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जब भी किसी राजनीतिक दल का खराब वक्त आता है या उसकी राजनीतिक हैसियत का पतन होता है
जब भी किसी राजनीतिक दल का खराब वक्त आता है या उसकी राजनीतिक हैसियत का पतन होता है, तो उसमें अक्सर विभाजन हो जाता है. ऐसा कांग्रेस के साथ विषम परिस्थितियों में 1967 के बाद हुआ था. जनता पार्टी का भी हश्र कुछ ऐसा ही हुआ और उसके कई हिस्से हो गये. साल 1989 में सत्ता में आये जनता दल के साथ भी यही हुआ, लेकिन कांग्रेस के साथ 2014 के बाद ऐसा नहीं हुआ, जब वह सत्ता से बाहर हुई.
यह एक ऐसा सवाल है, जिसका हमें अब तक जवाब नहीं मिला है कि 2014 और 2019 की करारी हार के बाद भी क्यों कांग्रेस में टूट नहीं हुई और संगठन का एक बड़ा हिस्सा, जो सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व से संतुष्ट नहीं है, पार्टी से अलग नहीं हुआ. केवल वैसे कुछ नेताओं और उनके समर्थकों ने पार्टी छोड़ी, जिनके परिवार लंबे समय से राजनीति से संबद्ध रहे हैं. कांग्रेस में असंतुष्टों की कमी नहीं है, पर वे अलग पार्टी न बना कर किसी बेहतर मौके की तलाश में हैं.
तृणमूल कांग्रेस ने पिछले कुछ समय से यह संकेत दिया है कि वह कांग्रेसजनों को पार्टी में लेना चाहती है. जिन राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं, वहां कुछ लोग कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल का दामन थाम रहे हैं. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अनेक नेता भाजपा और सपा की ओर रुख कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी पार्टी में बना हुआ है. जहां तक कांग्रेसी नेताओं का भाजपा के अलावा ऐसी पार्टियों के साथ जाने का सवाल है,
जिन्हें सेक्युलर या भाजपा विरोधी माना जाता है, तो हमें यह समझना चाहिए कि देश की राजनीति में विचारधारा की जो बात है, वह धीरे-धीरे गौण होती जा रही है. मौके के अनुसार वैचारिक और सैद्धांतिक बातों की चर्चा की जाती है. हमारी राजनीति सत्ता के इर्द-गिर्द ही घूमती है. भाजपा के साथ यह बात है कि उसके पास पहले से ही हर जाति या समुदाय के लोग हैं.
ऐसे में अन्य पार्टियों से कोई कद्दावर नेता वहां जाता है, तभी उसे महत्व मिलता है, लेकिन दूसरी पार्टियां, जैसे तृणमूल कांग्रेस, अपने प्रभाव के क्षेत्रों या राज्यों से बाहर अपने विस्तार की संभावना देख रही हैं. पहले शरद पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बैनर तले ऐसा कर चुके हैं, लेकिन बीते 23 साल में वे महाराष्ट्र के बाहर अपनी खास जमीन नहीं बना सके हैं.
पवार ने अनेक राज्यों में चुनाव लड़ा और मेघालय में पीए संगमा की वजह से उनकी पार्टी की सरकार भी बन गयी थी, पर कुल मिला कर उनका विस्तार नहीं हो सका. वैसा ही प्रयास ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस कर रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि भाषा और मुख्य रूप से बंगाल आधारित पार्टी होने की अड़चनों के कारण उसका भी प्रसार मुश्किल है. इसके बावजूद इस पार्टी के साथ कांग्रेस के कुछ असंतुष्ट अवसर को देखते हुए जा रहे हैं, पर जिन्हें अभी मौका नहीं मिल रहा है, जैसे जी-23 के नेता, वे मन मसोस कर पार्टी में बने हुए हैं.
कांग्रेस के साथ सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पार्टी अपने यहां से हो रहे पलायन और लंबे समय से चल रहे असंतोष के समाधान के लिए गंभीरता से कोई कोशिश करती हुई नहीं दिख रही है. इसमें राहुल गांधी का व्यक्तित्व और उनके कामकाज का अख्खड़ तरीका बड़ा अवरोध है. भले ही उनकी सोच और विचारधारा बहुत अच्छी हो तथा उन्होंने कई मामलों में सही बात कही हो, लेकिन उनमें सभी को साथ लेकर चलने की वह कला नहीं दिखती, जो इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी में थी.
उनकी सोच यह है कि पार्टी का दरवाजा खुला हुआ है और जिसे बाहर जाना है, वह चला जाए, पर राजनीति में ऐसा नहीं होता. पार्टी एक परिवार की तरह होती है, नेतृत्व को सबके सुख-दुख, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का ध्यान रखना पड़ता है. सोनिया गांधी का जो सम्मान है, उसकी वजह से आज भी बहुत सारे नेता टिके हुए हैं. अब सवाल यह है कि ऐसा कब तक चल सकता है.
जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी आजाद बहुत सक्रिय हैं और लगातार बैठकें कर रहे हैं. बहुत संभव है कि वे एक क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर भविष्य के लिए कुछ पहल करें. कांग्रेस से अलग होकर क्षेत्रीय पार्टियां बनानेवाले हाल में सफल भी हुए हैं. आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी इसका उदाहरण हैं.
न तो राहुल गांधी भूल सुधार कर रहे हैं कि कांग्रेस में नेतृत्व का मसला जल्दी हल हो और न ही वे पार्टी के भीतर के असंतोष को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं. असंतुष्ट नेता भी नाखुश रह कर ही खुश हैं. सभी दलों की निगाह 2024 के लोकसभा चुनाव पर जरूर है, पर क्षेत्रीय पार्टियों की मुख्य चिंता अपने-अपने राज्यों में अपनी पकड़ बढ़ाने को लेकर है.
वे सभी दल अपनी समझ और शर्त के साथ मोदी सरकार या राजग गठबंधन को चुनौती देना चाहते हैं. हमने उत्तर प्रदेश में पीछे देखा कि 2017 के कांग्रेस व सपा तथा 2019 के बसपा व सपा का गठबंधन टिक नहीं सका. कांग्रेस का संबंध कुछ पुराने सहयोगी दलों के साथ भी ठीक नहीं है. ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व को जल्दी अपने सांगठनिक गतिरोध को दूर कर बड़ी राजनीतिक लड़ाइयों पर ध्यान देना चाहिए.
(बातचीत पर आधारित).
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