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- पाक में कानून का इकबाल...
आदित्य चोपड़ा: पाकिस्तान में 9 अप्रैल की आधी रात के बाद इसकी संसद में बैठ कर जो इबादत लिखी गई है उससे इस मुल्क में इसके तामीर में आने के बाद पहली बार संविधान की सर्वोच्चता साबित हुई है। वैसे तो पाकिस्तान 15 अगस्त, 1947 में आने के बाद संयुक्त रूप से कभी एक कौम या मुल्क नहीं बन सका क्योंकि मुहम्मद अली जिन्ना जो फलसफा इस मुल्क के कयाम के लिए लेकर चला था उसकी बुनियाद कोई 'भौगोलिक' नहीं थी बल्कि 'मजहब' थी जिसकी वजह से पंजाबी, बंगाली, सिन्धी व पश्तूनी जनता को आपस में ही लड़ा कर खयाली तौर पर एक ही मजहब की अक्सीरियत वाले लोगों का मुल्क पाकिस्तान पयाम किया गया। इनमें से 1971 में बंगाल के लोगों ने विद्रोह करके अपना अलग बांग्लादेश बना लिया और जिन्ना के मजहबी फलसफे को कब्र में गाड़ दिया। इसके बाद भारत के संयुक्त पंजाब को तोड़ कर बने बचे-खुचे पश्चिमी पाकिस्तान में 1973 काे संविधान बनाया गया और उसमें संसदीय लोकतन्त्र को इस्लामी नजरिये के भीतर काबिज करने की कोशिश की गई। यह काम उस समय के पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री स्व.जुल्फिकार अली भुट्टो ने किया। मगर भुट्टो भी भीतर से पाकिस्तान को इस्लामी मजहबी रवायतों से बाहर नहीं निकालना चाहते थे और अपने मुल्क की कट्टरपंथी 'मुल्ला ब्रिगेड' को भी खुश करना चाहते थे जिसकी वजह से उन्होंने लोकतन्त्र के उसूलों का इस्लामीकरण किया और अगले साल ही 'इस्मायली' मुसलमानों को कानूनी तौर पर 'गैर मुस्लिम' करार दे दिया। इसी वजह से पाकिस्तान के लोकतन्त्र को आधा-अधूरा लोकतन्त्र कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 1972 में बांग्लादेश युद्ध के बाद जब जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी मरहूम बेनजीर भुट्टों के साथ शिमला में भारत से समझौता करने आये और बदले में ढाका में कैद किये गये अपने एक लाख सैनिकों को छुड़ा कर ले गये तो उन्होंने वापस कराची में पहुंच कर एक बहुत बड़ी जनसभा को सम्बोधित किया और उसे खिताब करते हुए कहा 'मैं मानता हूं कि हमारी शिकस्त हुई है और तस्लीम करता हूं कि पिछले एक हजार साल की तवारीख में हमारी हिन्दुओं से हुई यह सबसे बड़ी शिकस्त है'। मगर यह सिद्ध नहीं होता था कि भुट्टो ने लोकतन्त्र को इसकी सच्ची भावना के साथ पाकिस्तान में लाजिम करार दे दिया था। नये संविधान में भी बिना किसी भेदभाव के नागरिकों के निजी हकों और प्रत्येक नागरिक की स्वतन्त्रता और आत्म गौरव जैसे अधिकार नदारद थे। मगर संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए लोकतान्त्रिक प्रणाली के अन्य उपकरणों की साजगारी को उधार ले लिया गया था जिनमें स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना प्रमुख थी और उसका संविधान के संरक्षक का किरदार प्रमुख था। मोटे अर्थों में यह कहा जा सकता है कि इस देश को न्यायपालिका को यह अधिकार दे दिया गया था कि वह देखे और सुनिश्चित करे कि पाकिस्तान के सभी इदारे अर्थात संस्थाएं कानून या संविधान के दायरे में रह कर ही काम करें। जाहिर तौर पर संसदीय प्रणाली में लोगों द्वारा चुनी हुई संसद के अधिकार संविधान के तहत ही मुकर्रर होते हैं मगर बेअख्तियार नहीं होते क्योंकि संसद द्वारा बनाये गये हर कानून को भी संविधान की कसौटी पर खरा उतरना होता है। यही वजह है कि लोकतान्त्रिक देशों में संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी सर्वोच्च न्यायालय गैर संवैधानिक करार दे देता है। मगर पिछले 74 सालों में इस मुल्क में बार-बार जब भी हुकूमत पर काबिज लोगों ने लोकतन्त्र के इस प्रावधान का बेजा फायदा उठाते हुए कानून शिकनी (गैर संवैधानिक कार्य) किया तो सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ढीलमढाला रुख अख्तियार करते हुए 'नजरियाए- जरूरत' का सिद्धान्त इजाद किया और जो कुछ भी हो चुका उस पर धूल डालते हुए आगे का रास्ता बता दिया। इसकी वजह से पाकिस्तान में कभी संविधान की अनुपालना को क्रियात्मक रूप में नहीं ढाला जा सका। मगर विगत दिनों पहली बार इस देश के इतिहास में पहली बार इसके सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी संसद में ही संविधान के खिलाफ इसके उपाध्यक्ष की की गई कार्रवाई का स्वतः संज्ञान लेते हुए जो तवारीखी फैसला दिया उससे इस मुल्क के वजीरे आजम इमरान खान के होश ठिकाने आ गये और इसे इसी वजह से अपनी हुकूमत से हाथ धोना पड़ा। मामला बहुत सीधा-सादा था कि राष्ट्रीय एसेम्बली में इमरान खान की पार्टी का बहुमत समाप्त हो गया था और विपक्ष के पास बहुमत आ गया था जिसकी वजह से उसके नेता शाहबाज शरीफ ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव दाखिल करा दिया था। मगर इमरान खान पिछले दरवाजे से ही एसेम्बली के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को इस प्रस्ताव पर मतदान न कराने की तरकीबें सुझा रहे थे और अमेरिका में अपने ही मुल्क के सफीर की चिट्ठी का हवाला दिलवा कर संसद की कार्यवाही को ठप्प करा रहे थे। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 9 अप्रैल के दिन अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान कराने का हुक्म जारी करके पूरी संसद को अपने हुक्म से बांध दिया था। 9 अप्रैल को रात पौने 12बजे तक अपने हुक्म पर अमल न होता देख रात 12 बजे सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खोल दिये गये। तब कहीं एसेम्बली के अध्यक्ष ने अपने पद से इस्तीफा दिया और नये सभापति ने अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान कराया जिसमें इमरान खान का पत्ता कट गया और संसद से ही पैगाम गया कि संविधान की ताबेदारी मुकम्मिल हो गई है। इसी वजह से इस पूरे घटनाक्रम को खास अन्दाज में देखा जा रहा है। वैसे भी उस मुल्क को मुल्क नहीं कहा जा सकता जहां संविधान या कानून का पालन न होता हो। एेसी जगह को सिर्फ लोगों का जमघट कहा जाता है क्योंकि लोकतन्त्र में कानून का इकबाल ही मुल्क होने की पहली शर्त होती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दहशतगर्दी छोड़ कर पाकिस्तान एक मुल्क बनने की कोशिश करेगा।