सम्पादकीय

क्या नए कृषि कानूनों में सचमुच छुपा है किसानों की समृद्धि का राज!

Gulabi
31 Jan 2021 4:02 PM GMT
क्या नए कृषि कानूनों में सचमुच छुपा है किसानों की समृद्धि का राज!
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कृषि कानूनों (Farm Act) का विरोध थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. सरकार भी कृषि कानूनों के फायदे की बात

कृषि कानूनों (Farm Act) का विरोध थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. सरकार भी कृषि कानूनों के फायदे की बात अब तक किसानों को समझाने में नाकाम रही है. क्योंकि जब विरोध इतना तेज है तो दो ही बातें हो सकती हैं. एक, कृषि कानूनों में ही कोई गड़बड़ी है जिस वजह से किसानों ने इसे जीने-मरने का प्रश्न बना लिया है. दूसरा, कृषि कानूनों में थोड़ी बहुत कमियों को छोड़ कर दरअसल किसानों के फायदे की बात है जो किसानों को ठीक से बताने की ज़रूरत है.


2016 में बरेली में अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा कि हम 2022 तक किसानों की आय दुगुनी कर देंगे. यानी इसका मकसद सरकार के नजरिए से यह है कि किसान जो अब तक पुराने ढर्रे से खेती करते आ रहे हैं उन्हें खुले बाजार से जोड़ना. ताकि जिस तरह से अन्य उत्पादन के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्द्धा है उसी प्रतिस्पर्धा में कूद कर अगर वो आगे बढ़ना चाहें तो उनको अवसर देना.

कृषि कानून और उनके फायदे

मुख्य रूप से कृषि कानूनों में तीन ऐक्ट हैं, जिनमें पहला है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम -2020 {The Farmers Produce Trade and Commerce (promotion and facilitation) Act, 2020} दूसरा है, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 {The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement on Price Assurance and Farm Services Act,2020} और तीसरा है, आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020 {The Essential Commodities (Ammendment) Act 2020}.

यह ऐक्ट दरअसल किसानों को कृषि उत्पाद बाजार समिति (Agricultural produce market committee-APMC) में अपनी उपज बेचने की सुविधाएं उपलब्ध करवाता है. APMC को आम बोलचाल की भाषा में अनाज मंडी या सब्जी मंडी कहते हैं. इसे किसानों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए बनाया गया था. साहूकार किसानों से उनकी उपज खेतों में ही ब्याज के नाम पर ना छीन सकें इसलिए प्रावधान किया गया कि किसानों को अपनी फसल स्थानीय मंडियों में लाकर ही बेचना होगा. यहां बैठे हुए थोक बाजारी उनसे उनकी उपज खरीदा करते हैं. वहां कमीशन एजेंट्स होते हैं जो किसानों और व्यापारियों को इस खरीद-बिक्री में मदद करते हैं.
लेकिन अब इस नए ऐक्ट के तहत किसान मंडियों से बाहर भी अपना अनाज बेच सकेंगे. हालांकि इसके लिए वो मजबूर नहीं हैं, वो चाहें तो अपनी उपज मंडियों में बेचें. लेकिन जो अपनी उपज को अच्छे दामों में खुले मार्केट में बेचना चाहें तो इसके लिए वो आज़ाद हैं. अब वो चाहें तो अपने खेतों के पास ही किसी व्यापारी को भेज दें या चाहें तो किसी मिल या फैक्ट्री या वेयरहाऊस में जाकर बेच लें. यानी किसानों को जहां ज्यादा रेट मिले वो वहां अपनी उपज बेचने के लिए स्वतंत्र हैं. APMC में माल बेचने में एक और समस्या है. इसका संबंध राज्य के किसानों से है. अगर दूसरे राज्यों में किसी उपज की मांग ज्यादा है और वहां किसी किसान को अच्छे दाम मिलने की उम्मीद है तो वो APMC के माध्यम से ऐसा नहीं कर सकता है. लेकिन अब किसान दूसरे राज्यों में भी और किसी एक्सपोर्टर के माध्यम से या ऑनलाइन ट्रेडिंग का सहारा लेकर विदेशों में भी अपनी उपज बेच सकता है. यानी नए ऐक्ट में तो फायदा ही फायदा है. फिर क्यों समझ नहीं आ रही है किसानों को यह बात?

