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देश में ओबीसी आरक्षण को लेकर कुछ सालों के दौरान जो हलचल हुई है उसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराहट के हालात
देश में ओबीसी आरक्षण को लेकर कुछ सालों के दौरान जो हलचल हुई है उसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराहट के हालात पैदा कर दिए हैं. इस तनाव में विधि, न्याय और प्रशासन के बजाय राजनीति के हावी होने से स्थितियां और अधिक जटिल होती जा रही हैं. मामला चूंकि ओबीसी के हितों की रक्षा से कम और उनके वोटों से ज्यादा जुड़ा है इसलिए हर दल खुद को बाकी दलों के मुकाबले ओबीसी का अधिक हितैषी बताने के चक्कर में ऐसी ऐसी हरकतें कर रहा है जो संविधान, विधि और न्याय के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अलावा सामाजिक तानेबाने के भी प्रतिकूल हैं.
ओबीसी के बहाने राजनीति का ताजा दंगल मध्यप्रदेश में हो रहा है. यहां पंचायत चुनाव में ओबीसी के आरक्षण को लेकर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच तलवारें तनी हुई हैं. हालांकि लंबी जद्दोजहद और कानूनी लडाई के बाद पंचायत चुनाव फिलहाल तो निरस्त हो गए हैं, लेकिन मामला अभी ठंडा नहीं पडा है. गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में डाली है और वहां से आने वाला फैसला ही तय करेगा कि ऊंट कौन सी करवट बैठेगा. इस मामले में हैरत की बात यह भी रही है कि ओबीसी हितैषी होने का श्रेय लेने के लिए दोनों दल कुछ मसलों पर एक दूसरे से हाथ मिलाने या साथ आने को भी तैयार हो गए.
पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के पंचायत चुनावों में ओबीसी के आरक्षण को हटाने के लिए कहा तो दोनों ही दल अपने अपने स्तर पर सक्रिय हो गए. विधानसभा के शीतकालीन सत्र में प्रतिपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इस मसले पर स्थगन प्रस्ताव पेश किया. आमतौर पर सरकारें विपक्ष की ओर से लाए गए स्थगन प्रस्ताव पर बात करने को राजी नहीं होतीं, लेकिन चूंकि मामला ओबीसी वोट बैंक से जुड़ा था, इसलिए सरकार भी चर्चा कराने को तैयार हो गई. कमलनाथ ने सदन में सरकार पर आरोप लगाया कि उसने ओबीसी आरक्षण के मामले में कतई गंभीरता नहीं बरती.
मामले में टर्निंग पाइंट उस समय आया जब सरकार को कोसने के साथ ही कमलनाथ एक और दांव खेल गए. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश के पंचायत चुनावों की प्रक्रिया को लेकर दायर याचिकाओं के संदर्भ में राज्य के चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि ये चुनाव बगैर ओबीसी आरक्षण के करवाए जाएं. कमलनाथ ने इसीको आधार बनाकर सरकार को धर्मसंकट में डालते हुए मुख्यमंत्री के सामने प्रस्ताव रख दिया कि आप इस मसले को फिर से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पुनर्विचार के लिए लेकर जाएं, हम आपका पूरा साथ देंगे.
ओबीसी हितैषी होने की बाजी हाथ से फिसलते देख मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी तत्काल प्रतिक्रिया दी. उन्होंने स्थगन प्रस्ताव पर सरकार की ओर से जवाब देते हुए कहा कि कोई साथ आए या न आए, कोई समर्थन करे या न करे, उसके बावजूद हम इस मामले को फिर से सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी मजबूती से रखेंगे. बाद में, मुख्यमंत्री विधानसभा में ही इस आशय का अशासकीय संकल्प लेकर आए कि प्रदेश में पंचायतों के चुनाव ओबीसी आरक्षण के बिना नहीं होंगे. जिसे सदन ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया. दूसरी तरफ सरकार विधानसभा में दिए गए अपने कथन के अनुरूप सुप्रीम कोर्ट के सामने पुनर्विचार याचिका लेकर चली भी गई.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब जल्द सुनवाई करने में कोई रुचि नहीं दिखाई तो मामला वहां जाकर पेंडिंग हो गया. सरकार ने ओबीसी हितैषी दिखने की बाजी हाथ से निकलते देख केबिनेट में प्रस्ताव पारित कर पंचायत चुनाव संबंधी सूचना ही रद्द कर दी. बाद में, राज्यपाल ने भी इससे संबंधित अध्यादेश पर अपनी मुहर लगा दी. जब यह सबकुछ हो चुका तो राज्य निर्वाचन आयोग ने विधि विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद पूरी चुनाव प्रक्रिया को निरस्त कर दिया. जिन लोगों ने भी चुनाव के नामांकन भरे थे, अब उनकी जमानत राशि वापस की जाएगी.
