सम्पादकीय

शराब को लेकर देश के लोगों का नजरिया बदल रहा है या ये सरकारों की मजबूरी है?

Gulabi Jagat
10 May 2022 10:04 AM GMT
शराब को लेकर देश के लोगों का नजरिया बदल रहा है या ये सरकारों की मजबूरी है?
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दिल्ली सरकार ने एक नीतिगत निर्णय लिया है
प्रवीण कुमार |
हमारा देश बदल रहा है और बदलते देश में शराब (Liquor Policy) को लेकर राजधानी दिल्ली (Delhi) तथा पड़ोसी राज्य हरियाणा (Haryana) एक नई शराब नीति लेकर आई है. ऐसे में सवाल उठने स्वभाविक हैं कि क्या शराब को लेकर वाकई देश के लोगों का नजरिया बदल रहा है या ऐसी नीति को लागू करना सरकारों की मजबूरी हो गई है? महात्मा गांधी अक्सर कहा करते थे कि किसी भी राज्य अथवा निकाय के लिए शराब का व्यवसाय, अनैतिकता का साधन है. इसीलिए देश के लिए समर्पित राज्यतंत्र को शराबबंदी के लिए स्वयं आगे आना चाहिए. लेकिन आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो दिल्ली सरकार ने एक नीतिगत निर्णय लिया है, जिसमें बार संचालकों को तड़के तीन बजे तक शराब परोसने की अनुमति है.
तर्क दिया गया कि यह निर्णय इसलिए लिया गया है ताकि बार संचालन के समय को पड़ोसी शहरों मसलन गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा, गाजियाबाद आदि के बराबर लाया जा सके. हालांकि 17 नवंबर 2021 से जारी नई आबकारी नीति में इस बात की सिफारिश की गई थी, लेकिन अब इसे लागू करने का फैसला किया गया है. फिर पड़ोसी राज्य हरियाणा कहां पीछे रहने वाला था. 12 जून 2022 से लागू की जाने वाली नई शराब नीति के तहत हरियाणा सरकार ने बार और रेस्तरां को 24X7 खोलने व शराब परोसने की अनुमति दे डाली. अब राज्य सरकारों का यह फैसला कितना सही है, कितना गलत इसपर विमर्श से पहले राज्यों की अर्थव्यवस्था में शराब की भूमिका, शराबियों का मनोविज्ञान और आबकारी नीति के बीच के कनेक्शन आदि को समझना जरूरी है.
शराबियों का मनोविज्ञान और आबकारी नीति
दरअसल, शराब के शौकीन लोग सस्ती-महंगी की उलझनों में नहीं पड़ते हैं. सही वक्त पर सहज तरीके से और मन मुताबिक चीजें मिल जाएं, इससे अच्छी बात ऐसे लोगों के लिए कुछ और हो नहीं सकती है. शराब पीने वाले लोगों के इसी मनोविज्ञान का फायदा सरकारें उठाती हैं और तमाम कानून व नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी-अपनी आबकारी नीति को उदार बनाती हैं, ताकि राज्य के राजकोष में अधिक से अधिक राजस्व आए. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की बात करें तो शराब की दुकान स्कूल-कॉलेज, अस्पताल या धार्मिंक स्थलों से एक निश्चित दूरी पर होनी चाहिए. लेकिन दिल्ली व अन्य राज्यों में कई दुकानें आपको मिल जाएंगी जो 50 मीटर के दायरे से भी कम में चल रही हैं.
कहते हैं कि शराब व्यक्ति के मानसिक तनाव को कम करता है, चिंता के स्तर को कम करता है, सामाजिक हैसियत को बढ़ाता है. कोरोना महामारी के दौर में हर शख्स परेशान है. हर शख्स महंगाई, बेरोजगारी, काम का तनाव, नौकरी बचाने का संकट आदि समस्याओं से जूझ रहा है और जाने-अनजाने में उसे लगता है कि शराब की एक घूंट उसे रिलैक्स कर सकती है.
