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सम्पादकीय
क्या धर्मनिरपेक्षता खतरे में है? ज्ञानवापी, कृष्ण जन्मभूमि विवाद में 'सभ्यता से संबंधित भावना' पर बहस छिड़ गई है
Gulabi Jagat
28 May 2022 6:58 AM GMT
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क्या धर्मनिरपेक्षता खतरे में है?
कार्तिकेय शर्मा |
उत्तर प्रदेश में ज्ञानवापी मस्जिद विवाद (Gyanvapi Masjid Controversy) के बीच मथुरा में दशकों पुराने कृष्ण जन्मभूमि विवाद (Krishna Janmabhoomi Dispute) ने भी जोर पकड़ लिया है. पिछले हफ्ते मथुरा की एक अदालत इससे संबंधित एक मुकदमे को सुनने को तैयार हो गयी जिसमें कृष्ण जन्मभूमि के पास मौजूद शाही ईदगाह मस्जिद (Shahi Idgah Mosque Conflict) को हटाने की मांग की गई है. न्यूज9 पॉडकास्ट में इस मुद्दे को लेकर पहले एपिसोड में हम एक नज़र डालते हैं कि कितने लोगों को लगता है कि इस बहस में 'सभ्यता की भावना' का ध्यान में नहीं रखा जा रहा है क्योंकि भारत एक पौराणिक राष्ट्र मगर एक युवा देश है. न्यूज9 के कार्तिकेय शर्मा ने बीजेपी नेता राम माधव से बात की जो लेखक होने के साथ आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी हैं.
पेश हैं पॉडकास्ट के कुछ संपादित अंश
पूजा स्थल कानून नया है. इस संदर्भ में भारत की सभ्यता 5000 साल पुरानी है तो ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि के संदर्भ में हम हजारों साल पुरानी भावना और आधुनिक कानून के बीच कैसे सामंजस्य बैठा सकते हैं? राम माधव : सबसे पहले 1991 का पूजा स्थल कानून तब बना जब राम जन्मभूमि का मामला अपने चरम पर था. और आप सभी जानते हैं कि उस समय संसद में बहुमत का इस्तेमाल करके कानून बनाया गया; साथ ही, मुख्य विपक्षी दल बीजेपी ने इसका पुरजोर विरोध किया और वॉकआउट भी किया. इस तरह से यह कानून जबरन बगैर सहमति के बना. प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया कि राम जन्मभूमि के अलावा किसी भी दूसरे विवाद वाले मंदिर या धार्मिक स्थल के स्वामित्व को लेकर यथास्थिति बनी रहे और इसे चुनौती नहीं दी जा सके.
चुंकि यह कानून बगैर आम सहमति के बना, यह आज भी विवाद का एक मुद्दा बना हुआ है. इसके बारे में हमेशा लोगों की राय बंटी रही. लेकिन मौजूदा ज्ञानवापी मुद्दे में विवाद स्वामित्व को लेकर नहीं है. यह इस बात को लेकर है कि क्या उस मंदिर में कुछ दशक पहले तक पूजा होती थी? क्या वहां पर मंदिर के भीतर हिन्दू देवी-देवता मौजूद थे? क्या हिन्दुओं के वहां जाने और पूजा करने की प्रथा चलन में थी? इस मामले में स्थानीय अदालत ने एक निश्चित आदेश जारी किया है. कानूनी रूप से यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी गया है और सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को मामले की सुनवाई करने की जगह जिला जज को सुनवाई का आदेश दिया है.
मामला अदालत में विचाराधीन है. यह मामला पूजा स्थल अधिनियम के दायरे में नहीं आता. यह केवल इस बारे में है कि क्या ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के भीतर कुछ हिन्दू प्रतीक मौजूद थे या नहीं? दावा तो यह भी किया गया है कि हिन्दुओं के परिसर के भीतर जाकर पूजा करने की प्रथा मौजूद थी. ऐतिहासिक तथ्य यह दर्शाते हैं कि 1960 के दशक तक हिन्दू वर्तमान मस्जिद के भीतर जाते थे और पूजा भी करते थे. ऐसे में मामला यह नहीं है कि आज कौन मंदिर की मांग कर रहा है और कौन नहीं? क्या यह व्यापक तौर पर एक खास भावना को स्वीकार करने को लेकर भी है कि लोग सच्चाई को मानें? अलग-अलग लोगों के साथ कई बार बातचीत में मुझे ऐसा लगा कि यह मुद्दा आखिर में इसी बात पर आकर अटक जाता है कि क्या वहां पर पहले से एक मंदिर था और बाद में वहां मस्जिद बना दी गई? तो सबसे पहले, इसे स्वीकार करने की जरूरत है.
