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सम्पादकीय
क्या ओल्ड गार्ड बनाम युवा पीढ़ी की कशमकश ही कांग्रेस पार्टी के पतन का कारण है?
Tara Tandi
21 Jun 2021 1:21 PM GMT
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अगर भारत में टेलिकॉम और कंप्यूटर क्रांति के जनक राजीव गांधी थे और पी.वी. नरसिम्हा राव के समय में भारत में आर्थिक क्रांति की शुरुआत हुई,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | अजय झा | अगर भारत में टेलिकॉम (Telecom) और कंप्यूटर क्रांति के जनक राजीव गांधी (Rajeev Gandhi) थे और पी.वी. नरसिम्हा राव (P.V. Narasimha Rao) के समय में भारत में आर्थिक क्रांति की शुरुआत हुई, भारत ने इजराइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किया तो कांग्रेस पार्टी को रूढ़िवादी नहीं कहा जा सकता. पर पार्टी में कुछ ऐसी परम्परा है जो दशकों से चली आ रही है. उनमे से एक परंपरा है ओल्ड गार्ड यानि बुजुर्ग नेताओं का पार्टी में दबदबा. समय के साथ चेहरे बदलते रहे पर यह परम्परा लगातार चली आ रही है, जिसका दुष्परिणाम पार्टी को और पार्टी में कई नेताओं को झेलना पड़ता है.
सन 1969 में कांग्रेस पार्टी (Congress Party) का विभाजन भी इसी कारण हुआ था. लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की मृत्यु के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को प्रधानमंत्री इसीलिए बनाया था ताकि वह अनुभवहीन इंदिरा गांधी के नाम पर पार्टी और सरकार चला सकें. इंदिरा गांधी को मोम की गुड़िया कहा गया. इंदिरा गांधी 1966 में जब प्रधानमंत्री बनीं तो मात्र 48 वर्ष की थीं और वह भी एक महिला. कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने सोचा सत्ता की कुंजी उनके हाथों में ही होगी. इंदिरा गांधी ने 1969 में बगावत कर दी. समय था राष्ट्रपति का चुनाव का, इंदिरा गांधी की अवहेलना करते हुए कांग्रेस पार्टी ने एन. संजीवा रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया जो इंदिरा गांधी को मंजूर नहीं था. इंदिरा के सह पर वी.वी. गिरी ने आजाद उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन भरा. इंदिरा गांधी ने गिरी के समर्थन में जम कर प्रचार किया, सभी राज्यों का दौरा किया और वह राष्ट्रपति पद के लिए आज तक का सबसे नजदीकी चुनाव था जिसमे गिरी 14,600 वोटों से जीते. गिरी को 4,20,077 मत मिला और कांग्रेस के प्रत्यासी रेड्डी को 4,05,427 वोट.
इंदिरा गांधी के समय भी थी बुजुर्ग बनाम युवा की लड़ाई
इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया और उन्होंने अपनी पार्टी बनायी जिसे शुरू में कांग्रेस (आर) और बाद में कांग्रेस (आई) के नाम से जाना गया. बुजुर्गों वाली कांग्रेस पार्टी को कांग्रेस (ओ) के नाम से जाना जाने लगा. बाद के वर्षों में कांग्रेस (ओ) का जनता पार्टी में विलय हो गया और कांग्रेस (आई) को चुनाव आयोग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में मान्यता दे दी. ओल्ड गार्ड बनाम युवा पीढ़ी की कशमकश उसी समय से लगातार चली आ रही है.
ये लड़ाई दशकों से चलती आ रही है
पंजाब से खबर आई कि प्रदेश के बुजुर्ग नेता प्रताप सिंह बाजवा, अमरिंदर सिंह बनाम नवजोत सिंह सिद्धू के लड़ाई में अमरिंदर सिंह का समर्थन कर रहे हैं. बजवा और अमरिंदर सिंह में 36 का आंकड़ा रहा है, पर जब-जब भी बुजुर्गों को लगता है कि युवा पीढ़ी उनसे आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं, बुजुर्ग आपसी मतभेद भूल कर एकजुट हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश से अलग हो कर नवगठित राज्य उत्तरांचल, जिसका नाम बाद में बदल कर उत्तराखंड हो गया, में पहली बार 2002 में विधानसभा चुनाव हुआ. पृथक राज्य बनने के बाद प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी. प्रदेश कांग्रेस के तात्कालिक अध्यक्ष हरीश रावत के अथक परिश्रम का ही नतीजा था प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की जीत. पर जब बात जीत के बाद मुख्यमंत्री मनोनीत करने की आयी तो हरीश रावत की जगह पार्टी ने तीन बार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी को कुर्सी सौंपी दी, हालांकि तिवारी का उत्तराखंड में जीत में सहयोग नगण्य था. उस समय तिवारी 76 वर्ष के थे और हरीश रावत 54 वर्ष के युवा! सोनिया गांधी के दरबार में बुजुर्गों का दबदबा था जिसे अपनी पीढ़ी के नेताओं से ज्यादा लगाव था.
अब के कांग्रेस में भी यही लड़ाई है
ऐसा ही कुछ नज़ारा 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद भी दिखा. कांग्रेस पार्टी की छत्तीसगढ़ समेत राजस्थान और मध्य प्रदेश में अप्रत्यासित जीत हुयी. पर जब मुख्यमंत्री मनोनीत करने की बारी आई तो राजस्थान में 41 वर्षीय सचिन पायलट के योगदान को भुला कर पार्टी आलाकमान, जहां बुजुर्गों को ही चलती है, 67 वर्षीय अशोक गहलोत को और मध्य प्रदेश में 47 वर्षीय ज्योतिरादित्य सिंधिया की जगह 72 साल के कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी थमाई गयी. नतीजा, मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार का पतन हो गया और राजस्थान में हर सुबह गहलोत भगवान के सामने अपनी कुर्सी बचाए रखने की ही प्रार्थना करते होंगे.
चूंकि सोनिया गांधी भी 74 वर्ष की हो चली हैं, वह भी अक्सर बुजुर्ग नेताओं के समर्थन में ही खड़ी दिखती हैं और पार्टी की तरफ से सचिन पायलट जैसे युवा नेताओं को प्रतीक्षा करने की सलाह दी जाती है, ताकि युवाओं से पहले बुजुर्गों को मौका मिलता रहे. भले ही राहुल गांधी 47 वर्ष की उम्र में 2017 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए, 2019 में उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र भी इस लिए ही दिया क्योंकि बुजुर्ग नेता उनकी राह में अवरोध पैदा करते रहे. उनकी पार्टी में चली नहीं और उन बुजुर्ग नेताओं को सोनिया गांधी का समर्थन प्राप्त था. इतना कहना ही काफी होगा कि जब तक कांग्रेस पार्टी पर बुजुर्ग सांप की तरह कुंडली मार कर बैठे रहेंगे, पार्टी की दशा और दिशा ऐसे ही रहने वाली है, और युवा पीढ़ी के नेताओं का पलायन जारी रहेगा.
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