सम्पादकीय

राष्ट्र के नियमों-कानूनों के दायरे में रहकर कार्य करें इंटरनेट मीडिया कंपनियां

Triveni
8 July 2021 6:35 AM GMT
राष्ट्र के नियमों-कानूनों के दायरे में रहकर कार्य करें इंटरनेट मीडिया कंपनियां
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महज डेढ़ दशक पहले शुरू हुआ ट्विटर क्या राष्ट्रों की संप्रभुता को चुनौती देने लगा है?

संजय पोखरियाल| महज डेढ़ दशक पहले शुरू हुआ ट्विटर क्या राष्ट्रों की संप्रभुता को चुनौती देने लगा है? हाल के दिनों में साइट ट्विटर ने जिस तरह का रवैया दिखाया है, उससे इस आशंका को ही बल मिल रहा है। यह मामूली बात नहीं है कि भारतीय संविधान के तहत शपथ ले चुके उस मंत्री का ट्विटर एकाउंट निलंबित कर दिया, जिन पर सूचना प्रौद्योगिकी को नियमित करने की जिम्मेदारी है।

ट्विटर की हिमाकत यहीं पर नहीं थमी, उसने भारतीय संप्रभुता की गारंटी देने वाली संसद की सूचना और संचार मामलों की समिति के अध्यक्ष तक का ट्विटर एकाउंट बाधित कर दिया। उससे भी बड़ी बात यह है कि इस बारे में उससे स्पष्टीकरण मांगा गया तो उसे देने में भी वह हीलाहवाली कर रहा है। ऐसे अनेक अवसर अभी सामने आए हैं जब उससे संबंधित मामलों के बारे में जवाब मांगा गया तो उसने इसकी अनदेखी तक की। तो क्या यह मान लिया जाए कि अपने भारी-भरकम यूजरों के चलते ये माइक्रोब्लागिंग साइटें खुद को स्थानीय कानूनों से ऊपर मानने लगी हैं?
अगर ऐसा है तो क्या इसकी वजह उसके भारी-भरकम यूजर आधार और उसके जरिये हो रही मोटी कमाई से मिली ताकत तो नहीं है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो इन दिनों भारतीय समाज और राजनीति को मथ रहे हैं। मौजूदा विभाजनकारी सोच से प्रभावित एक तबके को भले ही ये सवाल परेशान नहीं कर रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है। भारत में यह सवाल पूछा जाने लगा है कि आखिर किसी कंपनी को ऐसी ताकत कहां से मिलती है कि वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के उपराष्ट्रपति तक के इंटरनेट मीडिया हैंडल से छेड़खानी करने की हिम्मत कर सकता है
उपराष्ट्रपति के साथ ही संघ प्रमुख मोहन भागवत और संघ के पूर्व सर कार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी समेत संघ के पांच प्रमुख नेताओं के ट्विटर हैंडल से ब्लूटिक उस वक्त हटाया गया, जब नई नियमन व्यवस्था को लागू करने को लेकर सरकार और ट्विटर के बीच विवाद चल रहा है। इस बात को मानने की कोई वजह नहीं कि ट्विटर के अधिकारी संघ के इन पांच प्रमुख नेताओं की हैसियत को नहीं जानते हों। तो ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि ट्विटर ने एक तरह से भारत सरकार को चुनौती दी है? जिस तरह का उसका व्यवहार दिख रहा है, उससे लगता तो ऐसा ही है कि एक तरह से ट्विटर खुद को संप्रभु राष्ट्र की तरह देख रहा है। खुद को प्रोमोट करने में सबसे आगे : इंटरनेट मीडिया के मंच स्वयं को प्रोमोट करने के लिए खुद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार बताते नहीं थकते।
लेकिन जब किसी राष्ट्र की स्थानीय संस्कृति और राजनीति की बात होती है तो वे अपने इसी दावे को ही भूल जाते हैं। इसके लिए तब वे अपनी उस आंतरिक नियमावली का सहारा लेते हैं, जो उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वाधीनता, व्यापक जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के दावे के साथ बना रखी है। हालांकि जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की उनकी अपनी परिभाषा और सोच है। खासकर ट्विटर का जिस तरह का रुख रहा है, उसमें विरोधाभास और पक्षपात दोनों दिखता है। कथित लोकतांत्रिक मूल्य और व्यापक जनहित के नाम पर उसकी पाबंदी या ट्वीट हटाने के दायरे में ज्यादातर राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी ताकतें ही आती रही हैं। भारत के ही संदर्भ में देखें तो ट्विटर का पक्षपाती रवैया ही सामने आया है। इसलिए भारत में तो एक धारणा ऐसी बन गई है कि ट्विटर धुर वामपंथ से प्रभावित ऐसा मंच है, जो अपने कथित दिशा-निर्देशन के नाम पर सिर्फ दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी विचार को ही निशाना बनाता है।