राम माधव:- जाहिर तौर पर इस बात के ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं कि खास कर काशी और मथुरा में मंदिर था जिसमें पूजा अर्चना होती थी और उसे गिरा दिया गया. समकालीन मुस्लिम इतिहास में भी इसका वर्णन है कि वहां पर मंदिर था जिसे तोड़ कर मस्जिद बनाई गई. यह तथ्य पूरी तरह से इतिहास में दर्ज है. फिर कई भौतिक साक्ष्य अब भी उन दोनों जगहों पर मौजूद हैं. मध्ययुगीन इस्लाम में आइकोनोक्लास्म यानी मूर्तिभंजन आम था. विजेता का दूसरे धर्म के पूजा स्थलों को नष्ट कर देना इस्लाम का अभिन्न अंग था. मध्यकालीन इस्लाम न केवल भारत में बल्कि यूरोप में भी ज्ञान और धर्म के विनाश में लिप्त था. आप जानते हैं तब किस तरह से पुस्तकालयों को नष्ट कर दिया गया. प्राचीन यूनानी और रोमन साहित्य नष्ट कर दिये गये. मध्ययुगीन इतिहास में ये बातें हुईं.
यही चीजें भारत में भी हुईं. भारत के कुछ बड़े मंदिर तत्कालीन मुगल शासकों और इस्लामी आक्रमणकारियों के मूर्तिभंजक व्यवहार के शिकार बने. ऐसे में यह विशेष मुद्दा कि क्या पूजा स्थल मध्ययुगीन काल के दौरान बर्बरता के शिकार हुए इसका स्पष्ट ऐतिहासिक तथ्य मौजूद है. इसमें कोई शक ही नहीं है. सवाल यह है कि हम उस इतिहास को अब कैसे देखेंगे या संभालेंगे? आज के डेट में आपने जिन जगहों का जिक्र किया है उन्हें लेकर लोगों के मन में एक मजबूत भावना ने घर कर लिया है. वैसे मैं आपको बता दूं, अयोध्या ढांचा विवाद या अयोध्या ढांचा गिरने के बाद भी मूर्तिभंजन जारी है.
क्या आप जानते हैं कि उन दो-तीन साल में देश में 4000 के करीब मंदिरों को तोड़ा गया? बांग्लादेश, पाकिस्तान में कई मंदिर तोड़े गए. लंदन तक में मंदिर तोड़े गए. लंदन में बीस मंदिरों को तोड़ दिया गया. ऐसे में हिंन्दुओं और दूसरे धर्म के लोगों के पूजा स्थलों में जाना और उन पर हमला करना इस्लाम की मध्यकालीन प्रणाली का हिस्सा रहा है. अब मुसलमानों को भी इस बारे में बहुत गंभीरता से सोचना होगा कि क्या मध्यकालीन इस्लाम वाली मूर्तिभंजन की प्रथा सही थी? क्या उन्हें इसका समर्थन करना चाहिए? मध्यकालीन इस्लाम ने भारत में हिन्दू मंदिरों और अरब क्षेत्र के कई हिस्सों में कई दूसरे धार्मिक स्थानों में क्या किया है इसको लेकर मैं आपको एक बहुत ही दिलचस्प उदाहरण देता हूं. इंडोनेशिया में सैकड़ों साल पुराने हिन्दू मंदिर की आक्रमणकारियों के कारण नहीं बल्कि प्राकृतिक कारणों से जीर्ण-शीर्ण स्थिति हो गई. वहां के स्थानीय लोगों ने उसे दोबारा बनवाया. उसका जीर्णोधार करने वाले सभी मुसलमान थे.
इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश है. प्रम्बानन मंदिर परिसर को 20 साल में फिर से खड़ा कर दिया गया और कुछ साल पहले इसे हिन्दुओं के लिए खोल दिया गया. इसलिए मुसलमानों को समझने के लिए अलग-अलग तरह के उदाहरण मौजूद हैं. अब यह तो साफ है कि ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि के मंदिर मूर्तिभंजन और बर्बरता के शिकार हुए. आप उसे कैसे संभालेंगे? क्या आप उस समय के शासकों के मध्य युग की बर्बरता और मूर्तिभंजक व्यवहार का समर्थन करते हैं? क्या आप अपना जुड़ाव उनसे रखते हैं? क्या आप यहां के हिन्दुओं की भावनाओं को समझते हैं और इसका समाधान दूसरी तरह से निकालते हैं? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर इस देश के मुसलमानों को गंभीरता से विचार करना होगा.
