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Vijay Garg: सूचनाओं को अक्सर ज्ञानवर्धन के जरिये के रूप में रेखांकित किया जाता है। कहा जाता है कि वे सूचनाएं ही हैं, जो नई-नई जानकारियों के रूप में हमारे अज्ञान का नाश करती हैं और जीवन को एक अर्थ प्रदान करती हैं, पर जब सूचनाओं की बमबारी हो रही हो, हमारा मस्तिष्क किसी एक स्थान पर केंद्रित न रहकर जानकारियों के जंजाल में फंसकर तय नहीं कर पा रहा हो कि किस सूचना को ग्रहण किया जाए और किसे छोड़ा जाए, तब क्या होगा ? ये सूचनाएं अर्थहीन तस्वीरों और वीडियो के रूप में हर क्षण हमारे मस्तिष्क के अधिकांश हिस्से को घेर ले रही हों, तब क्या स्थिति बनेगी? आश्चर्य नहीं कि इंटरनेट के रास्ते हर हाथ में समाए स्मार्ट फोन पर जिस इंटरनेट मीडिया ने हमें चारों ओर से घेर लिया है, उससे पैदा हो रही मानसिक अवस्था को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने "ब्रेन रोट" यानी दिमागी सड़न रूपी शब्द के रूप में दर्ज किया है। वर्ष 2024 के वर्ड आफ द ईयर के रूप में "ब्रेन रोट" का चुनाव करते हुए आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने असल में इंटरनेट मीडिया की उस बीमारी को उजागर कर दिया है, जो शायद पूरी दुनिया के लिए एक बेहद गंभीर समस्या बन गई है।
यह दिमागी जड़ता आई कहां से है? मानव सभ्यता का इतिहास देखें तो सवा दो सौ साल पहले शुरू हुए उद्योगीकरण तक इंसानों के पास ज्यादा सूचनाएं नहीं थीं, लेकिन उसका मानसिक विकास रुका नहीं। तमाम कलाएं विकसित हुई, ढेरों साहित्य रचा गया, अनेक बेमिसाल आविष्कार हुए और सभ्यता विकास के उस शीर्ष पर पहुंची, जहां पर पहुंचकर इंसान इस ज्ञात ब्रह्मांड की सबसे शक्तिशाली प्रजाति बन गया, लेकिन इंटरनेट और बीते एक-डेढ़ दशक में हमारे सिर चढ़ जाने वाले इंटरनेट मीडिया ने सभ्यता के इतिहास में शायद पहली बार हमारी मानसिक या बौद्धिक स्थिति को इतने गर्त में पहुंचा दिया है, जहां छिछले ज्ञान और बेहूदा मनोरंजन को भी लोग सहजता से ग्रहण करने लगे हैं। उन्हें अर्थहीन तस्वीरों, एआइ से बनाई गईं बेहूदा सामग्रियों (कंटेंट) में कुछ भी तुच्छ नजर नहीं आता है, बल्कि ऐसी सामग्रियों को बढ़-चढ़कर देखा जाता है। ऐसी सामग्रियों का अत्यधिक उपयोग किया जाता है, जो असल में इंटरनेट का कचरा हैं। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि इसमें किसी का नुकसान क्या है, पर सवाल तो यह कि ऐसा कंटेंट आखिर हमारे ज्ञान, जानकारी के स्तर या फिर मनोरंजन के स्पेस में भी क्या कुछ नया और सार्थक जोड़ रहा है? व्यर्थ की तस्वीरों और वीडियो के रूप में हर दिन हजारों-लाखों छोटे कण (रील्स और शार्ट्स) हमारे दिमाग में घुस तो रहे हैं, पर ये क्षणभंगुर सामग्रियां हमें कुछ भी ऐसा विशिष्ट नहीं दे रही हैं, जो व्यक्ति, समाज या देश का कुछ भला कर सकें। डिस्पोजेबल डिजिटल कंटेंट की गंदगी कहा जा सकता है कि कुछ लोगों को इंस्टाग्राम की रील्स, यूट्यूब के शार्ट्स और इंटरनेट मीडिया के अन्य मंचों पर ऐसा ही कंटेंट रचने से कमाई हो रही है, तो इसमें हर्ज ही क्या है। निश्चय ही, कुछ लोगों को इनसे रोजगार मिला है, लेकिन ऐसे लोगों की इंटरनेट मीडिया पर परोसी गंदगी जब हम तक पहुंचती है तो वह धीरे-धीरे हमारे दिमाग को सुन्न करने लगती है।
