सम्पादकीय

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022: महिला दिवस के उत्सव से ज्यादा, समतामूलक व सहयोगी व्यवहार की अपेक्षा

Rani Sahu
8 March 2022 9:55 AM GMT
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022: महिला दिवस के उत्सव से ज्यादा, समतामूलक व सहयोगी व्यवहार की अपेक्षा
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महिला दिवस के उत्सव से ज्यादा, समतामूलक व सहयोगी व्यवहार की अपेक्षा

भावना मासीवाल

आज महिला दिवस है। वैश्विक स्तर पर महिलाओं के योगदान को याद किया जा रहा है। उनके महिला होने पर उन्हें गौरवान्वित महसूस कराया जा रहा है। उनके मां, बेटी, पत्नी के जिम्मेदारी पूर्ण निर्वाह दायित्वों के प्रति आभार व्यक्त किया जा रहा है। महिलाएं आभार से अधिक समतामूलक व सहयोगी व्यवहार की अपेक्षा रखती हैं।
वह देवी बनाकर पूजने की सख्त विरोधी हैं, क्योंकि यह उत्सव एक दिन का होता है और फिर वही देवी सामाजिक परंपराओं की रूढ़ियों में दबकर मर जाती है या देवी की मूर्ति के समान नदी में विसर्जित कर दी जाती है। अक्सर हमारे पुरुष साथियों के मन में विचार उठता है कि महिलाएं क्या चाहती है? वह किस स्वतंत्रता की बात करती है?
हम सभी आजाद देश का हिस्सा हैं फिर ऐसे में किस स्वतंत्रता की वह बात करती हैं? फिर महिला दिवस के आने पर उत्सव का सा माहौल का होना और हमारे आसपास स्त्री स्वतंत्रता को लेकर तमाम तरह की बहसों का होना उन्हें अधिक विचारणीय मुद्रा में ला देता है।
व्यवहारिक स्तर पर इन बहसों का औचित्य कम ही देखने को मिलता है, क्योंकि समाज अभी भी परंपराओं और रूढ़ियों से बंधा हुआ है। यह रूढ़ियां परिवार में बेटी, पत्नी, बहू और मां के संबंधों के प्रति परिवार व समाज के व्यवहार में अक्सर देखी जाती है। हमें लगता है कि हम समाज में वैचारिक बहस से ही महिला दिवस के उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं या फिर महिलाओं को 'वेलेंटाइन डे' के समान 'स्पेशल फील' कराकर इस दिन की खानापूर्ति कर सकते हैं।
क्या चाहती हैं महिलाएं?
दरअसल महिलाएं इस एक दिन से अधिक जीवन के हर मोड़ में साथ और सहयोग की दरकरार रखती हैं। वह महिला है, इस जैविक संरचना से उन्हें प्यार है। उन्हें आपत्ति है तो उनकी जैविक संरचना को 'बाजार' या 'कमोडिटी' बनाकर देखे जाने की है। उन्हें आपत्ति है तो उन्हें अलग समझे जाने की। प्रत्येक मनुष्य की अपनी शारीरिक संरचना होती है, उसकी खामियां और खूबियां होती है। प्रकृति में भी प्रत्येक जीव से लेकर पेड़-पौधों तक में विविधताएं होती है और यही विविधता उन्हें खास बनाती है। खास होने का आश्य यह कदापि नहीं है कि आप अलग है
आप प्रकृति का ही हिस्सा होते हैं और आजीवन बने रहते हैं, क्योंकि उसके बिना आपका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है। मनुष्य जाति में भी स्त्री और पुरुष दो जीव हैं जिनकी अपनी शारीरिक संरचना की खूबियां व खामियां है। दोनों में न कोई श्रेष्ठ है न ही कोई हीन। फिर इस व्यवस्था में एक शारीरिक संरचना हीन की कोटि में कैसे आ गई? यह हमारे ही अपनों की खींची विभाजित रेखा का काम है। जिसने प्रकृति की दो खूबसूरत रचनाओं को स्त्री-पुरुष की सामाजिक विभेदक मानसिकता में बदल दिया।
रूढ़िवादिता बड़ी चुनौती