इस प्रकरण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि सरकारें ओबीसी आरक्षण का दायरा तय करने और कुल आरक्षण की सीमा बढाने को लेकर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों व दिशानिर्देशों के बावजूद अलग अलग तरीके से बार बार यह मसला अदालतों के सामने ले जा रही हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट कई बार यह साफ कर चुका है कि वह आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं करने के अपने फैसले पर अडिग है. मध्यप्रदेश के मामले में भी कोर्ट ने 17 दिसंबर को राज्य निर्वाचन आयोग को फटकार लगाते हुए कहा था कि आरक्षण के मुद्दे पर आग से मत खेलिए. चुनाव संविधान के दायरे में रहकर हो रहे हैं तो इसे जारी रखें. संविधान के खिलाफ चुनाव हैं तो इसे रद्द करें. ट्रिपल टेस्ट का पालन किए बिना आरक्षण के फैसले को स्वीकार नहीं किया जा सकता. यदि कानून का पालन नहीं होगा तो भविष्य में चुनाव रद्द भी हो सकता है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट के खफा होने की भी एक वजह थी. मध्यप्रदेश से संबंधित याचिका पर राज्य निर्वाचन आयोग को फटकारने से दस दिन पहले सुप्रीम कोर्ट महाराष्ट्र के इसी तरह के एक मामले में चुनाव पर रोक लगा चुका था. 6 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के निकाय चुनाव में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने के मुद्दे पर राज्य सरकार को झटका देते हुए ओबीसी उम्मीदवारों के लिए किए गए 27 फीसदी आरक्षण पर रोक लगा दी थी. उसने राज्य सरकार से कहा था कि वह बिना ट्रिपल टेस्ट का पालन किए ओबीसी आरक्षण के मामले में आगे न बढ़े. सुप्रीम कोर्ट की नाराजी की एक वजह यह भी रही होगी कि जब उसने महाराष्ट्र के मामले में स्पष्ट दिशानिर्देश दे दिए थे तो मध्यप्रदेश को वैसे ही मामले में कोर्ट की राय के विपरीत चुनाव प्रक्रिया में जाने की जरूरत क्या थी.
लेकिन ऐसा लगता है कि अनेक बार साफ साफ शब्दों में दिशानिर्देश देने और कई बार तो ऐसी याचिकाओं पर सरकारों को फटकार तक लगा चुकने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मामले ले जाए जाने का सिलसिला थम नहीं रहा. कोर्ट हर बार आरक्षण की सीमा को अपने पूर्व के फैसलों का हवाला देते हुए 50 फीसदी के दायरे में रखना चाहता है और सरकारें अपने राजनीतिक हितलाभों को देखते हुए घुमा फिराकर इस दायरे को बढ़ाने पर उतारू नजर आती हैं. मध्यप्रदेश के मामले में तो हाल ही में केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर खुद को पक्षकार बनाने की मांग कर डाली है.
ओबीसी का मामला सिर्फ मध्यप्रदेश का ही नहीं है. देश के कई राज्य ओबीसी वोटों पर ललचाई नजरों से देखते हुए उनके लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने की वकालत करते रहे हैं. इसी सिलसिले में जातिगत जनगणना की बात भी समय समय पर उठी है. सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण के मसले पर तीन स्तरीय जांच प्रक्रिया का फार्मूला दिया है. कोर्ट का कहना है कि ऐसे किसी भी आरक्षण से पहले उस प्रक्रिया को पूरा कर रिपोर्ट दी जानी चाहिए. इस ट्रिपल टेस्ट में जो बातें तय की गई हैं उनके अनुसार राज्य सरकारों को ये तीन बातें करनी हैं- (1) राज्य के भीतर पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थ की जांच करने के लिए एक आयोग की स्थापना (2) आयोग की सिफारिशों के संदर्भ में स्थानीय निकाय-वार प्रावधान किए जाने के लिए आवश्यक आरक्षण के अनुपात को निर्दिष्ट करना, ताकि अधिकता का भ्रम न हो; और (3) किसी भी मामले में ऐसा आरक्षण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के पक्ष में आरक्षित सीटों के कुल 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा.
लेकिन सरकारें जिस तरह से आचरण कर रही हैं उससे लगता है कि आने वाले दिनों में यह मसला कोर्ट और राजनीतिक दलों के बीच टकराव का कारण बन सकता है. एक गंभीर स्थिति इसलिए भी पैदा हो रही है क्योंकि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक व्यवस्था के तहत आरक्षण को लेकर अपने दिशानिर्देश जारी रहा है और दूसरी तरफ सरकारें उन्हें नजरअंदाज करते हुए राजनीतिक कारणों से आरक्षण की सीमा बढ़ा रही हैं. ऐसे में यह धारणा बन रही है कि कोर्ट ही ओबीसी के आरक्षण के मामले में सबसे बड़ा अड़ंगा बन गया है. जबकि ऐसा नहीं है.
दुर्भाग्य से इस मसले पर यह कोई नहीं सोच रहा है कि सरकारों और राजनीतिक दलों के इस रवैये से सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की छीछालेदर ही नहीं हो रही, हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं की भी धज्जियां उड़ रही हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर आरक्षण का दायरा किस सीमा पर जाकर खत्म होगा. सुप्रीम कोर्ट उसे संवैधानिक प्रावधानों के तहत 50 फीसदी तक सीमित रखना चाहता है और सरकारें वोट बैंक की खातिर उसमें मनमानी बढ़ोतरी करने पर आमादा हैं. इस सबके बीच ओबीसी समुदाय की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं और जाहिर है जैसे जैसे उम्मीदें बढ़ेंगी, राजनीति पर दबाव भी उतना ही बढ़ेगा, साथ ही संवैधानिक संस्थाओं में टकराव भी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
गिरीश उपाध्याय पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.
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