सम्पादकीय

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022: सर्वांगीण विकास, महिला सशक्तिकरण के रास्ते

Rani Sahu
8 March 2022 9:48 AM GMT
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022: सर्वांगीण विकास, महिला सशक्तिकरण के रास्ते
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सर्वांगीण विकास, महिला सशक्तिकरण के रास्ते

डॉ. ब्रजेश कुमार तिवारी

जिस समाज में नवरात्र में पूजन के लिए कुमारियों की खोज होती है। सीता, सरस्वती, दुर्गा और लक्ष्मी को देवी के रूप में पूजते हैं। कन्यादान को सबसे बड़ा दान माना गया है जिसके बिना स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। उसी समाज का मिजाज कोख में कन्या की जानकारी होते ही आदिम बन जाता है।
भौतिक सुख की उत्तरोत्तर बढ़ती अभिलाषा ने मनुष्य को इतना अंधा बना दिया है कि वह आज अपने ही अजन्मे शिशु की गर्भपात द्वारा हत्या करता जा रहा है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को श्रेष्ठ नहीं बताया गया है। आश्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आंख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है।
हमारे देश की इन्दिरा गांधी, मैरी कॉम, सुषमा स्वराज, साइना नेहवाल, हरमनप्रीत कौर, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, इंदिरा नुयी, मीराबाई चानू अपने-अपने क्षेत्र में दुनिया में लोहा मनवा चुकी हैं। बावजूद इसके देश में हर वर्ष लगभग 2 लाख कन्याओं की गर्भ में ही हत्या हो रही है।
कहा जाता है कि ''किसी समाज की सभ्यता का अनुमान उस समाज में स्त्री को दिए गए आदर द्वारा आंका जा सकता है।'' मानव समाज के समुचित और सर्वांगीण विकास में महिलाओं का योगदान कभी भी कम नहीं रहा है परन्तु यह एक विडम्बना ही रही है कि समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा शायद ही कभी प्राप्त हुआ हो। वेदों में कहा गया है कि ''यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः'' अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती हे वहां देवताओं का वास होता है।
वेदों की रचना करने वाली भारतीय नारी थी, लक्ष्मीबाई, पद्मावती आदि नारियां भारत की थीं, अपनी अस्मिता को बचाने के लिए जौहर चिता सजाने वाली भी भारत की ही नारी थी। वह बुद्धिमान थी, प्राणवान थी, सहनशील थी, कभी बेचारी नहीं थीं। लेकिन कालान्तर में वह अपनी गरिमा खो चुकी हैं, उसका अवमूल्यन हो रहा है तथा उसे इस दुनिया में प्रवेश लेने के पहले ही दुनिया से विदाई दे दी जा रही है।
लिंगानुपात में भारी असंतुलन व कन्या भ्रूण हत्या मुख्य रूप से महिलाओं के प्रति लोगों की सोच, समाज के हर क्षेत्र में इनकी दयनीय स्थिति, सामाजिक असुरक्षा, दहेज व पारिवारिक परम्परा के कारण बढ़ता ही जा रहा है। प्रारम्भ से ही लड़कियों को पराया धन समझकर इनकी शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति को कमजोर बनाया जाता रहा है। प्रारम्भ में तो यह परीक्षण गर्भस्थ शिशु के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने की उत्सुकता को रोक नहीं पाने के कारण कराया जाता रहा।
किन्तु शीघ्र ही उत्सुकता व ममता का स्थान बेटी को बेटे से हीन माननेवाली दुर्भावना ने लिया और ये परीक्षण ऐसी कुटिल, स्वार्थी व द्वेषपूर्ण भावना से कराए जाने लगे कि गर्भ में कहीं लड़के की बजाय लड़की ही तो नहीं है। कुछ दिनों पहले मुम्बई में ''500 रुपये देकर 25 लाख रुपये (दहेज) बचाएं'' जैसे होर्डिंग देखे गये। अर्थ यह है कि 500 रुपये में भ्रूण की जांच करा लें
देश में कन्या भ्रूण हत्या के लिए एक सुनियोजित 'सिस्टम' तैयार है। यदि इसी तरह लड़कियों को हमारे जीवन से छीना जाता रहा तो न हमारा समाज रहेगा और न ही हमारी तथाकथित संस्कृति बचेगी। विश्व के प्रमुख देशों (100:105) की तुलना में भारत में लिंग अनुपात (100:93) काफी कम है। प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या रूस में 1140, जापान में 1041, अमेरिका में 1029, ब्राजील में 1025, इंडोनेशिया में 1004 तथा भारत में 932।
मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र (1979) के प्रथम अनुच्छेद में महिलाओं को पुरुषों के समान ही प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र हो, आर्थिक क्षेत्र हो, सामाजिक क्षेत्र हो सभी में समान अधिकार देने की बात कही गई है। जबकि आज बालिकाओं के बारे में अहम सवाल उनके जन्म लेने पर ही खड़ा है।
