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सम्पादकीय
क्या हमारी आस्था इतनी कमजोर है कि आहत होकर हम बार-बार हिंसक बन जाएं?
Shiddhant Shriwas
26 Oct 2021 1:40 PM GMT
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प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने आधिकारिक बयान जारी करते हुए “हिंसा की इस घटिया हरकत, शोषण और बदला लेने की प्रवृत्ति” की निंदा की है
किसी की आस्था पर चोट पहुंचाने का क्या अर्थ होता है? इस प्रश्न का जवाब देना कठिन हो जाता है क्योंकि आस्था का किसी व्यक्ति या वस्तु की तरह कोई मूर्त स्वरूप नहीं होता. यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि उसकी आस्था पर चोट पहुंचाई गई है, तो उसके इस दावे को खारिज करना मुश्किल हो जाता है. जीवन की कठिनाइयों को सामना करने में आस्था एक आंतरिक शक्ति के रूप में काम करती है लेकिन कभी-कभी यह आस्था रूढ़ि में बदल जाती है. और जब ऐसा होता है तो आस्था अपनी वास्तविक सकारात्मक शक्ति को खोकर महज वाद-विवाद और लड़ाई का विषय बन जाती है.
फिल्म निर्माता प्रकाश झा (Prakash Jha) और एक्टर बॉबी देओल (Bobby Deol) को इन दिनों बजरंग दल की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है. बजरंग दल के कार्यकर्ताओं का दावा है कि झा और देओल की वेब सीरीज 'आश्रम-3' हिंदुत्व पर चोट पहुंचाने वाली सीरीज है. खबरों के मुताबिक, बजरंग दल के कार्यकर्ता फिल्म सेट में तोड़फोड़ कर, झा के चेहरे पर कालिख पोत कर और उनके क्रू मेंबरों को पीटकर अपने दावे को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें देओल की तलाश है. यह सीरीज एक धूर्त हिंदू धार्मिक उपदेशक के बारे में है.
प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की है
दिलचस्प है कि प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने आधिकारिक बयान जारी करते हुए "हिंसा की इस घटिया हरकत, शोषण और बदला लेने की प्रवृति" की निंदा की है, और कहा है कि यह कानून-व्यवस्था का मामला है जिससे आर्थिक गतिविधियों को नुकसान पहुंच रहा है. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहुंची चोट के बारे में इसमें कुछ नहीं कहा गया है. हालांकि बयान में साफ कहा गया कि "यह कोई साधारण घटना नहीं है," लेकिन इसमें धार्मिक भावनाएं आहत होने को हथियार बनाए जाने और ऐसी घटनाओं के खिलाफ 'कानूनी प्रक्रिया के अभाव' के बारे में कुछ नहीं कहा गया.
बयान के मुताबिक, "फिल्म निर्माण से स्थानीय अर्थव्यवस्था को फायदा होता है, रोजगार और पर्यटन को बढ़ावा मिलता है, इसलिए भारत और पूरी दुनिया में सरकारी तंत्र निर्माताओं को आकर्षित करने के लिए नीतियां बनाता है." गिल्ड ने दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने और प्रोडक्शन यूनिट को सुरक्षा देने की मांग की, लेकिन बड़ी चतुराई से क्रिएटिव फ्रीडम को बचाने की जरूरत पर बात करने से बचता नजर आया.
पद्मावत और तांडव के लिए भी हुआ था बवाल
मैं यहां जिस तरह की आलोचना कर रहा हूं, वह तब आसान नहीं है जब स्वयं का जीवन और संसाधन सुरक्षित नहीं होता. निर्माताओं, वितरकों, प्रदर्शनकर्ताओं और एक्टरों के लिए बजरंग दल से लड़ना बहुत ही कठिन है, क्योंकि उनको इस बात का डर हो सकता है कि जब उनकी फिल्म तैयार हो रही होंगी या रिलीज होंगी तो उनको भी निशाना बनाया जा सकता है. किसी भी मामले में आस्था एक संवेदनशील विषय है, इसलिए फिल्म इंडस्ट्री के अधिकतर लोग आत्म-रक्षा को चुनते हैं.
झा की 'आश्रम-3 के सेट पर हुआ हमला, संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' (2018) पर राजपूत करणी सेना के हमले की याद दिलाता है. करनी माता देवी के नाम पर बनी इस सेना का दावा था कि यह फिल्म राजपूतों के इतिहास को विकृत करती है. तब उन्होंने भंसाली पर हमला किया था और राजपूत रानी की भूमिका अदा करने वाली दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी भी दी थी. ऐसे ही अब्बास अली जफर की वेब सीरीज 'तांडव' (2021) को भी विवादों का सामना करना पड़ा था जब बीजेपी के नेताओं ने यह कहते हुए इस प्रतिबंध की मांग की थी कि यह सीरीज भगवान शिव का मजाक उड़ाती है और यह हिंदुओं की भावनाओं पर चोट पहुंचाती है.
इतनी आसानी से हमारी भावनाएं आहत क्यों होती हैं
पेंगुइन इंडिया ने हाल में टीजे जोसेफ की किताब 'A Thousand Cuts' जारी की है, जिसका नंदकुमार के ने मलयालम से इंग्लिश में अनुवाद किया है. यह किताब केरल के एक ईसाई प्रोफेसर के वास्तविक जीवन पर आधारित है – इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने जिनके हाथों को काट दिया था. क्यों? क्योंकि 2010 में उन्होंने एक परीक्षा में एक प्रश्न शामिल किया था, जिसके बारे में माना गया कि उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद, अल्लाह और इस्लाम को बदनाम करने की मंशा से जानबूझकर उस प्रश्न को परीक्षा पत्र में शामिल किया.
इस तरह की घटनाएं लगातार क्यों हो रही हैं? भले ही हम आसानी से यह कह दें कि राजनीति और धर्म की मिलावट ही ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है. लेकिन हमें यह भी देखने की जरूरत है कि हमारी भावनाएं इतनी आसानी से चोटिल क्यों हो जाती है? क्या आस्था हमें हर प्रकार के विरोधाभास का सामना करने की शक्ति नहीं देती? यदि हमारी आस्था के बारे में कोई ऐसा कुछ आपत्तिजनक कह भी दे, तो क्या हम अपनी भावना को इस तरह व्यक्त नहीं कर सकते कि जख्म को और गहरा न किया जाए? हम अपनी आस्था को अडिग कैसे बना सकते हैं?
जब मैं इन प्रश्नों के बारे में सोचता हूं तो मुझे 8वीं सदी के भारतीय दार्शनिक शांतिदेव के शब्द याद आते हैं. वह बौद्ध संत थे और नालंदा विश्वविद्यालय के छात्र थे. अपनी मशहूर कृति 'बोधिचर्यावतार' (बोधिसत्व जीवन के नियम) – जिसे राजी रमन्ना ने संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया है – में वो कहते हैं:
"जिन लोगों ने मुझे बुरा भला कहा
या मुझे कोई हानि पहुंचाई,
और जिन्होंने मेरा मजाक उड़ाया और अपमान किया
उन्हें पूर्ण जागृत होने का सौभाग्य प्राप्त हो."
Shiddhant Shriwas
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