सम्पादकीय

क्या नीतीश कुमार 'जंगलराज' का राजा बनने की तैयारी कर रहे हैं?

Gulabi
8 Jan 2022 8:18 AM GMT
क्या नीतीश कुमार जंगलराज का राजा बनने की तैयारी कर रहे हैं?
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अक्सर सुना जाता है कि राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं होता, ना तो कोई स्थायी दोस्त होता है और ना ही स्थायी दुश्मन
अजय झा.
अक्सर सुना जाता है कि राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं होता, ना तो कोई स्थायी दोस्त होता है और ना ही स्थायी दुश्मन. कहने और सुनने में यह काफी अच्छा लगता है, पर जब भी कोई नेता यह बात बोलता है तो साफ हो जाता है कि कहीं ना कहीं उसकी नियत में खोट है और वह जनता को चुना लगाने की तैयारी में जुटा है. बिहार में भी इनदिनों कुछ इस तरह की ही बातें सुनी जा रही है और कयास लगाए जाने लगा है कि जनता दल-यूनाइटेड (JDU) और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) फिर से एक बार साथ आने वाले हैं.
बिहार में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व में एनडीए (NDA) की सरकार बने सिर्फ 14 महीने ही गुजरा है और अभी से इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि नीतीश कुमार एक बार फिर से भारतीय जनता पार्टी (BJP) से पल्ला झाड़ कर आरजेडी के साथ जाने का मन बनाने लगे हैं. एक बात जो नीतीश कुमार के सिवा सभी जानते और समझते हैं कि गठबंधन की सरकार में किसी एक दल का एजेंडा लागू नहीं हो सकता. बिहार के एनडीए सरकार में चार दल शामिल हैं, और सभी की सोच और एजेंडा अलग है. पर नीतीश कुमार अपने जातिगत जनगणना के एजेंडे पर अड़ गए हैं जिस कारण जेडीयू और बीजेपी के संबंधों में खटास आने लगी है.
गठबंधन और किसी एक पार्टी की बहुमत सरकार में फर्क होता है
पहले देखते हैं कि गठबंधन और किसी एक पार्टी की बहुमत सरकार में क्या फर्क होता है. बीजेपी की जब स्थापना हुई थी तब से ही उसका अपना एजेंडा था, चाहे वह जम्मू और कश्मीर से धारा 370 हटाने का हो, तीन तलाक का मुद्दा हो या अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का हो. पर जब 1998 में एनडीए की सरकार बनी तो बीजेपी बहुमत के लिए अपने सहयोगी दलों पर आश्रित थी. ऐसा नहीं था कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को ये मुद्दे अच्छे नहीं लगते थे, अगर ऐसा होता तो ये सब बीजेपी का मुद्दा कभी बनता ही नहीं.
पर इन सभी हिंदूवादी मुद्दों को अलग रख कर बीजेपी सरकार चलती रही. पर जब 10 साल के लम्बे अंतराल के बाद एक बार फिर से एनडीए की सरकार 2014 में बनी तो परिस्थिति भिन्न थीं. सरकार एनडीए की ही थी, पर बीजेपी को अपने दम पर बहुमत हासिल था. हिन्दूवादी मुद्दों को तिजोरी से निकला गया और उन्हें लागू करने की तैयारी शुरू हो गयी और अब तक इन सभी मुद्दों पर काम संपन्न हो चुका है. बीजेपी को इस बात की फिक्र नहीं थी कि उसके सहयोगी दल इन मुद्दों पर उसके साथ थे या इसके विरोध में थे.
जातिगत जनगणना के मुद्दे पर बढ़ा विवाद
पर नीतीश कुमार की स्थिति अलग है. नीतीश कुमार ने पिछले वर्ष भले ही सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच जब उन्होंने जीतन राम मांझी को 9 महीनों के लिए कुर्सी सौंप दी थी और स्वयं सुपर सीएम बन गए थे, एक तरह से नीतीश कुमार 2005 से बिहार में सत्ता में हैं. कभी बीजेपी के साथ, कभी आरजेडी के साथ और एक बार आरजेडी के समर्थन से अल्पमत की सरकार चला चुके हैं. पर जेडीयू को आज तक बिहार में बहुमत नहीं मिला है.
