सम्पादकीय

क्या ममता बनर्जी के बदलते तेवर की वजह से खतरे में है कांग्रेस का नेतृत्व

Tara Tandi
27 Sep 2021 9:06 AM GMT
क्या ममता बनर्जी के बदलते तेवर की वजह से खतरे में है कांग्रेस का नेतृत्व
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पश्चिम बंगालके विधानसभा चुनाव में मोदी-अमित शाह की जोड़ी को पछाड़ने के बाद ममता बनर्जी की नज़र दिल्ली की सत्ता पर है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | सुष्मित सिन्हा | पश्चिम बंगाल (West Bengal) के विधानसभा चुनाव में मोदी-अमित शाह की जोड़ी को पछाड़ने के बाद ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की नज़र दिल्ली की सत्ता पर है. ममता दीदी यह अच्छी तरह से जानती हैं की कलकत्ता में बैठकर राज्य पर शासन और राजधानी में बैठकर देश पर शासन करने में अंतर है. राज्य की राजनीति और केन्द्र की राजनीति का स्वरूप और प्रकृति दोनों अलग-अलग होती है. उन्हें पता है कि दिल्ली जाने का रास्ता इतना आसान नहीं है और यही कारण है कि ममता बनर्जी महा-गठजोड़ के लिए इतनी आतुर हैं.

ममता दीदी का मूल लक्ष्य महा-गठजोड़ के सहारे केंद्र की कुर्सी पर विराजमान होना है. इसी प्रयास में ममता बनर्जी ने दिल्ली में आकर विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मुलाकात भी की थी. उन्होंने 10 जनपथ जाकर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ भी मुलाकात की और इस मुलाकात के बाद ममता ने 10 जनपथ के बाहर भीगते हुए पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था, 'बीजेपी को हराने के लिए सबका एक होना जरूरी है.' एक पत्रकार द्वारा विपक्षी एकता में उनकी भूमिका को लेकर किए गए प्रश्न के उत्तर में ममता बनर्जी ने कहा था, 'हम लीडर नहीं, कैडर हैं.'

ममता बनर्जी कैडर नहीं लीडर बनना चाहती हैं

नेताओं की कथनी और करनी में अंतर सर्व-विदित है. ममता बनर्जी कैडर नहीं, राष्ट्रीय नेता बनना चाहती हैं, यह बात कांग्रेस भली-भांति जानती है. कहा जाता है कि ममता बनर्जी के प्रति सोनिया गांधी की सदयता होने के बाद भी ममता बनर्जी को लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का नजरिया अलग है. ममता दीदी के दृष्टिकोण में जहां केंद्रीय सत्ता पर कब्जा करना है, वहीं इन भाई-बहन की जोड़ी के समक्ष कांग्रेस के अस्तित्व का प्रश्न है. इसलिए, ममता बनर्जी की आक्रामक, संवेगशील और हठीले चरित्र के कारण कांग्रेस ने 'रुको और देखो' की नीति को अपनाना बेहतर समझा. ममता बनर्जी को लेकर कांग्रेस का संदेह सटीक प्रतीत हो रहा है.

क्या कांग्रेस को तृणमूल पर भरोसा करना चाहिए?

तृणमूल कांग्रेस के मुखपत्र 'जागोबांग्ला' की शनिवार (25 सितम्बर) की संपादकीय में 'द रियल कांग्रेस' शीर्षक नामक लेख में कांग्रेस के अस्तित्व और क्षमता को लेकर संदेह प्रकट किया गया है. लेख में लिखा है, कांग्रेस को इस समय राष्ट्रीय स्तर पर जो भूमिका निभानी चाहिए, वह वास्तव में तृणमूल द्वारा किया जा रहा है. सिर्फ यही नहीं इस लेख में तृणमूल कांग्रेस ने अपने आपको 'असली कांग्रेस' होने का दावा भी किया है, जो अपने आप में गांधी परिवार के लिए एक चुनौती है. इस लेख में तृणमूल कांग्रेस को 'समुंदर' और कांग्रेस को 'सड़ा हुआ तालाब' कहा गया है. निस्संदेह यह लेख कांग्रेस के प्रति तृणमूल की धारणा को ही व्यक्त कर रहा है. क्या यह लेख तृणमूल कांग्रेस के आत्मदंभ को नहीं दर्शाता? क्या यह लेख कांग्रेस की छवि को क्षति पहुंचाने का प्रयास नहीं है? क्या यह लेख ममता बनर्जी की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा नहीं है?

तृणमूल से कांग्रेस को दूरी बनाए रखने के कुछ कारण:-

1. कांग्रेस एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल है. उसे आज भी राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विरोधी दल के रूप में देखा जाता है. बहुचर्चित होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर आम-जनमानस में तृणमूल स्वच्छ छवि बनाने में असमर्थ है.