इतिहास में शिकायत की भावना प्रबल रही है. आपकी राय में आगे का रास्ता क्या है? क्या यह सत्य और सुलह आयोग की तरह है जो दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में समकालीन है? क्या आपको लगता है कि इस तरह का मुद्दा होना चाहिए? अगर मैं दोबारा खोलने वाले शब्द का इस्तेमाल करूं तो और एक उचित प्रक्रिया अपनाई जाए तो क्या इस मुद्दे को सुलझाया जा सकता है जिससे लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं?
राम माधव:- जैसा कि मैंने पहले कहा, सदियों से सैकड़ों नहीं हजारों धार्मिक स्थल इस मूर्तिभंजक बर्बरता का शिकार हुए हैं. कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान हैं जो हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज के लिए बहुत प्रिय या बहुत महत्वपूर्ण हैं. ऐसे हजारों मंदिरों के रिकॉर्ड मौजूद हैं जिन्हें तोड़ा गया. कुछ मंदिर ऐसे हैं जिनको लेकर कभी-कभी भावनाएं उठती हैं. हम आज ज्ञानवापी मामले में जो देख रहे हैं यह राजनीति या किसी संगठन को लेकर नहीं है. आम हिन्दू समाज अब इस तरह के मुद्दों को उठाने लगा है. मैं कहूंगा कि कानूनी या न्यायिक प्रक्रिया को आगे बढ़ने दें. आपको एक बात याद रखनी चाहिए. मध्य प्रदेश में एक जगह है धार.
यहां के विशाल सरस्वती मंदिर को मूर्तिभंजक मुगल शासकों ने गिरा दिया और उसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया. आजादी के बाद हिन्दू और मुसलमान संयुक्त रूप से उस जगह का इस्तेमाल अपनी पूजा और इबादत के लिए करते हैं. क्या आप जानते हैं कि सरस्वती माता की पूजा और नमाज एक ही परिसर में होती है. कभी-कभार यहां तनाव भी हो जाता है लेकिन स्थानीय समाज और प्रशासन सब कुछ संभाल लेता है. जब वहां पर हिंसा वाली स्थिति पैदा होती हैं तो समुदायों को एक साथ आना ही पड़ता है और पूरी परिपक्वता के साथ उस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता सब मिल कर खोज लेते हैं. समाज को अनावश्यक तनाव या हिंसा की तरफ ले जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. उन्हें एक साथ आना चाहिए और एक-दूसरे की सोच और भावनाओं का सम्मान करना चाहिए.
आपने कहा कि भारत में ऐसी जगहें हैं जहां हिंदू और मुसलमान दोनों एक साथ प्रार्थना करते हैं. इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुझे लगता है कि इसका सबसे अच्छा उदाहरण येरूसलेम है जहां यहूदी पश्चिमी दीवार पर प्रार्थना करते हैं और अल अक्सा मस्जिद मुसलमानों के लिए खुली रहती है. मुस्लिम और यहूदी दोनों ही परिसर में जा सकते हैं लेकिन यहूदी अल अक्सा परिसर के अंदर नहीं जा सकते. आपको क्यों लगता है कि हम विवादित स्थल पर अलग-अलग समुदायों को मानने वालों को प्रार्थना करने देने में सफल नहीं हो रहे हैं?