लेकिन मुंह में एक घूंट आ गई तो फिर छूटने का नाम कहां लेती है. और यहीं से शुरू होती है राज्यों के आबकारी विभाग की बल्ले-बल्ले. भारत दुनिया में शराब का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है. इस मामले में चीन सबसे आगे है. आईडब्ल्यूएसआर ड्रिंक्स मार्केट एनालिसिस का अध्ययन बताता है कि भारत में सालाना 66 करोड़ लीटर से अधिक अल्कोहल पीया जाता है. प्रति व्यक्ति अल्कोहल की खपत में भी धीरे-धीरे इजाफा हो रहा है. 189 देशों में शराब की खपत को लेकर की गई एक स्टडी से यह भी पता चला है कि भारत में शराब की खपत 38 फीसदी तक बढ़ गई है.
राज्यों की अर्थव्यवस्था को कितना संभालती है शराब
भारत के सभी राज्यों की अपनी-अपनी शराब नीतियां हैं. राज्यों को इसके उत्पादन, कीमत, बिक्री और टैक्स तय करने का अधिकार होता है. सामान्य तौर पर राज्य शराब के निर्माण और बिक्री पर उत्पाद शुल्क लगाता है. कुछ राज्य जैसे तमिलनाडु शराब पर वैट भी लगाते हैं. इसके अलावा राज्य आयात की जाने वाली विदेशी शराब पर विशेष शुल्क भी लेते हैं जिसमें परिवहन शुल्क, लेबल एवं ब्रांड पंजीकरण शुल्क आदि शामिल होते हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने तो आवारा पशुओं के रखरखाव जैसे विशेष उद्देश्यों के लिए शराब पर विशेष शुल्क का प्रावधान कर दिया है. भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट की मानें तो अधिकांश राज्यों के कुल कर राजस्व का तकरीबन 10-15 प्रतिशत हिस्सा शराब पर लगने वाले राज्य उत्पाद शुल्क से आता है.
यही वजह है कि राज्यों ने शराब को वस्तु एवं सेवा कर यानि जीएसटी के दायरे से बाहर रखा है. तमाम शुल्कों के साथ शराब से होने वाली कमाई की बात करें तो ज्यादातर राज्यों के राजस्व का 15 से 30 प्रतिशत हिस्सा अकेले शराब की बिक्री से आता है. एसबीआई स्टेट फाइनेंस रिपोर्ट (SBI State Finance Report 2021-22) के मुताबिक, दक्षिण भारत के राज्यों में शराब की सबसे ज्यादा बिक्री होती है. देश में बिकने वाली 45 फीसदी से ज्यादा शराब आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में बिकती है. कर्नाटक में राज्य सरकार शराब पर लगाए टैक्स से 14.27 फीसदी की कमाई करती है.
मतलब अगर सरकार 100 रुपये की कमाई करती है तो उसमें से कुल 14.27 रुपये का राजस्व शराब से आता है. शराब से कमाई के मामले में दूसरा नंबर देश की राजधानी दिल्ली का आता है. दिल्ली सरकार 11.37 फीसदी शराब पर लगे टैक्स से कमाती है. दिल्ली के बाद इस सूची में हरियाणा तीसरे नंबर पर आता है जहां सरकार 10.49 फीसदी की कमाई शराब पर लगने वाले टैक्स से करती है. उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार शराब पर लगाए टैक्स से 9.92 फीसदी की कमाई करती है. पांचवा नंबर तेलंगाना का है जहां सरकार 9.65 फीसदी शराब पर लगे टैक्स से कमाती है.
कोरोना से नुकसान की भरपाई में जुटे राज्य
इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना महामारी के दौर में लंबे लॉकडाउन की वजह से राज्यों की शराब से होने वाली कमाई को बड़ी चपत लगी. शराब बिक्री पर 15 से 30 प्रतिशत तक की कमाई करने वाले राज्यों को इस दौरान 30 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ. दिल्ली और हरियाणा सरकार की नई शराब नीति इसी नुकसान की भरपाई करने की दिशा में उठाया गया कदम है. दिल्ली और हरियाणा ने लोगों को सहज भाव में शराब उपलब्धता की समय-सीमा को जिस तरीके से बढ़ाया है, निश्चित रूप से इससे शराब की बिक्री में इजाफा होगा और इस इजाफे के साथ सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा. पिछले सप्ताह कैबिनेट बैठक में हरियाणा सरकार ने 2022-23 की जिस नई एक्साइज पॉलिसी को मंजूरी दी उसमें शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए कई अहम फैसले लिए गए.