एक के साथ अस्पृश्यता का सा व्यवहार हुआ जो आज भी परिवारों में मासिक धर्म के समय बदस्तूर जारी है। हम चांद से लेकर मंगल तक की यात्रा कर आये हैं और आज भी हमारे भारतीय परिवारों में बेटियां, महिलाएं मासिक धर्म में अलग कर दी जाती है। इस व्यवस्था पर यदि सवाल खड़ा किया जाता है तो उसे परंपरा बना दिया जाता है। जो 'रक्त' सृष्टि में जन्म के उत्सव का आधार है, वही उसे घरों में अछूत बनाता है।
हम समाज में समानता पर वैचारिक बहस करते हैं। यह विभेद की मानसिकता भी समय के साथ अधिक गहराती रही है। वर्तमान में हमारे आसपास ऐसे बहुत से उदाहरण है जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि मंचों की बहस घरों के बाहर तक ही सीमित क्यों है? घरों के भीतर जिस शांति की लालसा में यह बहस जन्म लेते ही दम तोड़ देती है, उसका क्या?
शारीरिक नहीं सामाजिक समानता चाहती हैं महिलाएं
हमारे समाज में पूछे जाने वालों प्रश्नों में कि महिलाएं क्या चाहती हैं? कुछ जवाब आज का यह लेख है। महिलाएं समानता का अधिकार चाहती हैं, शारीरिक नहीं सामाजिक समानता। परिवार व समाज के भीतर कपड़ों से अधिक अभिव्यक्ति की।
अक्सर तमाम स्त्री मुद्दों में बहसों के दौरान देह की आजादी का नारा दिया जाता है और हमारा सुधीजन समाज उसे 'सेक्स ओब्जेकट', 'इजी टू अवलेबल' के तौर पर देखने लगता है। उसकी मानसिक विकास की सुई देह की स्वतंत्रता व मुखर होकर बोलने की क्षमता का आश्य इन्हीं संदर्भो में लेता है।
वह भूल जाता है कि देह से इतर भी व्यक्ति का मन होता है। महिलाओं का सर्वाधिक विरोध ही उन्हें देह के दायरे तक सीमित करके देखने की मानसिकता से है। यह विरोध आज का नहीं है बल्कि आदिकालीन समय से चला रहा है। जो शक्ति थी वह आज समाज में 'गाली' के रूप में प्रयोग की जा रही है। हमारे समाज में स्त्री की जैविक संरचना पर ही बहुत सी गलियां बनी है, अक्सर जिनका प्रयोग हमारे सुधीसमाज में किया जाता है।
महिला विरोधी भाषा व्यवहार
वर्तमान समय में गाली व्यवहारिक बोलचाल की भाषा का हिस्सा बन गई है। छोटे बच्चों से लेकर वयस्कों तक में भाषा व्यवहार गाली से आरंभ होता है और उसी पर समाप्त भी। हमारा सिनेमा भी इस भाषिक व्यवहार से दूर नहीं है। आज गाली के साथ भाषा का व्यवहार 'कूल' माना जाता है बिना यह सोचे समझे कि जिस भाषा को हम 'ग्लोरिफाई' कर रहे हैं या 'कूल' मानकर उसका प्रयोग कर रहे हैं वह महिला विरोधी गालियां है।
इन गलियों में सर्वाधिक स्त्री व उसके जननांगों को गाली का केंद्र बनाया गया है। क्योंकि किसी भी समाज में स्त्री को ही परिवार व समाज की कमजोर कड़ी माना जाता रहा है और यही कड़ी गाली के रूप में समाज में प्रयुक्त होती है।
स्वयं स्त्रियां भी स्त्रियों को स्त्री विरोधी गाली देती देखी जाती हैं और स्वयं को पुरुष के बरक्स प्रबल भाषिक व्यवहार का हिस्सा बनाती हैं जो कि सही नहीं है। ऐसे में फिर उसी सवाल पर चर्चा करूंगी कि जो अक्सर पूछा जाता है कि महिलाएं क्या चाहती हैं?
महिलाएं बराबरी का साथ व सहयोग चाहती हैं। वह स्त्री विरोधी गालियों से मुक्ति चाहती हैं। वह परिवार, समाज में बिना किसी शोषण की मानसिकता के जीना चाहती है। अपनों से ही यौन शोषण से सुरक्षा के नाम पर घर के भीतर बंधना नहीं चाहती हैं, बल्कि इस शोषण की मानसिकता से मुक्ति चाहती हैं।
वह सामाजिक बदलाव चाहती हैं, जहां मां-पिता दोनों बेटे-बेटी के प्रति समान शिक्षा का व्यवहार करें, बेटी-बहू के प्रति समान व्यवहार किया जाए। हमारे कुछ संकल्प ही हमारे अपनों को खुशी देते हैं। ऐसे में निर्णय हमारा है कि हम अपनों को ओर समाज को क्या देना चाहते हैं?
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