उपराष्ट्रपति और संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों के ट्विटर हैंडल से ब्लूटिक हटाने को लेकर ट्विटर ने जो तर्क दिए, वे खुद उसके कार्यकलाप की निष्पक्षता पर ही सवाल उठाते हैं। ट्विटर का कहना था कि चूंकि इन हैंडल पर छह महीनों से कोई ट्वीट नहीं हुआ, इसलिए नियमानुसार ब्लूटिक यानी वैरीफाइड का निशान हटाया गया। ऐसा तर्क देते वक्त ट्विटर यह देखना भूल गया कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत को गुजरे एक साल हो गया, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी अरसा पहले दुनिया छोड़ गए, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल भी दुनिया में नहीं हैं। लेकिन इनके हैंडल पर ब्लूटिक कैसे चिपका पड़ा है?
यह बात अब छिपी नहीं है कि किसान आंदोलन के दौरान जनवरी में लालकिले पर हमला हो या फिर आंदोलनकारियों को जुटाने की बात हो, हर बार ट्विटर का ज्यादा सहारा लिया गया। तब ट्विटर का अपना अंदरूनी दिशा-निर्देश काम नहीं आया। उसे शायद यह लगता रहा कि आंदोलनकारी दुनिया को सकारात्मक ढंग से बदल रहे हैं। कुछ दिन पहले ट्विटर ने जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्र के ट्वीट को मैनपुलेटेड मीडिया हैशटैग के साथ पेश किया था तो इससे विपक्षी दल बेहद खुश थे। इसके बाद जब ट्विटर के दफ्तरों पर दिल्ली पुलिस ने नोटिस दिया तो इसे भारत का ही एक खेमा अभिव्यक्ति की स्वाधीनता मानकर सरकार पर हमलावर हो गया था।
राष्ट्र की अवधारणा को चुनौती : एक बात और नजर आ रही है। इंटरनेट मीडिया के मंच राष्ट्र की अवधारणा को भी चुनौती देते नजर आ रहे हैं। राष्ट्र के जो चार बुनियादी तत्व भूभाग, जनसंख्या, सरकार और संप्रभुता माने जाते हैं, इनमें से सिर्फ भूभाग उनके पास नहीं है। अन्यथा उनके पास भारी संख्या वाले यूजरों का आधार है। इनके जरिये मोटी कमाई हो रही है। जनवरी 2021 तक के आंकड़ों के मुताबिक ट्विटर पर करीब 18.6 करोड़ लोग सक्रिय हैं। अपने भारी यूजर आधार के चलते इंटरनेट मीडिया मंचों में फेसबुक का स्थान पहला है, जिसके करीब 2.74 अरब यूजर हैं। जबकि वाट्सएप के दो अरब यूजर हैं। अमेरिका में लगभग 6.93 करोड़ लोग ट्विटर का नियमित उपयोग करते हैं। भारत में यह संख्या करीब 1.75 करोड़ है और लगातार बढ़ ही रही है। पांच करोड़ से कुछ ज्यादा जापानी भी ट्विटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। ब्राजील में 1.62 करोड़ लोग इसका इस्तेमाल करते हैं तो जाहिर है कि अपने कथित दिशा-निर्देशों के बहाने ये कंपनियां राष्ट्रों के मामलों में परोक्ष रूप से दखल दे सकती हैं और वहां की व्यवस्था पर असर डाल सकती हैं।
तमाम इंटरनेट मीडिया कंपनियों की भावी मनमानी को संघ के वरिष्ठ प्रचारक और भाजपा के पूर्व संगठन महासचिव गोविंदाचार्य ने भांप लिया था। यही वजह है कि कुछ साल पहले उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी डालकर भारतीय और विदेशी इंटरनेट मीडिया कंपनियों को भारत में सर्वर लगाने का आदेश देने की मांग की थी। उनका तर्क था कि अगर भारत में उनके सर्वर होंगे तो भारत से होने वाली कमाई पर उन्हें नियमानुसार कर देना होगा और उनके यूजर के डाटा तक भारतीय व्यवस्था की पहुंच होगी।