2020 के चुनाव में जेडीयू के सीटों की संख्या में भारी गिरावट आई, 2015 के चुनाव की तुलना में 28 सीटों की कमी आई और 115 सीट पर लड़ने के बावजूद भी जेडीयू को जीत सिर्फ 43 सीटों पर ही हासिल हुई. वहीं बीजेपी के खाते में 110 सीटें गईं और बीजेपी को 74 सीटों पर जीत मिली. इसी से साफ़ हो जाता है कि गठबंधन में होने के बावजूद भी बिहार के मतदाताओं ने जहां बीजेपी को समर्थन दिया था, वहीं नीतीश कुमार से बिहार की जनता खुश नहीं थी. बीजेपी ने अपना बड़ा दिल दिखाते हुए यह फैसला लिया कि चूंकि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी और जीत एनडीए की हुई, लिहाजा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे. जनता की नज़रों से गिरने और बीजेपी की मेहरबानी से मुख्यमंत्री बनने के बावजूद नीतीश कुमार ने अपने एजेंडे को किनारे नहीं किया, जिसका नतीजा है जेडीयू और बीजेपी के बीच जातिगत जनगणना के मुद्दे पर फासला बढ़ने लगा है.
आरजेडी के साथ फिर से आएंगे नीतीश कुमार
आरजेडी को भी इसी समय का इन्तिज़ार था. आरजेडी ने घोषणा कर दी कि जातिगत जनगणना और बिहार को स्पेशल राज्य का दर्ज़ा दिए जाने की मांग पर वह जेडीयू के साथ है. केंद्र सरकार ने पिछले वर्ष सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर साफ़ कर दिया था कि सिवा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ना तो उसकी जातिगत जनगणना कराने की मंशा है और ना ही कोई योजना, और इसके पक्ष में केंद्र सरकार ने अपना कारण भी बताया था.
आज जहां नरेन्द्र मोदी सरकार इस प्रयास में जुटी हुई है कि जाति और धर्मं से ऊपर उठ कर भारत के सभी लोग भारतीय बन जाएं ताकि देश मजबूत हो सके, वहीं दूसरी तरफ कई ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो जातिगत राजनीति ही करना चाहते हैं, जिसमें जेडीयू और आरजेडी भी शामिल हैं. अगर केंद्र सरकार जातिगत जनगणना करने से मना भी कर देती है तो नीतीश कुमार बिहार सरकार की तरफ से अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करना चाहते हैं. इस बात का फैसला कैबिनेट की मीटिंग में ही लिया जा सकता है और बीजेपी इसके विरोध में है. नीतीश कुमार को शायद यह लगता है कि जातिगत जनगणना से अगर उन्हें सही डाटा मिल जाए तो वह कुछ और ऐसा खेल कर सकते हैं ताकि भविष्य में जेडीयू को अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल जाए.
नीतीश कुमार को जनादेश का अपमान करते रहे हैं
वैसे बता दें कि नीतीश कुमार को जनादेश से कुछ लेना देना नहीं होता. 2010 का चुनाव उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन में लड़ा था, पर बाद में बीजेपी की सरकार से छुट्टी कर आरजेडी के बाहरी समर्थन से अल्पमत सरकार चलाते रहे. 2015 के चुनाव में वह महागठबंधन में शामिल थे, जिसे बहुमत मिला. जनादेश गठबंधन का था पर बाद में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिल कर एनडीए की सरकार बना ली. जो नेता दो बार जनादेश को ठेंगा दिखा चुका हो, उससे यह उम्मीद करना कि वह तीसरी बार ऐसा नहीं करेगा ज्यादा आशावादी होने जैसा है.
आरजेडी 2020 के चुनाव परिणाम आने के बाद से ही नीतीश कुमार पर डोरे डालने की कोशिश कर रही थी, जिसमें उसे अब कामयाबी मिलती दिख रही है. यह भी संभव है कि नीतीश कुमार बीजेपी पर दबाव डालना चाहते हों कि इस वर्ष होने वाले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में अगर राष्ट्रपति पद के लिए नहीं तो कम से कम उपराष्ट्रपति पद के लिए उनका मनोनयन हो जाए. और अगर बीजेपी नहीं मानी तो फिर आरजेडी का ऑफर तो है ही. कुछ भी हो सकता है, नीतीश कुमार और चिराग पासवान तेजस्वी यादव के कारण एक साथ दिख सकते हैं, क्योंकि राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं होता और ना कोई स्थायी दोस्त होता है ना ही स्थायी दुश्मन.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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