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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। याद करें सन् 2011 को! पांच साल राज कर मनमोहन सरकार 2009 में लोकसभा चुनाव जीती हुई थी। सरकार का इकबाल भरपूर था। कॉमनवेल्थ खेल जैसी वैश्विक धूम थी। अमेरिका-भारत एटमी करार से डॉ. मनमोहन सिंह का वैश्विक जलवा बना हुआ था। तभी अचानक आरटीआई में एक संशोधन की हल्की चिंगारी बनी। अरविंद केजरीवाल जैसे एक्टिविस्टों का हल्ला हुआ। मैंने तब अपने सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में केजरीवाल को बुला कर आरटीआई को ले कर बातचीत की। धरना-प्रदर्शन हुआ। केजरीवाल ने फिर अन्ना हजारे से संपर्क बनाया और 2011 खत्म होते-होते आरटीआई की चिंगारी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गई। सन् 2012 के मध्य में अन्ना हजारे आंदोलन का चेहरा बने और फिर जो हुआ वह दस साला मनमोहन राज के हस्र की दास्तां है। अपना मानना है कि पहले कार्यकाल में कांग्रेस-मनमोहन सरकार लेफ्ट आदि सबको साथ ले कर चलते हुए थी। सोनिया गांधी, अहमद पटेल, चिदंबरम, प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल आदि याकि कांग्रेस हाईकमान अहंकार-घमंड में नहीं था। न ही क्रोनी पूंजीवाद मुखर था। मगर 2009 में अच्छी सीटों के साथ दुबारा चुनाव जीतने के बाद सरकार और कांग्रेस के चेहरों में यह मुगालता, यह घमंड बना कि वोटों के प्रबंध में (मुस्लिम, दलित, आदिवासी, गरीब आदि) उनके पास जितने-जैसे नुस्खे हैं उसके आगे विपक्ष या भाजपा की चुनौती का कोई मतलब नहीं है। जब आडवाणी जैसे लौहपुरूष के मजबूत नेतृत्व के नारे को मतदाताओं ने पप्पू नेतृत्व करार दिया तो भाजपा में और है कौन!