राम माधव:- इसलिए मैंने कहा कि ये समस्याएं केवल भारत तक सीमित नहीं हैं. चूंकि आपने अल अक्सा का उल्लेख किया है जहां पर टेंपल माउंट भी है. वहां पर आज भी यहूदियों को प्रार्थना करने की अनुमति नहीं है. लंबी कानूनी लड़ाई के बाद यहूदियों को अब उस जगह पर जाने की अनुमति है लेकिन प्रार्थना करने की नहीं. यह उनके लिए अजीब सी स्थिति है. यहूदी इसे अपनी पवित्र जगह मानते हैं. वे उस स्थान पर जा सकते हैं लेकिन प्रार्थना नहीं कर सकते. वे वेलिंग वॉल यानी रोती हुई दीवार पर खड़े तो हो सकते हैं लेकिन आज भी अल अक्सा मस्जिद परिसर में प्रवेश नहीं कर सकते. तो इस प्रकार की परिस्थितियां आज यूरोप में भी हैं. मुझे यकीन है कि आप में से अधिकांश लोगों ने हागिया सोफिया मस्जिद के बारे में जरूर सुना होगा जो आज कांस्टेंटिनोपल इस्तांबुल में एक तथाकथित मस्जिद है. पहले यह एक गिरजाघर होता था. तुर्की सरकार ने एक दिन ऐलान कर दिया कि यह एक मस्जिद है. तो मूर्तिभंजन जैसी स्थिति पश्चिमी देशों में भी देखी जाती है. उन देशों में भी मूर्तिभंजक इस्लामी आक्रमण ने मुसलमानों और यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों वगैरह के बीच गंभीर तनाव पैदा कर दिया है.
वहां पर तीन सदियों का लंबा ऐतिहासिक धर्मयुद्ध चला जहां दोनों समुदायों ने एक-दूसरे के खिलाफ जमकर लड़ाईयां लड़ीं. भारत के मामले में हम भी लगभग उसी कालखंड के दौरान उस मूर्तिभंजन गुट का शिकार हुए. जिस वक्त दुनिया के उन हिस्सों में लगातार संघर्ष चल रहा था हम भी एक खास तरह की अभद्रता से जूझ रहे थे. अब जरूरत इस बात की है कि मुस्लिम भाई इन प्रश्नों को अधिक तर्कसंगत रूप से देखें कि इन जगहों पर दूसरे धर्म के लोगों के इबादतगाह थे. उनके पास अब स्पष्ट सबूत हैं कि इन जगहों पर किसी दूसरे धर्म की पूजा की जगह मौजूद थी.
इन जगहों पर मंदिर थे इस बात के बहुत स्पष्ट प्रतीक चिन्ह मौजूद हैं. इन्हें जबरदस्ती मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया. इसलिए इन मुद्दों पर मुस्लिम भाइयों को यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ एक बार इतिहास की भी खुले मन से जानकारी ले लेनी चाहिए. इसके लिए भारतीय इस्लाम को 18वीं सदी की अल हदीस मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है. भारतीय इस्लाम पर अल हदीस का जबरदस्त प्रभाव है. इसका प्रभाव कम होना चाहिए और जिस तरह से सूफी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति भी खुले मन से आदर की भावना रखते थे वैसे ही आज के भारतीय मुसलमानों को भी उदारवादी और समावेशी होना चाहिए. उनमें इस तरह की मानसिकता को बढ़ावा देने की जरूरत है.
क्या आपको लगता है कि मथुरा और वाराणसी अपवाद होना चाहिए? और इससे जुड़ा एक सवाल यह भी है कि बहुत से लोग कहेंगे कि आप हिन्दू धर्म में पूजा स्थलों को अनिवार्य नहीं बना सकते क्योंकि यहां पर स्वच्छता की जरूरत होती है. इस्लाम और ईसाई धर्म के विपरीत, हिन्दू धर्म में हजारों पवित्र स्थान हो सकते हैं. इस पर आपके क्या विचार हैं?
राम माधव:- नहीं, उस बात के लिए मक्का, मदीना और यरुशलम के अलावा एक मुसलमान के लिए कोई भी दूसरी भौतिक संरचना महत्वपूर्ण नहीं है. मुसलमानों को आप रेलवे स्टेशनों पर, हवाईअड्डों पर मक्का की तरफ चेहरा करके नमाज पढ़ते देख सकते हैं. यह उनका एकमात्र धार्मिक दायित्व है. जबकि हिन्दुओं के लिए इन स्थानों का आध्यात्मिक, धार्मिक और ऐतिहासिक पवित्रता वाला महत्व है. यदि यह राम जन्मभूमि है तो यह भगवान राम के जन्म से जुड़ी हुई जगह है. अगर यह कृष्ण जन्मभूमि है तो इसे भगवान कृष्ण के जन्म से जोड़ा गया है. तो ये ऐसे स्थान हैं जिनका ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिए मक्का, मदीना और यरुशलम पैगंबर मुहम्मद के जीवन से जुड़े हुए हैं. कोई भी दूसरा पूजा स्थल या दूसरी संरचना उनके लिए पवित्र नहीं है. इसलिए उन्हें इन जगहों को लेकर ज्यादा उदार होना चाहिए. उनके लिए अगर वह मक्का की तरफ देख सकते हैं तो वह किसी भी जगह नमाज पढ़ सकते हैं. यहां पर इसी बात पर मैं जोर देना चाह रहा हूं. हिन्दुओं के लिए इनमें से कुछ स्थानों से कुछ ऐतिहासिक-धार्मिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं. अगर हम इतिहास में जाएं तो इस बर्बरता का शिकार हजारों की संख्या में हिन्दू मंदिर हुए हैं मगर हम यहां कुछ गिनती के मंदिरों की ही बात कर रहे हैं.
