सम्पादकीय

क्या रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर छठी शताब्दी के चीनी गुरु सून त्ज़ु का प्रभाव है

Gulabi Jagat
28 March 2022 9:11 AM GMT
क्या रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर छठी शताब्दी के चीनी गुरु सून त्ज़ु का प्रभाव है
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जैसे-जैसे यूक्रेन में दुनिया की दिलचस्पी और उससे उपजी पीड़ा का असर कम होता जा रहा है
बिक्रम वोहरा।
जैसे-जैसे यूक्रेन (Ukraine) में दुनिया की दिलचस्पी और उससे उपजी पीड़ा का असर कम होता जा रहा है, यह साफ हो गया है कि यूक्रेन को अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ रही है और पुतिन (Vladimir Putin) जैसा चाहें वैसा कर रहे हैं. पुतिन को सद्बुद्धि आएगी और वह सदियों से चले आ रहे युद्ध के बुनियादी नियमों का पालन करेंगे या अपने घमंड में वे दूर निकल आए हैं यह अभी देखा जाना बाकी है, मगर छठी शताब्दी में चीनी युद्ध गुरु रहे सून त्ज़ु (Sun Tzu) ने ये बताया है कि ऐसे वक्त में कौन सी मिलिट्री रणनीति अपनानी चाहिए.
युद्ध पर पहली और समग्र टिप्पणी:
"बिना लड़े ही दुश्मन को वश में करना सबसे बेहतर युद्ध कौशल है." पुतिन ने लंबे समय तक इस उम्मीद में इंतजार किया कि यह विकल्प काम कर जाएगा. विनाश से कुछ भी प्राप्त नहीं होता. सून त्ज़ु कहते हैं, "सबसे अच्छी बात दुश्मन देश को संपूर्ण और बगैर नुकसान के अपने देश में मिलाना है; उसे बर्बाद या नष्ट करना सही नहीं है." पुतिन ने इस सलाह पर गौर नहीं किया, मगर उन्हें एक बार संदेह का लाभ दिया जा सकता है. चीनी रणनीतिकार विस्तार से बताते हैं: यदि आप दुश्मन को जानने के साथ खुद को भी जानते हैं तो आपको सौ लड़ाइयों के परिणाम से भी डरने की जरूरत नहीं है. अगर आप खुद को जानते हैं लेकिन दुश्मन को नहीं तो हर जीत पर आपको भी एक हार का सामना भी करना पड़ेगा. अगर आप न तो दुश्मन को जानते हैं और न ही खुद को तो आप हर लड़ाई हारेंगे.
पुतिन अपने दुश्मन को जानते थे. वे जानते थे कि न तो नाटो और न ही यूरोपीय राष्ट्र रूस की ताकत का मुकाबले करने के लिए लड़ाई के मैदान में आगे आएंगे. वे यह भी जानते थे कि प्रतिबंधों से पार पाया जा सकता है और इस वक्त सर्दी भी नहीं है जब कमियों से जूझना मुश्किल होता है.
ट्रॉय के युद्ध वाले ट्रोजन हॉर्स की तरह
सून त्ज़ु पांचवें कॉलम के लाभ की बात करते हैं. ट्रॉय के युद्ध वाले ट्रोजन हॉर्स की तरह. लुहान्स्क और डोनेस्क प्रांत में पुतिन के ही लोगों का नियंत्रण था. यह जानते हुए कि सून त्ज़ु ने जो कहा है वो नियम अब भी लागू होता है, पुतिन ने डोनोस्क और लुहान्स्क के लोगों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया. कम ताकत होने पर भी हठ से लड़ाई लड़ी जा सकती है मगर आखिर में ज्यादा मजबूत सेना की ही जीत होती है.
यूक्रेन की जनता कितनी भी बहादुरी से लड़ें वो हार जाएगी क्योंकि उनका समर्थन केवल दूर से किया जा रहा है. पुतिन ने दुनिया की उस आशा का भी फायदा उठाया कि वे केवल धमकी देंगे हमला नहीं करेंगे. सून त्ज़ू फिर से: विजयी योद्धा पहले जीतते हैं और फिर युद्ध में जाते हैं, जबकि पराजित योद्धा पहले युद्ध में जाते हैं और फिर जीतना चाहते हैं. पहली गोली लगने से पहले ही पुतिन को पता था कि जीत उनकी होगी. कोई दखल नहीं देगा. सभी भौंक रहे थे मगर काटने की हिम्मत किसी में नहीं थी.
