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- विनाश को निमंत्रण
Written by जनसत्ता: 'आज के समय में प्रदूषण, असामयिक भारी वर्षा, सुनामी, भूचाल, सूखा, नई-नई किस्म की बीमारियां आदि एक आम बात हो गई है। पहले फल-सब्जियां मौसम के मुताबिक होती थीं, आजकल कृत्रिम तरीके इस्तेमाल करके इन्हें कभी भी और कहीं भी पैदा किया जा सकता है। उत्पादन को बहुत ज्यादा बढ़ाने के लिए रासायनिक पदार्थों तथा वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। गर्मी में सर्दी और सर्दी में गर्मी का मजा लिया जा सकता है। इससे लगता है कि मनुष्य ने वैज्ञानिक प्रगति के द्वारा कुदरत पर जीत हासिल कर ली है। लेकिन यह कितना सही है?
चीन की तरह रासायनिक क्रियाओं के द्वारा दुनिया के छप्पन और देश 'क्लाउड सीडिंग' का इस्तेमाल करके बनावटी तरीके से बरसात करके सूखे का मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे यहां कृत्रिम बारिश, बर्फबारी नियंत्रण, तापमान नियंत्रण, वनों का अंधाधुंध कटाव, नदियों में से रेता मिट्टी निकाल कर खनन करना, नदियों में उद्योगों द्वारा प्रयोग किए गए अवशेषों को छोड़ देना, पेट्रोल, तेल, गैस, कोयला, बिजली आदि का अंधाधुंध प्रयोग करके पर्यावरण को बिगाड़ने का जो काम किया जा रहा है।
यह उसी का ही परिणाम है कि बेमौसमी बरसात, बाढ़, सूखा, बर्फबारी, बहुत ज्यादा गर्मी और बहुत ज्यादा सर्दी पहले के मुकाबले में बढ़ते जा रहे हैं। पहाड़ों की बर्फ पिघलती जा रही है। जिन इलाकों में पहले सूखा पड़ता था, वहां पर छतों तक पानी बरसात की वजह से बढ़ने लगा है। यह अचंभा नहीं तो क्या है कि जो मानसून अब से काफी पहले वापस जा चुका होता था, वह देर तक रुका रहा और भारी बरसात के कारण सामान्य जनजीवन का सत्यानाश हुआ।
यह सब प्रकृति से छेड़छाड़ का ही प्रभाव है। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। वृक्ष काटे जा रहे हैं। कंक्रीट के जंगलों का प्रसार हो रहा है। आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में अधिक से अधिक ऊर्जा का इस्तेमाल हो रहा है। जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण ने सामान्य जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। इन सब बातों का ग्रीन हाउस गैसों के संतुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। समय-समय पर पर्यावरण की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन तो होते रहते हैं, उसमें फैसले भी होते हैं, लेकिन उन्हें लागू करने में पहले आप, पहले आप वाली नीति अब तक चल रही है।
दुनिया के बड़े-बड़े देश, जिनमें अमेरिका, यूरोपीय देश, रूस और चीन आदि आते हैं, वे अपने आर्थिक विकास के एजेंडे को धीमा नहीं करना चाहते। इसके बदले में वे विकासशील देशों से ही उम्मीद करते हैं कि पर्यावरण की रक्षा के लिए उपायों पर वही अमल करें। आजकल जिस तरह से रासायनिक प्रयोगों के द्वारा वैज्ञानिक प्रगति के फलस्वरूप कृत्रिम तरीके से बरसात, बर्फबारी, गर्मी, सर्दी आदि किए जा सकते हैं, उसमें कुछ लोगों को यह संदेह है कि अगर इस तकनीक का इस्तेमाल कोई देश शत्रु देशों के खिलाफ करने लगे तो भारी तबाही आ सकती है। यह विज्ञान का दुरुपयोग ही कहा जाएगा। इससे मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को पर्यावरण को बचाने के लिए मिल-बैठ कर उपाय सोचने ही नहीं, बल्कि बिना किसी के ऊपर दबाव डाले खुद से शुरुआत करनी चाहिए। प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देनी चाहिए। अधिक वन लगाने चाहिए, अनावश्यक इमारतें नहीं बनानी चाहिए, ऊर्जा का न्यूनतम प्रयोग करना चाहिए, वाहनों की संख्या और उनके प्रयोग पर पाबंदी लगानी चाहिए। आवश्यकताओं को सीमित करना चाहिए, ताकि उत्पादन कम करना पड़े और प्रदूषण कम फैले। वायु, जल आदि की स्वच्छता को बनाए रखना चाहिए।