क्या आपको लगता है कि काशी और मथुरा अपवाद होना चाहिए?
राम माधव:- इन मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने के लिए हिन्दू और मुस्लिम पक्षों के सभी महत्वपूर्ण हितधारकों को शामिल करते हुए एक व्यापक चर्चा होनी चाहिए. यही समय की मांग है. जहां तक अयोध्या का सवाल है हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच उस तरह का सुलह संभव नहीं था इसलिए मामला न्यायपालिका पर छोड़ दिया गया. अंत में पूरे 30 साल बाद न्यायपालिका ने करीब तीन साल पहले फैसला सुनाया. उस फैसले को अब सभी पक्षों ने स्वीकार कर लिया है. हमारे देश कानून का राज चलता है. मामला न्यायपालिका में विचाराधीन है.
क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि बहुत से इतिहासकार और मानवविज्ञानी कहते हैं कि मथुरा और ज्ञानवापी के मुद्दे को फिर से खोलना भानुमती के पिटारे को खोलने जैसा होगा?
राम माधव:- जब तक ये मामले न्यायपालिका के पास हैं मुझे नहीं लगता कि किसी को भानुमती के पिटारे जैसी किसी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत है. वैसे भी ये मामले हमेशा से न्यायपालिका के समक्ष रहे हैं. उदाहरण के लिए मैंने आपको राम जन्मभूमि के मामले के बारे में बताया. स्वतंत्रता के समय ही यह मामला न्यायलय के अधिकार में चला गया था. कृष्ण जन्मभूमि के साथ भी ऐसा ही है; इससे संबंधित कई मामले अदालतों में लटके हुए हैं. इसलिए इन मुद्दों को नए सिरे से नहीं उठाया गया है. इस बात से मैं सहमत हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक के बाद एक नये मुद्दे सामने आते रहें. आप अपनी पूरी ऊर्जा, सब कुछ इन मामलों पर लगा देते हैं और अंत में पाते हैं कि देश में और अधिक वैमनस्य, फूट पैदा हो गई है. फिर भी इसकी जिम्मेदारी सिर्फ हिन्दुओं पर नहीं डाली जा सकती. दोनों समुदायों को अब अधिक यथार्थवादी तरीके से, अधिक उचित तरीके से व्यवहार करना होगा. मुसलमानों को ज्ञानवापी मुद्दे को लेकर हिन्दुओं के साथ एक मेज पर बैठ कर एक-दूसरे के विचारों को समझने की जरूरत है. समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सद्भावना बनी रहे इसका प्रयास करना चाहिए. ऐसी चीजों का हमें समर्थन करना चाहिए. नहीं तो अपने देश में हम मामलों को न्यायपालिका पर छोड़ देते हैं और न्यायपालिका जो भी फैसला करती है हम सहमत हो जाते हैं और उसका पालन करने लगते हैं.