बिचौलिए हटने से किसानों को फायदा ही फायदा

नए कृषि कानूनों में सबसे अच्छी बात यह है कि वो सीधे अपनी उपज मार्केट में बेच सकते हैं. उसे कमीशन एजेंट या बिचौलिए की जरूरत अब नहीं है. जबकि अभी होता यह है कि बहुत सारे किसानों से कोई अमीर किसान उपज खरीद लेता है उसे वो एपीएमसी मार्केट में ले जाता है. वहां उसके कमीशन एजेंट बंधे होते हैं जो थोक व्यापारियों से उसकी उपज बिकवाने में मदद करते हैं. फिर वहां से वे व्यापारी रिटेल मार्केट में माल को बेचते हैं. इन सब प्रक्रियाओं से होते हुए कोई कृषि उपज एक शहरी उपभोक्ता तक 40 रुपए में मिल रही है तो उसमें किसानों को यकीन मानिए सारा खर्च और रिस्क उठाकर 5 रुपए से ज्यादा नहीं मिला है.

किसान क्यों नहीं उस उपज को सीधे मार्केट में बेच कर कम से कम 20 रुपए कमाए? और क्यों नहीं शहरी उपभोक्ता भी उस कृषि उपज को 20 रुपए में खरीद कर अपने 20 रुपए बचाए? बिचौलियों की वजह से किसी कृषि उपज का दाम बढ़ रहा है तो नए कृषि कानूनों के माध्यम मे उस पर नियंत्रण की व्यवस्था भी हो रही है. यहां तक कि इस कानून में यह भी प्रावधान है कि किसी भी राज्य की कोई भी सरकार इस खुली खरीद-बिक्री पर किसी तरह का कोई टैक्स नहीं लगाएगी.

कॉन्ट्रैक्ट खेती क्या किसानों के हित में नहीं है?

कृषि कानूनों का विरोध करने वाले किसानों की चिंता खास कर दूसरे एक्ट को लेकर है, जिसमें कॉन्ट्रैक्ट खेती को अनुमति दी गई है. यानी कोई पहले ही किसानों को पेशगी रकम देकर किसी खास कृषि उपज को उगाने के लिए प्रेरित करे और उपज का मूल्य तय कर ले. इसके विरोध में तर्क है कि पूंजीपति सस्ती में कोई उपज खरीद लेंगे और अपने भंडारण क्षमता के दम पर स्टोर कर लेंगे और जब मार्केट में रेट बढ़े तब किसानों को अपनी उपज बेचने का अवसर नहीं रह जाएगा. पूरा फायदा पूंजीपति उठाएंगे. इससे शहरी आम आदमी भी पिसेगा. क्योंकि उपज को स्टॉक करके रखने को सरकार ने अनुमति दे दी है.

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लेकिन बारीकी से देखें तो दूसरे ऐक्ट में ही प्राइस एश्योरेंस की बात की गई है. यानी किसनों ने अपने कॉन्ट्रैक्ट किसी के साथ जो रेट तय किया है उसमें बाद में कोई व्यापारी उससे मुकर नहीं सकता. जिस प्राइस में कोई किसान कॉन्ट्रैक्ट करता है, उसकी उसे गारंटी है. साथ ही कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में एक साल से लेकर पांच साल तक दोनों की सहमति के हिसाब से एग्रीमेंट तय होगा. किसान अगर ना चाहे तो वो कॉन्ट्रैक्ट आगे ना बढ़ाए, उसकी मर्जी है. किसानों के हक में यह भी बात है कि वो हर तरह के एग्रीमेंट कर सकता है. वो चाहे तो पचास प्रतिशत गारंटी रकम तय कर ले और पचास प्रतिशत फसलों पर यह तय कर ले कि फसल तैयार होने के बाद उस वक्त का जो बाजार मूल्य होगा वो उसे मिले.

एक और बात, कम पढ़े-लिखे किसानों को कई व्यापारी एग्रिमेंट के दांव-पेच में उलझा न सके इसके लिए केंद्र सरकार मॉडल कॉन्ट्रैक्ट पेपर भी जारी कर सकती है और गाइडलाइंस भी तय कर सकती है इसलिए किसानों को घबराने की जरूरत नहीं है.

MSP का विवाद क्या है?

आंदोलनकारियों का तर्क है कि नए कृषि कानूनों को लाकर सरकार पिछले दरवाजे से MSP हटाने की साजिश रच रही है. MSP का मतलब होता है न्यूनतम समर्थन मूल्य. यानी किसानों की उपज को मिलने वाली मिनिमम प्राइस की गारंटी जो किसानों को मिलेगी ही. चाहे बाजार में उस उपज का मूल्य कुछ भी हो, किसानों को एक तय मूल्य से कम में माल बेचने की मजबूरी नहीं है और उस मूल्य की गारंटी सरकार देती है और सरकार जो मूल्य तय कर देती है उससे कम में एपीएमसी में बोली लगती ही नहीं है उससे ऊपर ही बोली लगती है.

पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी के किसानों का ही ज्यादा विरोध क्यों?