शिक्षा, कैरियर, शादी और समानता तो बाद की बात है। कहीं जन्म लेने की छूट मिल भी जाए, तो सामाजिक सुरक्षा हमेशा खतरे में रहती है। आज बच्चियों के साथ ज्यादा हिंसक वारदातें उनके परिचितों द्वारा की जा रही है। अब यह कहना गलत होगा कि बालिकाओं की अस्मिता घर में सुरक्षित है। आये दिन ऐसी खबरें रोशनी में आती रहती हैं कि जब विकृत मानसिकता वाले व्यक्ति मासूम बच्चियों, वृद्धाओं और विक्षिप्त महिलाओं के साथ तक बलात्कार करते हैं।
भ्रूण हत्या को रोकने में कानून भी रहे असफल
देश में स्त्री-पुरुष अनुपात में निरन्तर कमी को ध्यान में रखते हुए गर्भावस्था में भ्रूण की जांच के बढ़ते हुए उपयोग की घटनाओं पर नियन्त्रण करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा 'प्रसव पूर्व परीक्षण तकनीक अधिनियम, 1994 बनाया गया।
इसके साथ ही आईपीसी की धारा 313 में स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात करवाने वाले के बारे में कहा गया है कि इस प्रकार के गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने से भी दण्डित किया जा सकता है। देश में मादा भ्रूण हत्या रोकने के उद्देश्य से वर्ष 1994 में बनाया गया प्रसव पूर्व परीक्षण तकनीक अधिनियम गम्भीरतापूर्वक लागू नहीं किये जाने के कारण अपने निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहा है।
अगर समाज में लड़कियों की संख्या सुधारनी है तो शिक्षा पर सबसे ज्यादा जोर देना ही होगा और शिक्षा के साथ अपने व्यवहार से अपने छोटों और आपस के लोगों के बच्चों के लिए प्यार की भावना को दर्शाना होगा ताकि बाकी सब भी आपको आदर्श बना कन्याओं की इज्जत कर सकें।
पुरुष प्रधान समाज अपनी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था व सोच के उस दायरे से बाहर निकले जहां स्त्रियों का स्थान पुरुषों के बाद है। मानवाधिकार की जब हम बात करते हैं तो इससे पहले महिलाधिकार व उससे पहले महिलाओं की संख्या को बढ़ाना आवश्यक है। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग आदि को इस क्षेत्र में ध्यान देते हुए महिलाओं के अस्तित्व को बचाने के लिये आगे आना चाहिए।
भारत असमानताओं पर आधारित समाजवाला देश है। हमें कन्या भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार पहलुओं पर समग्र दृष्टिकोण से विचार करना होगा। यदि कानून से निराकरण सम्भव होता तो दहेज प्रथा का अस्तित्व अब तक बचा न होता।
भ्रूण हत्या को रोकने के लिए देशव्यापी आंदोलन चलाने की जरूरत
ऐसे ही कन्या भ्रूण हत्या का पूर्ण समाधान सिर्फ कानून से सम्भव नहीं है। इस बुराई को रोकने के लिये महिला-संगठनों, सरकार व प्रबुद्धजनों को मिलकर एक देशव्यापी अभियान चलाना होगा और जनता व विशेषकर माताओं को जागरूक करना होगा और उन्हें उन विकृत रूढ़ियों व मान्यताओं से मुक्ति दिलानी होगी जो कन्या-भ्रूण की हत्या के लिये जिम्मेदार हैं।
हमें अपनी सोच को बदलना होगा। सामाजिक मान्यताएं बदलने में समय लगता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अब बहुत समय नहीं लगेगा। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है क्या पता उसमें कोई प्रतिभा पाटिल, कोई स्वरकोकिला लता मंगेशकर, कोई उड़नपरी पी.टी. उषा, कोई किरण बेदी, कोई सायना नेहवाल और कोई मीराबाई चानू होती, तो कोई सुष्मिता सेन हो सकती थी।
ग्लोबल जेंडर इक्वेलिटी इंडेक्स 2019 के अनुसार, भारत 129 देशों में से 95 वें स्थान पर है और यह वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2019-2020 में 112 वें स्थान पर है। इन सूचकांकों से पता चलता है कि भारतीय महिलाओं को कार्यस्थल में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है या वे समान लाभ महिलाओं को प्रदान नहीं किए गए हैं जो उनके पुरुष समकक्षों को दिए जाते हैं।
यद्यपि बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ और स्किल इंडिया व मुद्रा लोन के बाद इसमें कुछ सुधार हुआ है, महिलाओं की उद्यमशीलता उच्च स्तर पर है। आंकड़े बताते हैं कि 2025 तक लगभग 10 करोड़ उद्यमियों को वित्त पोषित किया जाएगा, जिनमें से 50% महिलाएं होंगी। महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में और अधिक कदम उठाने की आवश्यकता है। क्योंकि बेटियां भी बुढ़ापे का सहारा बन सकती हैं।
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