षण का केंद्र बन जाए?

Gulabi
22 Feb 2022 3:02 PM GMT
क्या स्कूल-कालेजों में लड़कियों का हिजाब पहनना इतना अहम मुद्दा है कि वह राष्ट्रीय विवाद और वैश्विक ध्यानाकर्षण का केंद्र बन जाए?
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अतीत से लेकर वर्तमान तक इस्लामिक जगत में हिजाब पहनना कभी अनिवार्य नहीं रहा
विवेक काटजू। अतीत से लेकर वर्तमान तक इस्लामिक जगत में हिजाब पहनना कभी अनिवार्य नहीं रहा। सऊदी अरब सहित अरब के खाड़ी देशों में महिलाएं पहले से ही हिजाब के साथ-साथ अमूमन बुर्का भी पहनती आई हैं। अफगानिस्तान में तो वे महिलाएं भी पारंपरिक रूप से हिजाब पहनती आई हैं, जो भले ही बुर्का न पहनती हों। हालांकि तुर्की जैसे कुछ देशों में सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध है। यह परंपरा महान तुर्क नेता कमाल अतातुर्क द्वारा 1928 में तुर्की को पंथनिरपेक्ष गणतंत्र घोषित करने के साथ आरंभ हुई। मौजूदा राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के राज में तुर्की आधिकारिक रूप से तो पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बना हुआ है, लेकिन वहां धार्मिक कट्टरता बढ़ी है और इसी कड़ी में हिजाब से प्रतिबंध हटा लिया गया है। यहां तक कि एर्दोगन की पत्नी भी हिजाब पहनती हैं।
पिछली सदी के छठे दशक से मिस्र में हिजाब पहनने वाली बहुत कम महिलाएं दिखती थीं। जब 1977-78 के दौरान मैं काहिरा में था तब स्कूल-कालेज जाने वाली ऐसी लड़कियां कम ही दिखती थीं, जिन्होंने हिजाब पहना हो। हालांकि 1979 में ईरान में आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामिक क्रांति और सऊदी अरब द्वारा कट्टर बहाबी विचारधारा को बढ़ावा देने की कवायद ने मुस्लिम जगत में रूढि़वादिता बढ़ाने का काम किया, जिसमें महिलाओं का पहनावा भी शामिल है। इसी कारण पिछले चार दशकों से कई इस्लामिक देशों में हिजाब का चलन आम हुआ है। जो महिलाएं पहले हिजाब नहीं पहनती थीं, वे भी अब इसे पहनने लगीं। इसे इस्लामिक पहचान से जोड़ दिया गया। 1990-93 के दौरान अपने मलेशियाई प्रवास के दौरान कुआलालंपुर में एक स्थानीय मित्र ने मुझे बताया कि उनके देश मे उन स्थानों में भी इसे अपना लिया गया, जहां इसका आम चलन नहीं था। स्पष्ट है कि समकालीन दौर में हिजाब धीरे-धीरे इस्लामिक पहचान का हिस्सा बनता गया। यही कारण है कि कर्नाटक के हालिया हिजाब विवाद को लेकर इस्लामिक जगत में कुछ प्रतिकूल टिप्पणियां सामने आईं। इसने पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश को भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने का अवसर दे दिया। तीन तलाक के मामले में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं मिली थी, क्योंकि ऐसी कुप्रथा पर कई मुस्लिम देशों में ही प्रतिबंधित है और तमाम ने तो उस पर रोक के लिए बाकायदा कानून भी बनाए हैैं। ऐसे में तीन तलाक की समाप्ति के पक्ष में जो तर्क दिए गए, वे कक्षाओं में हिजाब पर प्रतिबंध के लिए नहीं दिए जा सकते।