MSP मुख्यत गेहूं और चावल सहित सिर्फ 23 उपज पर ही मिलता है. फल, फूल, पशु, डेयरी उत्पादों पर यह नहीं मिलता. यानी एमएसपी का फायदा उन्हीं किसानों को ज्यादा मिलता है जिनके खेतों में गेहूं और चावल ज्यादा उगाए जाते हैं. यही वजह है कि इस आंदोलन में ज्यादा पंजाब और हरियाणा के किसान ज्यादा शामिल हो रहे हैं. किसान कहते हैं कि गारंटी लिख कर दो कि एमएसपी नहीं हटाई जाएगी. सरकार का कहना है कि कृषि कानूनों में एमएसपी का जिक्र ही नहीं फिर किसानों को यह गलतफहमी क्यों है कि हम एमएसपी हटाने जा रहे हैं.

लेकिन व्यावहारिक तौर पर होता यह है कि छोटा किसान जब अपनी उपज लेकर एपीएमसी मार्केट में पहुंचता है तो उसे 'कल आना या परसों आना' कह कर वापस भेज दिया जाता है. इसलिए छोटे किसानों को एमएसपी प्राइस का फायदा मिलता ही नहीं है. यह फायदा उठाते हैं बड़े किसान जिनका एपीएमसी मार्केट में दबदबा होता है और जो छोटे किसानों से कम रेट में उपज खरीद कर एपीएमसी में वो माल बेचते हैं. भ्रष्टाचार इतना ज्यादा है कि जो खराब अनाज हैं उसकी खरीदारी हो जाती है और अच्छे अनाजों को खुले मार्केट में बेच दिया जाता है और उससे मिलने वाली रेवड़ियां थोक व्यापारी, एफसीआई के सरकारी अधिकारी, कमीशन एजेंटों और दबंग किसानों में बंट जाती हैं. नए कृषि कानूनों में इस शोषण से ही छोटे किसानों को बचाने की कोशिश की जा रही है.

महाराष्ट्र के किसानों का विरोध समझ से परे

अचरज की बात यह है कि कृषि कानूनों का विरोध महाराष्ट्र के किसान भी कर रहे हैं. जबकि महाराष्ट्र की विलासराव देशमुख सरकार की कांग्रेस सरकार के वक्त ही ऐसे कई प्रावधान लाए गए थे जो इन कृषि कानूनों में भी हैं. जैसे महाराष्ट्र के किसानों को ओपन मार्केट में अपनी उपज बेचने की छूट दे दी गई थी. एपीएमसी के अलावा प्राइवेट मंडियां स्थापित कर दी गई थीं. लेकिन उसका अनुभव महाराष्ट्र के किसानों के लिए अच्छा नहीं रहा. 2011 से 2014 तक आईटीसी कंपनी सोयाबीन खरीदने इसलिए आई क्योंकि उस वक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में सोयाबीन के दाम ज्यादा थे. लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन के दाम गिरे तो वो भाग गई. किसान सोयाबीन उगाता रहा और अनिश्चितता के भंवर में फंसता रहा. महाराष्ट्र के आंदोलनकारी किसान एमएसपी के विस्तार की मांग कर रहे हैं. कृषि एक्सपर्ट विजय जवानदिया सवाल करते हैं कि एक भी ऐसा देश बताएं जहां सरकार की मदद के बिना किसान खुशहाल हैं? लेकिन यहां तो सरकार ओपन मार्केट के भरोसे किसानों को छोड़ रही है.

जवाब में सरकार का तर्क है कि अगर कहीं रेगुलेटरी ठीक तरह से नहीं हुई है तो इसका मतलब यह नहीं कि नीतियों पर सवाल उठाया जाए. अभी से कयास लगाना उचित नहीं है. जब नियमों का कार्यान्वयन सही तरह से शुरू हो जाएगा तो किसानों की शिकायतें खत्म हो जाएंगी और किसानों के साथ मनमानी नहीं हो इसीलिए तो दोनों पार्टियों की सहमति से एग्रीमेंट का प्रावधान रखा गया है.

जमाखोरी बढ़ेगी? शहरी आम आदमी भी पिसेगा?

कृषि कानूनों में खास कर तीसरे एक्ट में यह प्रावधान है कि अगर किसी के पास भंडारण की क्षमता है तो वो कृषि उपजों का स्टॉक अपने पास जमा कर सकता है. खाने पीने की चीजों को भी आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. आंदोलनकारियों का तर्क है कि यह बेहद खतरनाक कदम है. इससे जमाखोरी बढ़ेगी और उससे महंगाई बढ़ेगी और उसका नुकसान आम शहरी वर्ग को भी भुगतना पड़ेगा. ऐसा प्रावधान है कि मार्केट में किसी उपज का दाम अगर 100 प्रतिशत तक बढ़ जाए तभी सरकार व्यापारियों पर दबाव डालने के लिए हस्तक्षेप करेगी वरना नहीं और जल्दी सड़ जाने वाली उपज में 50 प्रतिशत दाम बढ़ने की स्थिति में ही सरकार हस्तक्षेप करेगी. आंदोलनकारियों का तर्क है कि इससे जमाखोरी बढ़ेगी जिससे चीजों के दाम बढ़ेंगे और आम आदमी को भी महंगाई का सामना करना पड़ेगा.