पुतिन और सून त्ज़ु के रास्ते कहां अलग हो जाते हैं
इस जगह आकर पुतिन और सून त्ज़ु के रास्ते अलग हो जाते हैं. आक्रमण करने के बाद पुतिन के पास एक बिखरा हुआ यूक्रेन है, शहर के शहर बमबारी के बाद गुमनामी में डूब गए हैं, बड़ी आबादी विस्थापित हो गई है और बुनियादी ढांचे को इतना नुकसान पहुंचा है कि उसे पुरानी स्थिति में लाने में पीढ़ियां लगेंगी. पुतिन पर दुनिया भर का कलंक लग गया है और जमीन का एक बड़ा टुकड़ा मलबे में तब्दील हो गया है – मानवता और संपत्ति दोनों के ही लिहाज से. पुतिन युद्ध में अरबों खर्च कर रहे हैं मगर यह अच्छी सौदाबाजी नहीं कही जा सकती. पुतिन को जीत के बाद भी बदले में एक टूटा फूटा इलाका मिलेगा जो किसी काम का नहीं है. वो अपना सम्मान भी इस दौरान खो चुके हैं.
अपनी किताब में सून त्ज़ु ने दुश्मन को निकलने का रास्ता देने की बात कही है. वे कहते हैं; अपने प्रतिद्वंदी को पीछे हटने के लिए एक रास्ता जरूर छोड़ना चाहिए. जब आप किसी सेना को घेरते हैं तो एक रास्ता खुला छोड़ दें. पहले से हताश दुश्मन पर ज्यादा दबाव नहीं बनाएं.
पुतिन ने ज़ेलेंस्की को रास्ता नहीं दिया है जो उनके लिए ग्रीस के हीरो एकिलीज की कमजोर एड़ी की तरह हो गया है. उन्होंने वलोदिमिर ऑलेक्ज़ेंडरोविच ज़ेलेंस्की को इज्जत बचाने के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा है. ऐसे में ज़ेलेंस्की के पास आखिर तक युद्ध के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है. बुरी तरह से विनाश और 40 लाख शरणार्थियों के साथ पुतिन ने रूस के लिए भी बड़ी समस्या पैदा कर दी है. ये समस्या पुतिन के बाद भी लंबे समय तक रहेगी. अगर पुतिन सीधा रास्ता नहीं देते तो कम से कम एक उबड़-खाबड़ पतली पगडंडी भर रास्ता तो छोड़ ही सकते थे कि जेलेंस्की इज़्ज़त के साथ युद्ध से बाहर निकल आते.
अब आइए युद्ध के बुनियादी नियमों को जानें जो हाल की शताब्दियों तक सही साबित हुए.
1. वह जीतेगा जो जानता है कि कब लड़ना है और कब नहीं.
क्या पुतिन ने समझदारी से स्थिति का आकलन किया या उन्होंने केवल इस गुस्से में आक्रमण का निर्णय लिया कि उन्हें लगा कि नाटो उनके आस-पास एक घेरा बना रहा है. सचमुच में क्या चौतरफा हमला जरूरी था? इस पर लोग चर्चा कर रहे हैं और एक देश जो रूस का समर्थन कर रहा है वह है चीन. बावजूद इसके फैसला साफ नहीं है.
2. वह जीतेगा जो जानता है कि बेहतर और कमजोर दोनों तरह की ताकतों को कैसे संभालना है.
क्या रूस ने बहुत पहले ही पता लगा लिया था कि कोई बड़ी ताकत उससे लड़ने आगे नहीं आएगा? यूक्रेन के लोग रोमांटिक लोककथाओं के पात्रों की तरह खुद को खत्म कर रहे हैं. ऐसे विरोधी के लिए पुतिन को चालीस किलोमीटर लंबे सप्लाई कॉलम बनाने की जरूरत नहीं थी.
3. वह जीतेगा जिसकी सेना में ऊपर से नीचे तक सभी में एक ही भावना हो
सूचना युद्ध से ऐसा प्रतीत होता है जैसे रूसी सैनिक परेशान है. उनका मोहभंग हो चुका है और वे केवल एक कॉफी और सैंडविच पर समर्पण कर देंगे. मगर छिटपुट घटना पूरे समूह के परेशान होने का प्रमाण नहीं है. अगर बेचैनी हो तब भी कोई सिपाही इसे उजागर करने वाला नहीं है.
4. वह जीतेगा जिसने खुद तैयारी की हुई है और दुश्मन की तरफ घात लगा कर उस तरफ से लापरवाही का इंतजार कर रहा है.
क्या हम पुतिन को इसके लिए श्रेय देंगे कि उन्होंने लंबा इंतजार किया और सून त्ज़ु की भाषा में अपनी गोटियों को सही जगहों पर बैठाया और ऐन वक्त पर आश्चर्यचकित करते हुए आक्रमण किया.
5. वह जीतेगा जिसके पास सैन्य क्षमता है और जो संप्रभु हो
इसमें दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है. पुतिन खुद मजबूत और संप्रभु हैं. रूस में उनके ऊपर कोई और नहीं है.
6. लंबे समय तक युद्ध से किसी देश को लाभ होने का कोई उदाहरण सामने नहीं है.
21वीं सदी में सेनाओं की मारक क्षमता को देखते हुए यह एक लंबा युद्ध है. लोगों की अपेक्षा से ये कहीं ज्यादा लंबा खिंच गया है. यह कैसे और कब रुकेगा?
शायद यह सबसे डरावना सवाल है जिसका जवाब खुद पुतिन के पास भी नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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