वैसे यह भी कम विरोधाभास नहीं है कि जिस वामपंथी विचारधारा की ओर इंटरनेट मीडिया मंचों की सोच झुकी नजर आती है, उसी वामविचार से शासित देशों मसलन चीन आदि में इनकी पहुंच ही नहीं है। वहां इन पर पाबंदी है। यह भी विरोधाभास ही है कि उदारीकरण को पूंजीवाद के प्रसार का जरिया मानकर उसका विरोध करने वाली वामपंथी विचारधारा विशाल पूंजीवादी व्यवस्था बन चुके इंटरनेट मीडिया के मंचों का समर्थन करने में हिचक नहीं दिखाती। अभिव्यक्ति की सेलेक्टिव स्वाधीनता के समर्थन में इंटरनेट मीडिया का पूंजीवादी मंच उन्हें विरोधी नजर नहीं आता
अमेरिका में ट्रंप पर पाबंदी के खिलाफ बड़ा विरोध इसलिए नहीं हो पाया, क्योंकि तब अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हो रहा था और वहां की संप्रभुता की गारंटी संसद पर हमला हो चुका था। लेकिन नाइजीरिया ने राह दिखा दी है कि इंटरनेट मीडिया के मंच व्यापक जनहित और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के स्वघोषित सेल्फ-सेलेक्टिव विचारधारा को संप्रभु राष्ट्रों पर थोप नहीं सकते। इंटरनेट मीडिया मंचों की तुलना में कहीं ज्यादा गहरे तक लोकतांत्रिक हो चुके समाज की प्रतिनिधि भारत सरकार को भी इससे प्रेरणा लेनी ही होगी।
ट्विटर की सेलेक्टिव सोच वाली ताकत के पहले शिकार ईरान के नेता अली खुमैनी थे। वर्ष 2019 में उन पर ट्विटर ने पांबदी लगाई थी। यह बात और है कि कुछ ही दिनों में उसे बहाल कर दिया। इस साल 20 जनवरी को ट्विटर ने तब दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति रहे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ट्विटर हैंडल को भी बंद कर दिया था। उसका तर्क था कि उनके भड़काऊ बयानों से अमेरिका में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण में बाधा आई और संसद पर हमले हुए। हाल के दिनों में फेसबुक ने भी उनके एकाउंट पर पाबंदी लगा दी है। इसे लेकर डोनाल्ड ट्रंप हमलावर हैं। उन्होंने कहा है कि उन पर पाबंदी दरअसल अमेरिका के उन साढ़े सात करोड़ लोगों का अपमान है, जिन्होंने उन्हें वोट दिया था।
कुछ इसी तरह की सेलेक्टिव सोच के चलते नाइजीरिया से ट्विटर का बोरिया बिस्तर उठ गया है। नाइजीरिया में ट्विटर के 1.8 करोड़ यूजर थे। खनिज तेल से समृद्ध इस देश के इन यूजरों की सहायता से ट्विटर यहां मोटी कमाई कर रहा था। नाइजीरिया में भी ट्विटर ने अपने कथित लोकतांत्रिक दिशा-निर्देश का खेल खेला। वहां के गृहयुद्ध में विद्रोही गुटों के खिलाफ वहां के राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी ने एक ट्वीट में लिखा था कि 'जो आज बुरा बर्ताव कर रहे हैं, उन्हें उसी भाषा में समझाया जाना चाहिए, जिसे वो समझते हैं।' ट्विटर ने इस ट्वीट को अपनी गाइडलाइन का उल्लंघन बताते हुए हटा दिया था। इसके बाद सरकार ने अपने यहां ट्विटर पर अनिश्चित काल के लिए पाबंदी लगा दी है।
अभिव्यक्ति की स्वाधीनता हो या फिर व्यापक जनहित का आधार, ये दोनों ही अवधारणाएं कम से कम इंटरनेट मीडिया कंपनियों की नजर में सब्जेक्टिव नजर आ रही हैं। उनकी नजर में एक पक्ष के लिए जहां इनके मायने कुछ और नजर आते हैं तो दूसरे पक्ष के लिए कुछ और। यही वजह है कि उनके कार्यो पर सवाल उठ रहे हैं। चूंकि ट्विटर ही इन दिनों विवादों में है। इसलिए यह जान लेना चाहिए कि इन दिनों उसकी कमाई कितनी है। वर्ष 2020 के आंकड़ों के मुताबिक ट्विटर की कमाई 37 अरब 16 करोड़ 35 लाख डॉलर थी। कई देशों की तो अर्थव्यवस्था भी इतनी नहीं होती।


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