सम्पादकीय

अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस 2021: इक्कीसवीं सदी की स्त्री, पिंक से ऑरेंज

Neha Dani
26 Nov 2021 1:43 AM GMT
अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस 2021: इक्कीसवीं सदी की स्त्री, पिंक से ऑरेंज
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तभी ऐसे अंतर्राष्ट्रीय दिवसों की सार्थकता प्रमाणित होगी।

25 नवंबर को महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। विश्व भर में हर तीन में से एक 15 साल से अधिक उम्र की महिला, किसी न किसी रूप में हिंसा का शिकार हुई है। संयुक्त राष्ट्र (यू.एन. वूमेन) के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 74 करोड़ से भी अधिक मामले प्रकाश में आये हैं। वैश्विक स्तर पर ये आँकड़े कोरोना महामारी से भी अधिक भयावह हैं।

इसी रिपोर्ट के अनुसार औसतन 137 महिलाओं की हत्या हर रोज उनके परिवार के लोगों द्वारा की जाती है। यहाँ तक कि हर तीन में से एक बच्ची (11 से 15 साल) स्कूल में अपने सहपाठी द्वारा मारपीट को झेलती है। उच्च पद पर आसीन महिला भी इस से अछूती नहीं हैं - इंटर पार्लियामेंट्रेयिन यूनियन के 2016 के एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 65 प्रतिशत महिला सांसदों को अपने पुरुष सहकर्मियों से आपत्तिजनक (सेक्सिस्ट) टिप्पणियों का बुरा अनुभव रहा है। एन सी आर बी के 2020 के रिपोर्ट के अनुसार, देश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी आयी है, कोरोना काल में ये सच्चाई से कोसों दूर है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, देश भर में घरेलू हिंसा के 1.1 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए, सबसे अधिक मामले पश्चिम बंगाल (19,962), उत्तर प्रदेश (14,454) और राजस्थान (13,765) से थे। महिला अधिकार पर काम करने वाले सिविल सोसाइटी समूह का मानना है कि ये आंकड़े केवल सरकारी रिकॉर्ड में हैं।
घरेलू हिंसा के दर्ज मामले कई गुना अधिक हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा रेखा शर्मा ने भी ये माना कि ये संख्या वास्तविकता से मेल नहीं खातीं हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग को पिछले साल की तुलना में ज्यादा शिकायतें मिलीं। महिला आयोग के पास वर्ष 2019 में 19,730 शिकायतें, वर्ष 2020 में 23,722 शिकायतें आयी जबकि इस वर्ष पहले 10 महीने में 27,902 से अधिक शिकायतें आयी हैं। कई एन जी ओ की मानें तो ग्रामीण इलाके में इस तरह के केवल 1-2 % मामले ही रिपोर्ट होते हैं ।
कहने को तो विश्व के 155 देशों ने घरेलू हिंसा एवं 140 देशों ने कार्यस्थल पर होने वाली हिंसा के खिलाफ कानून बनाए हैं। ये आंकड़े दिखाते हैं कि स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार की समस्या का संबंध कानून या कानून क्रियान्वयन से नहीं बल्कि समाज में व्याप्त सदियों से चली आ रही मानसिकता से है जहां स्त्रियों को छोटा या दोयम दर्जे का या "भोग "की वस्तु माना जाता है। यह सोच मात्र उचित शिक्षा एवं पारिवारिक संस्कार से ही बदली जा सकती है।
घरेलू हिंसा
अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस पर महिलाओं के अस्तित्व, अस्मिता एवं उनके योगदान के लिए दायित्वबोध की चेतना का संदेश छुपा है, जिसमें महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने का संकल्प लेना जरुरी है। यह दिवस हमें इंसान बन के नारी-हिंसा के खिलाफ मुखर होने के लिए प्रेरित करता है इस दिवस का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता से जुड़ा है।
इस विशेष दिवस के पीछे एक घटना है जो 25 नवम्बर, 1960, को राजनैतिक कार्यकर्ता डोमिनिकन शासक राफेल ट्रुजिलो (1930-1961) के आदेश पर तीन बहनों, पैट्रिया मर्सिडीज मिराबैल, मारिया अर्जेंटीना मिनेर्वा मिराबैल तथा एंटोनिया मारिया टेरेसा मिराबैल की 1960 में क्रूरता से हत्या कर दी थी। इन तीनों बहनों ने तत्कालीन ट्रुजिलो की तानाशाही का कड़ा विरोध करने का साहस दिखाया था। यूँ तो महिला अधिकारों के पैरोकार वर्ष 1981 से इस दिन को स्मृति दिवस के रूप में मनाना शुरू किया , वर्ष 1999 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एकमत से प्रस्ताव पारित कर हर वर्ष 25 नवम्बर को महिलाओं के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया । वर्ष 2000 में इसे मनाने की शुरुआत हुई थी।