अगर आपने गौर किया होगा तो पाएंगे कि धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर भी बहस छिड़ गई है. हम सभी जानते हैं कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल के दौरान धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द बिना किसी बहस के जोड़ दिये गए मगर इसने भी हमारे संविधान को पहले से अधिक धर्मनिरपेक्ष नहीं बनाया. लेकिन तथ्य यह है कि इसे संसद में बगैर किसी बहस के जोड़ दिया गया. अब अयोध्या पर भी हमारे सामने 2019 का फैसला है. मथुरा और ज्ञानवापी के संदर्भ में पूरी बहस यह है कि यह किसी न किसी तरह से भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष नींव को चुनौती देता है, जो स्वयं संविधान की मूल संरचना का गठन करता है या उसका हिस्सा है।
राम माधव:- जब तक ये मामले भारत की न्यायपालिका के सामने हैं, धर्मनिरपेक्षता खतरे में नहीं है. मेरे धर्मनिरपेक्ष मित्र इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं. फिर हम किस धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे हैं? इस देश में राम जन्मभूमि आंदोलन के वक्त हजारों हिन्दू मंदिरों को तोड़ दिया गया तब किसी ने धर्मनिरपेक्षता के बारे में नहीं सोचा. रामनवमी के जुलूस पर हमला किया गया तो किसी को धर्मनिरपेक्षता की याद नहीं आई. जब भी कोई नया विवादित मामला सामने आता है तो न्यायपालिका उस पर विचार करती है. धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस कहां है? क्या दुनिया भर में एक जैसी धर्मनिरपेक्षता है? फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता का मतलब है धर्म की पूर्ण अस्वीकृति जबकि, अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राष्ट्रपति बाइबिल पर हाथ रखकर शपथ लेता है. जब अमेरिकी राष्ट्रपति शपथ लेता है तो उसके बगल में एक बिशप खड़ा होता है जो उसे आशीर्वाद देता है. अब आप ही बताएं अमेरिका धर्मनिरपेक्ष देश है या सांप्रदायिक?
भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों की भावनाओं का सम्मान करना होना चाहिए. जब मैं कहता हूं कि सभी धर्मों में, जिसमें हिन्दू भी शामिल हैं, तो यह बात एकतरफा नहीं होनी चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि केवल विशेष समुदायों की भावनाओं का सम्मान किया जाए और दूसरों को अस्वीकार या अनदेखा कर दिया जाए. 70 साल में हमने इसी तरह की धर्मनिरपेक्षता देखी है जिसमें विशेष समुदायों की भावनाओं का सम्मान किया गया. इसे धर्मनिरपेक्षता नहीं कहा जा सकता. यह नकली धर्मनिरपेक्षता है. भारत के संदर्भ में वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का मतलब है हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए, उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. हम सभी धर्मों के साथ एक जैसा व्यवहार करते हैं. हम इसी तरह की धर्मनिरपेक्षता का पालन करते हैं. और यहां सिर्फ न्यायपालिका है जो इस तरह के मुद्दों पर अंतिम मध्यस्थ होती है. किसी और कि इसमें संलिप्तता कहां है? क्या सरकार दखल दे रही है?
यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका एक ऐतिहासिक संदर्भ है और मैं वास्तव में चाहूंगा कि आप इस पर विस्तार से चर्चा करें. अयोध्या को विश्व हिन्दू परिषद ने अपनाया और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने इसे लेकर एक आंदोलन खड़ा किया. ज्ञानवापी मस्जिद और कृष्ण जन्मभूमि के मामले में ऐसा नहीं हो रहा है. इस अंतर को कैसे समझा जाए?
राम माधव:- अयोध्या मामले में भी आपको याद होगा आजादी के तुरंत बाद 1949 में मामले को लेकर आंदोलन शुरू हो गया था. तीन गुंबदों के भीतर श्रीराम लला प्रकट हो गए तब जाकर पूरा मामला शुरू हुआ. अदालतों में तब केस चले, कानूनी कार्यवाही हुई और छिट-पुट आंदोलन भी हुए. लेकिन 80 के दशक तक कोई भी सार्वजनिक संगठन इसमें हिस्सा लेने के लिए आगे नहीं आया. राम जन्मभूमि आंदोलन एक लोकप्रिय आंदोलन था. यह इसलिए शुरू हुआ क्योंकि लोगों की अपनी इच्छा थी और उन्होंने अपनी भावनाओं को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया. बाद में वह सब अदालत की शरण में पहुंचे. इसके बाद लगभग तीन दशकों के बाद यह एक बड़ा और लोकप्रिय आंदोलन बन गया. इसलिए हम देखते हैं कि ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि मामले को भारत का आम नागरिक अदालतों के माध्यम से राहत की मांग कर इसे आगे बढ़ा रहा है.
ऐसे में इस समय देश की व्यापक एकता के हित में और हम सभी के हित में यही होगा कि दोनों समुदाय एक साथ आयें और खुले दिमाग से बगैर कठोरता या हठधर्मिता के गंभीर चर्चा करें. अगर हम एक साथ आते हैं तो मुझे पूरी उम्मीद है कि इन मुद्दों को बहुत ही सौहार्दपूर्ण तरीके से हल किया जा सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
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