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आज विश्व नृत्य दिवस है
विनय उपाध्याय
आज विश्व नृत्य दिवस है. एक ऐसी कला को देखने-समझने का अवसर जो जीवन की आनंदित लय-ताल पर थिरकते हुए देह की अभिव्यक्ति के अलहदा रूपक रचती है. अंतर्यात्रा की राहें खोलती हैं. विराट को पुकारती है. भक्ति के पवित्र भावों का संचार करती है. देह, मन और आत्मा मिलकर शांति की प्रतिष्ठा करते हैं. भारतीय नृत्यों की बहुरंगी दुनिया यह साबित करती है कि हमारी संस्कृति के सुनहरे अध्यायों को कला के इस फलक पर बहुत बेहतर ढंग से पढ़ा जा सकता है. यहाँ विश्व मानवता के लिए करूणा, प्रेम, शांति, समता, ममता, एकता और भाईचारे का संदेश पढ़ा जा सकता है. शैलियों, घरानों और गुरू परंपराओं पर नज़र जाती है तो इस विरासत को समृद्ध करने वाली अनेक प्रतिभाओं की कहानियाँ सपनों-संघर्षों, चुनौतियों, हौसलों और कामयाबियों को बयां करती हैं.
शिखर सम्मान से विभूषित प्रसिद्ध नृत्यांगना लता सिंह मुंशी से संवाद करते हुए न केवल नृत्य की पारंपरिक पहचान और खूबियों को समझा जा सकता है बल्कि प्रयोग की ज़मीन पर नवाचार के आग्रह को समझना भी सहज होता है. वे हिन्दी भाषी राज्य मध्यप्रदेश की रहवासी हैं. यहीं परवरिश हुई. यहीं रहकर उत्तर भारतीय नृत्य शैली कथक की तालीम लेते हुए अचानक एक दिन तमिलनाडु (दक्षिण) के भरतनाट्यम की ओर उनका रूझान हुआ. रूक्मणि देवी अरूण्डेल के कलाक्षेत्र से नृत्य प्रशिक्षित पंडित शंकर होम्बल से भारतनाट्यम की बुनियादी सीखें पायीं. डॉ. लीला सेमसन जैसी विदुषी नृत्य गुरू का सानिध्य मिला तो जीवन की दिशा ही बदल गयी. लता मुंशी के लिए पहचान और प्रसिद्धि की सरहदें सिमट आयीं.
दिलचस्प यह कि लता मुंशी ने भरतनाट्यम के असल वजूद और आंतरिक विन्यास को व्यवधान न पहुँचाते हुए बिलकुल नए प्रयोग किये. ये प्रयोग हमारी सांस्कृतिक बहुलता के बीच रचनात्मक परस्परता की मिसाल बने. इन संदर्भों के आसपास उनसे गुफ़्तगू के दौरान जाना कि उनके लिए भरतनाट्यम के कर्नाटक संगीत के समानांतर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को रखना आसान नहीं था. लेकिन वे दर्शकों के बीच इसे पूरे साहस के साथ ले गयीं. हिस्से में आयी अपार सराहना और स्वीकृति.
वे कहती हैं- मेरे अन्दर विचार पैदा हुआ और मैंने कोशिश की. मुझे मालूम था कि शायद सम्भव नहीं होगा, क्योंकि बहुत कठिन काम है वो, लेकिन कोशिश की है मैंने कि कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे उपयोग कर सकती हूँ. और मैंने बहुत डरते-डरते उसका प्रयोग किया. जब परफॉर्मेन्स हुआ, तो मुझे उसका बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिला. क्योंकि मुझे लगता है दर्शक भी हमेशा नयी चीज़ देखना चाहता है. उसका जब मुझे रिस्पॉन्स मिला तो मेरे अन्दर थोड़ी-सी हिम्मत बढ़ी, प्रयोग करने का हौसला लगातार बढ़ा. मैंने पारम्परिक भरतनाट्यम की जो रचनाएँ हैं, उनसे अलग हटकर बहुत सारा नया रचा.मध्यप्रदेश में रहते हुए भरतनाट्यम को लोकप्रिय बनाने के लिए मेरे लिए कई कसौटियाँ रहीं. मेरा मानना है कि कोई भी कलाकार वह कितना भी उच्चकोटि का क्यों न हो, कार्यक्रम के दौरान अगर उसका तादात्म्य दर्शकों से न हो, तो वह अच्छा कलाकार नहीं हो सकता. कलाकार की सबसे पहली जि़म्मेदारी दर्शकों को अपने आपमें या अपने आपको दर्शकों को सौंप देना ही होता है. जब दर्शक और कलाकार एक हो जाते हैं, तभी परमात्मा तक आप पहुँच सकते हैं और वो ही हमारे कार्यक्रम की सफलता होती है. अल्टीमेटली जो शास्त्रीय कलाएँ हैं, वो कहीं न कहीं हमें जोड़ती हैं पारलौकिक से. वही नर्तक की सफलता है.