हिजाब विवाद पर अब अदालत में सुनवाई हो रही है। अदालत इस पर कानूनी रवैया अपनाएगी, परंतु विधिक निर्णय सभी सामाजिक मुद्दों का समाधान करने में संभव नहीं होते। विशेषकर उन मुद्दों का जो समाज के विभिन्न वर्गों की सामाजिक पहचान से संंबंधित हों। ऐसी पहचानें भाषा, खानपान, पहनावा और जीवन के कई अन्य पहलुओं के आधार पर परिभाषित होती हैं। समय के साथ ये परिवर्तित हो जाती हैं, किंतु ऐसे बदलाव थोपे नहीं जा सकते। यदि इसके लिए दबाव बनाया जाएगा तो प्रतिरोध स्वाभाविक होगा। ऐसा प्रतिरोध सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ सकता है और राजनीतिक गतिविधियों में यह झलकने भी लगा है। इसीलिए भारत जैसे व्यापक विविधता वाले देशों में राजनीतिक एवं सामाजिक नेताओं के लिए आवश्यक हो जाता है कि वे संयम और सतर्कता के साथ काम करें ताकि उदार नीतियां सुनिश्चित की जा सकें। इसके लिए बहुत बुद्धिमानी आवश्यक है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह तय किया है कि विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचे। इसीलिए उन्होंने सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का मंत्र दिया है। इसी क्रम में सबका विश्वास हासिल करने के लिए जरूरी है कि प्रत्येक समुदाय इसे लेकर आश्वस्त हो कि उसकी पहचान को भी सम्मान मिले। सामाजिक शांति, सद्भाव और स्थायित्व कायम रखने का यही तरीका है।
किसी भी देश को प्रगति और विश्व में ऊंचा कद हासिल करने के लिए सामाजिक स्थायित्व अपरिहार्य है? सामाजिक रूप से विभाजित और खंडित देश बाहरी और आंतरिक चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता। भारत तो वैसे ही वर्तमान में कई गंभीर कूटनीतिक चुनौतियों से दो-चार है। भारत के समक्ष ऐसी सबसे बड़ी चुनौती तो चीनी आक्रामकता ने पेश की हुई है। वहीं पाकिस्तान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता। इस दुष्प्रचार की काट भी जरूरी है। उधर रूस और यूक्रेन के मसले पर बढ़ती तनातनी ने भी भारत के लिए कूटनीतिक जटिलताएं बढ़ा दी हैं। इन चुनौतियों से पार पाने के लिए भारतीय कूटनीति को राजनीतिक बिरादरी की एका और सामाजिक शांति एवं सद्भाव से सहयोग चाहिए होगा। ऐसे में सामाजिक स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए पूरे देश और खासतौर से राजनीतिक तबके को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या हिजाब विवाद को तूल देना चाहिए और यदि कुछ वर्ग इसे बढ़ावा दे रहे हों तो उनसे किस प्रकार निपटा जाए।
एक स्वतंत्र एवं संप्रभु देश होने के नाते यह भारत को ही तय करना है कि वह अपने आकलन, कानूनों और संविधान के अनुरूप नीतियां बनाए। किसी आंतरिक अथवा बाहरी दबाव या आलोचना से भारत का नीति-निर्माण प्रभावित नहीं होना चाहिए। भारतीय राष्ट्र जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर भी यही बात लागू होती है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या स्कूलों में लड़कियों का हिजाब पहनना इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि यह राष्ट्रीय विवाद और वैश्विक ध्यानाकर्षण का केंद्र बन जाए। यदि कुछ राजनीतिक तत्व इसकी आड़ में राज्य सरकार को उकसाना चाहते थे तो क्या यह कहीं बेहतर नहीं रहता कि उनसे त्वरित एवं राज्य के स्तर पर ही उचित रूप से निपट लिया जाता? तब भारत विरोधी तत्वों को मौजूदा सरकार को कथित मुस्लिम विरोधी रूप में पेश करने की गुंजाइश नहीं मिलती। भारत के आधिकारिक प्रवक्ता ने भले ही ऐसे सुनियोजित आरोपों पर विस्तृत बयान दे दिया हो, लेकिन यह स्वीकार करना ही होगा कि कुछ वीडियो ऐसे आए, जिन्होंने बड़ा नुकसान किया। ऐसे ही एक वीडियो में कुछ लड़के हिजाब पहने एक लड़की को घेरे हुए हैं। ऐसी छवियों को विस्मृत करना आसान नहीं होता। वास्तव में यह बहुत ही संवेदनशील समय है और इसमें सभी राजनीतिक एवं सामाजिक नेताओं को भारत को सामाजिक रूप से एकीकृत रखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
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