फेंके जाने योग्य डिजिटल सामग्री (डिस्पोजेबल डिजिटल कंटेंट) रूपी यह गंदगी असल में हमारे मस्तिष्क के एक मूल्यवान स्थान को स्थान घेर लेती है। ज्यादातर स्थितियों में एक नकारात्मक प्रवृत्ति की तरह जकड़े और सड़ते हुए दिमाग को और अधिक गंदगी की चाहत होती है। यही कारण है कि जब आप कुछ समय के लिए इंस्टाग्राम या फेसबुक पर कोई रील देखते हैं, तो एक के बाद एक करते हुए घंटों तक उन्हें ही देखते रहते हैं। यह असल में दिमाग को सुन्न करने वाली एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसमें एक स्थिति आने पर व्यक्ति को लगने लगता है कि वह किसी की जकड़ में है, पर उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे नहीं सूझता है। हालांकि दिमागी सड़न के कुछ प्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य देखे जा सकते हैं। जैसे, इससे किसी वस्तु - विषय पर ध्यान केंद्रित (फोकस) करने की अवधि घट जाती है। इसका असर यह होता है कि हमारे मस्तिष्क का सकारात्मक गतिविधियों में संलग्न होना मुश्किल हो जाता है । जैसे, हम किताबें नहीं पढ़ पाते हैं। कुछ ऐसा रच नहीं पाते हैं, जो हमें भीतरी संतुष्टि प्रदान करता है। चिंतन करने, शोध करने और सोच-विचार कर आविष्कार करने की सहज प्रवृत्ति कमजोर होने लगती है। इंटरनेट मीडिया के उद्भव के साथ दिमागी जकड़न के शिकार ऐसे लोगों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, जो फूहड़ता की श्रेणी में आने वाली ऐसी सामग्रियों के दर्शक, प्रशंसक हैं, जो असल में अर्थहीन डिजिटल मलबे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। समस्या यह है कि सूचनाएं और मनोरंजन प्रदान करने वाली कंपनियां भी बाजार मांग को देखते हुए ऐसी फूहड़ सामग्रियों का उत्पादन करने लगी हैं। ये अपने दर्शकों को ज्ञान, सूचना या वास्तविक मनोरंजन जैसा कुछ भी नहीं देती हैं। अगर हमारा मस्तिष्क एक स्थाई किस्म की जड़ता का शिकार हो रहा है तो कह सकते हैं कि हमारी असली जिंदगी पर वह नकली वर्चुअल जिंदगी हावी हो गई। है, जिसका वास्तविक दुनिया और उसकी जटिलताओं से कोई सरोकार नहीं है। डिजिटल उपवास में समाधान: बीते एक दशक में ऐसे कई शोध हुए हैं, जो बताते हैं कि इंटरनेट मीडिया एक बुरी लत में बदल रहा है। इससे मुक्ति का एक नया ट्रेंड 'इंटरनेट उपवास' है, जिसे कुछ विशेषज्ञ डोपामाइन फास्टिंग का नाम भी देते हैं। इसकी जरूरत उन लोगों को है, जो असल में इंटरनेट मीडिया, आनलाइन गेमिंग और पोर्नोग्राफी की लत के शिकार हो चुके हैं। यानी उनका दिमाग
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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Gulabi Jagat
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