अब एक जोन में शराब ठेकों की संख्या को 2 से बढ़ाकर अधिकतम 4 किया गया है. शराब पर इंपोर्ट शुल्क 7 रुपये से घटाकर 2 रुपये प्रति बीएल (ब्लॉक लीटर) किया गया है. शराब कारखाना स्थापित करने के लिए आशय पत्र का शुल्क 15 लाख रुपये से घटाकर एक लाख रुपये कर दिया गया है. छत्तीसगढ़ और दिल्ली सरकार ने तो शराब की होम डिलीवरी तक की सुविधा शुरू कर दी है. देश के अन्य राज्य भी अपने-अपने तरीके से शराब बिक्री को बढ़ाने के लिए नई-नई तरकीब अपना रहे हैं ताकि कमाई में बढ़ोतरी हो सके.
शराब की कमाई से किसका होता है भला?
अंत में महामारी के बीच दम तोड़ते अर्थतंत्र के लिए राज्यों की 'आबकारी' व्यवस्था का अचानक से सजीव हो जाना किसके लिए कितना फलदायी होगा यह समझना भी बेहद जरूरी है. राज्य सरकारों के वित्तीय रिपोर्ट बताते हैं कि औसतन 20 फीसदी राजस्व शराब की खरीद-बिक्री से आता है. तो क्या राज्यों को मिलने वाले इस राजस्व का उपयोग ग्रामीण विकास, लोगों की सेहत, आदिवासियों और दलितों के उत्थान, किसानों की भलाई अथवा महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाने के लिए किया जाता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है और इसकी तह में जाने पर आपको निराशा ही हाथ लगेगी. आमतौर पर शराब से होने वाली कमाई का एक बड़ा हिस्सा शासन के वेतनभोगी कर्मचारियों के लिए सुरक्षित माना जाता है.
शायद इसीलिए शराब लोगों की सेहत के लिए भले ही हानिकारक है, लेकिन राजनीतिक सत्ता ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि सत्ता तंत्र की सेहत के लिए यह 'राजस्व' स्वास्थ्यवर्धक है. मतलब शराब की कमाई से भला सिर्फ राजनीतिक सत्ता की ही होती है. बहरहाल, कोरोना महामारी के बाद देश, अर्थव्यवस्था की जिस परिस्थिति को जी रहा है उसमें बेतहाशा महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी का आलम है. सरकार अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए शॉर्ट-कट तरीके अपना रही है. शराब की बिक्री को बढ़ाने के लिए हर तरकीब अपनाई जा रही है. खाने-पीने की चीजें महंगी हो रही हैं और शराब की कीमतें पहले से कम हो रही हैं. कहने का मतलब यह है कि लोगों को एक तरह से शराब की लत लगाई जा रही है. उसे नशे की दुनिया में धकेला जा रहा है.
सत्ता के आलोचकों का मानना है कि देश का बड़ा वर्ग अगर इस लत का शिकार हो गया तो वह नौकरी और रोजगार के लिए प्रदर्शन नहीं करेगा. महंगाई के खिलाफ आवाज नहीं उठाएगा. इस पूरी परिस्थिति को न तो शराब के प्रति देश के लोगों का बदलता नजरिया कह सकते हैं और न ही सरकार की मजबूरी. अगर हम वास्तव में आजादी की कद्र करते हैं, आजादी के अमृत महोत्सव काल में जी रहे हैं तो हमें अपनी शराब की सांस्कृतिक व राजनीतिक अर्थव्यवस्था की लत पर भी सवाल उठाने होंगे और इस जटिल समस्या के समाधान ढूंढने होंगे. हालांकि ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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