इस पर सरकार का तर्क यह है कि देश अब अनाजों का निर्यात करता है इसलिए अनाज की कमी अब पहले जैसी रही नहीं कि इन्हें आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में रखा जाए और आपातकालीन परिस्थिति में सरकार को हस्तक्षेप करने का हक है. वस्तुस्थिति यह है कि देश में भंडारण की क्षमता कम होने की वजह से भारी मात्रा में अनाज सड़ जाते हैं, या चूहे खा जाते हैं या उनमें कीड़े लग जाते हैं या खुले में रखे जाने की वजह से बरसात में बह जाते हैं. अगर व्यापारी अपने भंडारण सुविधा की बदौलत उन अनाजों के सड़ने-गलने से रोक सकेंगे तो इससे तो उपज की कमी की बजाए उपलब्धता बढ़ेगी जिससे महंगाई भी नियंत्रित होगी और किसानों के साथ जबर्दस्ती थोड़ी ना है, उन्हें तो पूरी छूट है कि वो अपने माल किसी और को बेचे, जहां उसे सही भाव मिले, वहां बेचे. सरकार का तर्क है कि अगर कोई फूड प्रोसेसिंग यूनिट हैं जैसे आचार बनाने वाली कंपनी, दूध उत्पाद तैयार करने वाली कंपनी पापड़ उद्योग है तो उन्हें उपज को स्टोर करने से कैसे रोका जा सकता है

विवादों के निपटारे का तरीका किसान विरोधी है क्या?

किसानों ने अगर किसी व्यापारी को अपना माल बेचा और उसके साथ छल हो गया. वादे के हिसाब से उसे पैसे नहीं दिए गए. खरीदने वाली पार्टी मुकर गई या कोई भी अन्य तरह का विवाद हो तो किसान के पास रास्ता क्या है? आंदोलनकारी किसानों का तर्क है कि इसमें कोर्ट की शक्ति छीन कर एसडीएम और कलेक्टरों को दे दी गई है.

कृषि कानूनों में विवादों को सुलझाने का जो प्रावधान है उसके तहत पहले एसडीएम और विवाद ना सुलझने पर कलेक्टर दोनों पक्षों की बात सुनकर विवादों का निपटारा करेंगे और उनके पास सिविल कोर्ट की शक्तियां होंगी. एसडीएम तीस दिनों के अंदर विवाद सुलझाएगा और अगर बात कलेक्टर तक कई तो उसके पास भी तीस दिनों की मोहलत होगी यानी कुल दो-तीन महीने में विवादों का निपटारा हो जाएगा. आंदोलनकारियों का तर्क है कि एसडीएम और कलेक्टरों को पैसों या किसी और तरीके से प्रभावित किया जा सकता है. कमजोर किसान की सुनवाई कोर्ट में ही ठीक तरह से हो सकती है. लेकिन सरकार का तर्क है कि कोर्ट में कामों का बोझ इतना ज्यादा है कि किसानों को वहां तारीख पे तारीख ही मिलेंगी समाधान मिलते-मिलते बहुत देर हो जाएगी. लेकिन फिर भी सरकार ने कोर्ट का रास्ता खुला रखने का आश्वासन दिया है.

राजनीतिक दलों की राय उलझनें बढ़ाने वाली

कृषि कानूनों को लेकर राजनीतिक दलों में भी कंफ्यूजन है. लोकसभा में शिवसेना में पक्ष में वोटिंग की तो राज्य सभा में सदन से बाहर निकल गई. एनसीपी जो अभी विरोध में खुल कर सामने आ गई है लेकिन राज्यसभा में बिल का विरोध नहीं किया था और एब्सेंट रही. कांग्रेस खुल कर विरोध कर रही है लेकिन जब कांग्रेस की सरकार थी तो कांग्रेस ने खुद अपनी सरकार के द्वारा ऐसे प्रावधान किए जिनके कुछ प्रावधान इन कृषि बिलों में भी शामिल हैं. पंजाब की बादल सरकार को किसानों की मांग के बढ़ते दबाव की वजह से एनडीए से बाहर जाना पड़ा. इस तरह ऐसा लगता है कि या तो राजनीतिक दल स्वाभाविक है कि वे राजनीति फायदे-नुकसान का ध्यान रख रहे हैं सही बात लोगों तक नहीं पहुंचा रहे हैं.


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