2. देश की जनता में कांग्रेस की अपनी एक अलग राजनीतिक पहचान है, जो तृणमूल में नहीं है.

3. पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद राज्य में हिंसा की जो तस्वीर देश की जनता ने देखी है, वह गणतंत्र सिद्धांत के विपरीत है.

4. पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में तृणमूल में शामिल होने की प्रबलता देखने को मिल रही है, वह कांग्रेस के भविष्य के लिए ठीक नहीं है.

5. ममता बनर्जी कांग्रेस नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती हैं.

6. अक्खड़ दिमाग के कारण विरोधी दलों में ममता बनर्जी की विश्वसनीयता का अभाव. ममता पर अपने पुराने साथियों के साथ दुर्व्यवहार का भी आरोप है.

7. इस बात पर विचार करने की आवश्यक्ता है कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी जहां अपनी पार्टी तृणमूल को महाजीत दिलवाने में सफल रहीं, वहीं अपनी ही सीट बचाने में असफल रहीं. और अब अपने मुख्यमंत्री पद को बचाने के लिए उपचुनाव में भवानीपुर सीट का सहारा लेना पड़ रहा है.

केंद्र की बीजेपी सरकार के विरोध में विपक्षी दलों का अस्तित्व ना के बराबर है. और यही कारण है की विपक्षी दलों को गठबंधन की आवश्यकता है. इसी गठबंधन के नेतृत्व की बागडोर ममता अपने हाथ रखना चाहती हैं, क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर उन्हें संदेह है. यह बात सच है कि कांग्रेस में ऐसे जन नेता की कमी है जिनके नाम से वोट मिल सके. इसके विपरीत ममता एक जन नेता हैं तथा अपने कार्यकर्ताओं में नई जोश डालने की क्षमता भी रखती हैं.

क्या राहुल गांधी कांग्रेस को नेतृत्व दे पाएंगे

यह सच है कि, कांग्रेस में जननेता ना होने के कारण नेतृत्व के अभाव में वर्तमान कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के दौर से गुजर रही है. कांग्रेस पार्टी सदैव गांधी परिवार पर निर्भर रही है. राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) को नेतृत्व देते हुए केंद्रीय सत्ता पर बनी रहीं. कांग्रेस के एकमात्र राजकुमार राहुल गांधी ने अपनी माता सोनिया गांधी का हाथ पकड़ कर राजनीति में कदम रखा. राहुल की राजनीतिक यात्रा में एक तरफ मां सोनिया गांधी तो दूसरी तरफ छोटी बहन प्रियंका गांधी का सदैव साथ रहा. अपने ही मन की सुनने वाले राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर समय-समय पर बहुत चर्चाएं होती रहीं. कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी की ज़िम्मेदारी लेने से राहुल गांधी हमेशा आनाकानी करते रहे हैं.

संसद के मानसून अधिवेशन के समय पर राहुल गांधी विपक्षी दलों को सरकार के विरुद्ध एकजुट करने में सफल रहे थे. इस दौरान जिस प्रकार राहुल गांधी ने विपक्षी दलों को नेतृत्व दी, इससे यह प्रतीत होता है की विपक्षी दलों में अभी भी कांग्रेस के प्रति विश्वास और आस्था है. इस दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि महागठबंधन में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका है. कांग्रेस को मजबूत करने के लिए राहुल-प्रियंका भाई-बहन की इस जोड़ी को और कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.

कांग्रेस को मजबूत करने के लिए कुछ कदम उठाने पड़ेंगे

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को कांग्रेस के अंदर जमीनी स्तर पर नेता बनाने के प्रयास करने चाहिए. किसी राजनीतिक मुद्दे पर जन-आंदोलन करने से पूर्व अपने कार्यकर्ताओं में केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति विश्वास और आस्था बढ़ाने पर जोर देना चाहिए. कार्यकर्ताओं को संगठित करने के लिए नियमित बैठक करनी चाहिए. इसलिए 'सेवादल' को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है. अपने नेताओं की नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए. संगठनात्मक संरचना पर पुनर्विचार करना चाहिए. क्षमता का विकेंद्रीकरण करने के साथ-साथ अधिक से अधिक कार्यकर्ताओं को दायित्व देने की आवश्यकता है, जिससे कार्यकर्ता उत्साहित हों. नेताओं द्वारा किए गए कार्यों का निष्पक्ष और नियमित मूल्यांकन हो. पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी जैसे तजुर्बेकार और विश्वस्त नेताओं को और अधिक दायित्व देने की आवश्यकता है, जिससे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की वापसी संभव हो सके.



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