वर्ष 2008 से यू. एन. वूमेन एवं संयुक्त राष्ट्र महासचिव की अगुवाई में यूनाइट कार्यक्रम के तहत यौन हिंसा की समाप्ति के लिए जागरूकता कार्यक्रम 16 दिनों तक 25 नवंबर से शरू हो कर 10 दिसंबर (अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस ) तक चलाये जाते हैं।
इस वर्ष की थीम है...."ऑरेंज : द वर्ल्ड एंड वॉयलेंस अगेंस्ट वूमन नाउ" स्त्रियों के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा तुरंत समाप्त हो । 'ऑरेंज' रंग रोशनी, प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता है। अब स्त्रियों को पिंक तक सीमित न रहकर रोशनी फैलानी है। संयुक्त राष्ट्र ने पिछले वर्ष से ही ऑरेंज को इस दिन का थीम बनाया है। हर महीने की 25 तारीख "ऑरेंज डे" के रूप में मनाने का तय किया गया है। वर्ष 2030 तक स्त्रियों के विरुद्ध हो रहे सभी तरह की हिंसा की समाप्ति का लक्ष्य रखा गया है।
विकसित एवं विकासशील देशों में ही नहीं, महिलाओं पर अत्याचार, शोषण, भेदभाव एवं उत्पीड़न विकसित देशों में भी व्याप्त है यह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत सहित दुनियाभर में अल्पसंख्यक और संबंधित देशों के मूल समुदाय की महिलाएं अपनी जाति, धर्म और मूल पहचान के कारण बलात्कार, छेड़छाड़, उत्पीड़न और हत्या का शिकार होती हैं। दलित एवं अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं साथ ऐसी घटनाएं अधिक होती हैं क्योंकि उनमें शिक्षा और सुरक्षा कम होती है और वे शिकायत नहीं कर पाती हैं।
आजादी के 75 साल बाद भी सभी सरकारों ने महिला सशक्तिकरण के लिए सराहनीय कार्य का दंभ भरा हो लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। - फोटो : सोशल मीडिया
आजादी के 75 साल बाद भी सभी सरकारों ने महिला सशक्तिकरण के लिए सराहनीय कार्य का दंभ भरा हो लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। आम महिलाएं अपने अधिकारों या बराबरी से कोसों दूर हैं। महिला उत्थान के लिए भले ही सैंकड़ों योजनाएं तैयार की गई हों, परंतु महिला वर्ग में शिक्षा व जागरूकता की कमी आज भी सच्चाई है। चूल्हे चौके से निकल कर कामकाजी महिलों की हालत और बदतर है, अधिकांश महिलाएँ दो शिफ्ट में काम कर रही एक घर के बाहर एक घर के अंदर। भारत में आदिवासी समुदाय , अल्पसंख्यक समाज की महिलाएं अपने अधिकारों से बेखबर हैं और उनका जीवन आज भी एक त्रासदी की तरह है।
अगर हम आज भी अखबारों की सुर्खियों या खबरें देखें तो एक तिहाई खबरें स्त्रियों पर अत्याचार सम्बंधित होती है, टी.वी पर तो सारी घटनाओं को स्थान भी नहीं मिल पाता। इन घटनाओं पर कभी-कभार एक आध हफ्ते शोर भी होता है, लोग विरोध प्रकट करते हैं, पर अपराध कम होने का नाम ही नहीं लेते , आखिर क्यों? हम देख रहे हैं कि आम नागरिकों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर कोई बहुत आक्रोश या इस स्थिति में बदलाव की चाहत भी नहीं है। वे स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं। तब इस समस्या का समाधान कैसे सम्भव है ?
स्त्री अस्मिता से जुड़ा हर पक्ष अपने आप में महत्वपूर्ण है किन्तु पितृसत्तात्मक समाज की सोच इसे समझते हुए न समझने का नाटक करती है जिससे मनमानी जारी रह सके। सतयुग से इक्कीसवीं सदी के साइबर युग तक की निरंतर यात्रा में अपनों द्वारा अपने पर किए गए शारीरिक, मानसिक शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवमानना, अवहेलना आदि अत्याचारों को सहने के लिए स्त्रियों को हर राह, हर मोड़ पर अनुत्तरित प्रश्न मिले कि उसकी अस्मिता क्या है, वो क्यों समाज में दोयम दर्जे की मानी गई है। मौन रह कर त्याग करती रहे तो देवी मानी जाएगी लेकिन जहां अधिकारों की बात की तो देवत्व के सिंहासन से धरती पर पटक दी जाएगी, घरेलू हिंसा का शिकार होगी।
ऐसे दिवसों की सार्थकता तभी साबित हो सकती है जब विश्वव्यापी समाज स्त्रियों के प्रति अपनी मानसिकता में बदलाव लाने का प्रयास करेगा। सिमोन द बोउआर के प्रसिद्द कथन 'स्त्रियां पैदा नहीं होतीं बना दी जाती हैं 'को बदलने का समय आ चुका है। इक्कीसवीं सदी ही शायद इस ऐतिहासिक बदलाव का गवाह बने जहाँ स्त्रियों को बनने दिया जाये। तभी ऐसे अंतर्राष्ट्रीय दिवसों की सार्थकता प्रमाणित होगी।

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