लताजी बताती हैं कि चूँकि भरतनाट्यम के सारे कम्पोजीशन्स तमिल, तेलुगू, कन्नड़ भाषाओं में थे. और रस भाव से जो उत्पन्न होता है, वो दर्शक तक अगर नहीं पहुँचा तो कार्यक्रम आपका अधूरा होता है, चाहे आप कितना भी उच्चकोटि का नृत्य करते चले जाइए. क्योंकि कलाकार के लिए दर्शक ही सर्वस्व है. तो मुझे लगा कि दर्शक तक कैसे पहुँचा जाए? हर बार दर्शक बिल्कुल अलग तरह का होता है. उसकी कैटेगरी, उसकी भाषा, उसका बैकग्राउण्ड बिल्कुल अलग-अलग होता है. बहुत सारी भीड़ होती है, उसमें तरह-तरह के लोग होते हैं. उतने लोगों को समेटना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. सबसे पहली चीज़ जो हमारे बीच में हमें एक कर सकती है, वह है भाषा. भाषा के तौर पर हम जब एक हो जाते हैं तो वह हमारी बात सुनने लगते हैं. मुझे लगा कि हमारे मध्यप्रदेश में हिन्दी का ज्यादा प्रचार है. हिन्दी को सब लोग आसानी से समझते हैं और बहुत ज्यादा बोलते हैं. मैंने सोचा कि अगर मैं तमिल, तेलुगू या कन्नड़ में कोई भी आइटम करती हूँ, वह उनकी समझ में ही नहीं आयेगा. जब समझ में नहीं आयेगा तो उसका आनन्द कैसे लेंगे वो? रस कैसे पैदा होगा? तो मैंने उन सारे कम्पोजीशन्स के अलावा हिन्दी की कविता को नृत्य का आधार बनाया. जैसे मैं अगर कहूँ कि 'शिव पंचाक्षर'. 'शिव पंचाक्षर' साउथ का भी नहीं है, उत्तर का भी नहीं है वह हर मनुष्य के लिए है. दुर्गा सप्तशती, दुर्गा सप्तशती है. कुछ ऐसी चीज़ों को लेकर मैंने अपना नृत्य का संयोजन किया. जो पूरा कला का आधार है, निश्चित रूप से भगवान की आराधना कहूँ या भक्ति कहूँ बेसिक वही है. ये जो चीज़ें हैं, आदमी को बहुत जल्दी भावनात्मक तौर पर एक कर देती हैं या केन्द्रित कर देती हैं.
