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लिहाजा महिलाएं ही पहाड़ और प्रकृति को बचा सकेंगी।
इस बार का अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस पहाड़ बनाम महिलाओं पर केंद्रित था। इसके दोनों ही पहलू महत्वपूर्ण थे-यानी पहाड़ भी और महिलाएं भी। दुनिया में 27 प्रतिशत भूमि पहाड़ों के हिस्से की ही है। पृथ्वी के एक तिहाई वन भी यहीं पाए जाते हैं। नदियों का जन्म पहाड़ों से ही संभव है। हिमखंडों का गढ़ भी पहाड़ ही है और आधी आबादी की पानी की आवश्यकता यहीं से पूरी होती है। यह भी सच है कि पहाड़ की पहचान महिलाओं से है। ऐसा कोई पहाड़ नहीं, जहां महिलाएं प्रमुख योगदान न देती हों। ये महिलाएं ही हैं, जो घर-बाहर की जिम्मेदारियां निभाती हैं। पहाड़ों का ऐसा कोई भी काम नहीं, जो बिना महिलाओं के संभव हो सके। खेती-बाड़ी, मवेशी, घास, लकड़ी और चूल्हा महिलाओं के जिम्मे के काम हैं। इसलिए पहाड़ की वास्तविक समझ महिलाओं में ही है।
महिलाओं की भागीदारी ही पहाड़ों को बचा सकती है। पहाड़ों को बचाना दुनिया में बिगड़ते पर्यावरण को बेहतर करने से भी जुड़ा है। अगर हमने सही समय पर निर्णय नहीं लिए, तो बढ़ती गर्मी, लू और बाढ़ जैसी घटनाएं और भी बढ़ेंगी। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहां बढ़ती गर्मी के कारण पहाड़ों को बड़े दुष्परिणामों से न गुजरना पड़ रहा हो। क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन आपदाओं के कारण हमें बड़ी क्षति झेलनी पड़ेगी, दुनिया की करीब 43 प्रतिशत आबादी सीधे इसकी चपेट में होगी और करीब 1.7 खरब डॉलर का नुकसान भी होगा। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2018 में करीब 1.6 करोड डॉलर का नुकसान दुनिया पहले ही उठा चुकी है। गौर करने वाली बात यह है कि दुनिया की आधी आबादी पहाड़ी पानी पर पलती है। ऊर्जा, भोजन, हवा, जंगल और मिट्टी चूंकि पहाड़ों की देन हैं, तो इन पर मंडराते खतरे को नकारा नहीं जा सकता।
अब सवाल यह पैदा होता है कि इन अंतरराष्ट्रीय कॉप जैसी गोष्ठियों से आखिर क्या हासिल होता है। इस बार की बैठक को ही देखिए, तो इसमें आपदाओं की भरपाई का रास्ता निकाला गया है और एक कॉमन फंड की बात हुई है। विडंबना यह है कि हम अभी तक कोई ऐसा कदम उठा नहीं पाए, जो इस दुनिया को प्रभावित करने से बचा सके। दुनिया में 207 देशों ने यह बात स्वीकारी है कि आपदाओं के कारण भविष्य में नुकसान बढ़ेंगे। मुश्किल यह है कि कॉप जैसी अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां पारिस्थितिकी की बात तो करती हैं, लेकिन इनमें आर्थिक मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। यह भी माना जा रहा है कि अगर किसी भी कारणों से ग्लोबल वार्मिंग का स्तर तीन डिग्री सेल्सियस पर पहुंचता है, तो दुनिया की 36 प्रतिशत और चार डिग्री पर 45 प्रतिशत जनसंख्या प्रभावित होगी, समुद्र तटों पर बसे बहुत से देश अपना अस्तित्व खो चुके होंगे। वैसे में, अंटार्कटिका से लेकर आर्टिक और थर्ड पोल के रूप में जाना जाने वाला हिमालय भी अपना अस्तित्व खो देगा। जीवन की तीन मुख्य आवश्यकताओं-पानी, भोजन और हवा की पूर्ति जहां से होती हो, उनका सरंक्षण हमारी प्राथमिकताओं का हिस्सा होना चाहिए। पहाड़ ही ये सारी चीजें हमें उपलब्ध कराते हैं।
पिछले वर्ष यूरोप से लेकर भारत और पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक जलवायु परिवर्तन के असर दिखाई पड़े। ऐसे में अगर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहाड़ों को बचाने के लिए कोई पहल न होती हो, तो अपने-अपने हिस्से के पहाड़ों को बचाने की अलख जगाने का काम हमें ही करना होगा। दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिन पर ध्यान देना पड़ेगा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चाहे जो भी निर्णय लिए जाएं, स्थानीय स्तर पर भी देशों को अपने स्तर पर स्वयं इसके प्रति चिंतित होना चाहिए कि किस तरह से वे अपने हिस्से की पारिस्थितिकी को बचाकर अपने लोगों का जीवन संकट में डालने से बचा सकते हैं। हमें अपने जीवन की सुरक्षा स्वयं करनी होगी। महिलाएं पहाड़ की आत्मा हैं और शरीर भी। इनके नेतृत्व में ही कुछ संभव होगा। पहाड़ों के तमाम आंदोलन, चाहे वे चिपको हो या कुछ और, सब में महिलाएं ही अग्रणी रही हैं। लिहाजा महिलाएं ही पहाड़ और प्रकृति को बचा सकेंगी।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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