वे कहती हैं, एक बात और बताना चाहूँगी अपने प्रयोगों को लेकर. मध्यप्रदेश में कभी वायलिन मिला, कभी नहीं मिला, हमारे यहाँ भोपाल में तो ख़ासतौर से उस्ताद अब्दुल लतीफ खाँ जैसे कलाकार हुए हैं. चूँकि यहाँ सारंगी अच्छी-ख़ासी बज रही थी. तो मुझे बहुत विचार करने के बाद लगा कि सारंगी और वायलिन में बहुत ज्यादा अन्तर मुझे समझ में नहीं आया, बल्कि बहुत मीठा साज़ होता है सारंगी. मैंने सोचा कि क्यों न वायलिन की संगत में जब हम लोग एक साथ रहते हैं, तो सारंगी क्यों नहीं उसके साथ आ सकती. हमने गायन को भी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय शैली में कर दिया. अब सब कुछ यहाँ के दर्शकों के लिए आसान हो गया. अब पूरा संगीत, पूरा वातावरण उनके अनुरूप तैयार हो गया. कोशिश की बहुत हमने कि मृदंगम् चूँकि हमारा मुख्य साज है और ताल के बिना तो कुछ नहीं कर सकते, तो कई बार मृदंगम् नहीं होने से हमने तबले की कोशिश की कि मृदंगम् की तरह से उसे बजाया जाये और उसका प्रयोग किया जाये. मैं अपने हर कार्यक्रम में दोनों का कॉम्बिनेशन रखने का प्रयास करती हूँ.
लताजी एक किस्सा सुनाती हैं…- मैसूर में मेरा परफॉर्मेन्स था. तब मैं सारंगी लेकर गई, वहाँ तबला भी था, मृदंगम् भी था. जो दर्शक थे, बाकी सब चीजें तो जानते थे लेकिन सारंगी के बारे में वे बिल्कुल नहीं जानते थे. कई लोगों ने आकर हमसे प्रोग्राम के बाद पूछा कि ये कौन-सा साज़ है और ये कैसा होता है. उसको छूकर उसके बारे में पूछा कि ये कैसे बजता है, क्या होता है? सारंगी अच्छी बजी, तो साउथ के लोगों को बहुत अच्छी लगी.
लता मुंशी कहती हैं कि ऐसा नहीं कि मुझे इस नवाचार के लिए सराहना ही मिली. विरोध की आवाज़ें भी उठीं. कई लोगों ने बहुत ज़ोर से यह बात सार्वजनिक तौर से कही कि मैं भरतनाट्यम नृत्य शैली के साथ खिलवाड़ कर रही हूँ, मैं भरतनाट्यम नृत्य शैली के साथ बहुत ग़लत काम कर रही हूँ और इस तरह मुझे काम नहीं करना चाहिए. कहा कि परम्पराओं को तोड़ रही हूँ. फिर कोशिश की मैंने उन्हें समझाने की कि मैं नृत्यांगना हूँ, मेरी कोशिश है कि जो मेरी नृत्य की शुद्धता है वो बरकरार रहे और इस तरह से मैं नयी चीज़ें भी करूँ. मैंने कहा कि आप उस वक्त क्यों नहीं सोचते जब आज के समय में हमारे यहाँ के भारत भवन जैसे बड़े रंगमंच पर लोग आकर जैज म्यूजि़क के ऊपर कथक करके चले जाते हैं. इस बीच एक बार फिर याद करना चाहूँगी खाँ साहेब को.
वे बताती हैं कि उस्ताद अब्दुल लतीफ खाँ साहब के लिए हम लोग गुरू पूनम पर एक कार्यक्रम प्लान कर रहे थे. उसमें मैं भी अपनी हाजि़री देना चाहती थी. मैंने सोचा कि मैं उस्ताद जी की ही कम्पोजीशन्स के ऊपर नृत्य करूँगी, वो उनके लिए सही हाजिरी होगी. उनकी कम्पोजीशन्स में एक ग़ज़ल, एक भजन और तराना ये तीन मैंने आइटम तैयार किये. और ग़ज़ल के ऊपर भरतनाट्यम करने की हिम्मत जुटाई मैंने. बड़ी मुश्किल से. इसमें भजन मीरा का था. जब मैंने उसको किया था तो खुद की आँखों से आँसू बह रहे थे, दर्शकों की आँखों से आँसू बह रहे थे. वो क्या प्रतिक्रिया थी, मुझे नहीं मालूम. समझ में नहीं आया कि क्या हुआ! मैं सोच रही थी, मैंने तो नहीं किया. ग़ज़ल किया, तराना किया, उसमें रुलाने जैसी बात नहीं थी, पर कहीं कुछ ऐसा भाव था. चाहे वो आनन्द की चरम सीमा थी या भक्ति की चरम सीमा थी, आँसुओं के रास्ते से निकलकर बह रहे थे.
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